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क्यों नहीं महसूस होती समाज के सड़ते जाने की दुर्गंध?

यज्ञोपवीत संस्कार और विवाह ख़र्चीले होते जा रहे हैं और अब ये अपनी हैसियत दिखाने के लिए भी किए जाते हैं। ऐसे आयोजनों में दिखावा बढ़ता जा रहा है। विडंबना यह है कि माँ-बाप से ज़्यादा बच्चों की ज़िद इसका कारण है। जिन्होंने अपनी शादी सादगी से की, वे अपने बच्चों की शादी तड़क-भड़क के साथ करने को मजबूर हैं। लेकिन समाज का अगुवा तबक़ा इस मामले में कोई नज़ीर पेश नहीं करता।
अपूर्वानंद
विवाह का मौसम है। शादियों के न्योते मिल रहे हैं। हाल ही में एक शादी में शामिल होने के बाद सोचना शुरू किया कि क्यों हमने विवाह आदि के आयोजन के तरीक़ों पर बात करना बंद कर दिया है। कुछ समय पहले अपने लिए दो चीज़ें तय की थीं, एक दहेजवाली शादी में शामिल नहीं होना है और दूसरा जनेऊ या यज्ञोपवीत संस्कार में नहीं जाना है। मालूम हुआ कि इस निर्णय की रक्षा करने का मतलब प्रायः किसी भी शादी में न जाना है।
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यज्ञोपवीत संस्कार के प्रति ब्राह्मणों का रुख़ दिलचस्प है। क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि यह वास्तव में द्विज के लिए अनिवार्य है? वह जो औरों की तरह ही पैदा हुआ, ब्राह्मण अपने आप नहीं बन जाता। उसे यह संस्कार करना होता है। अगर ख़ुद को उच्च जाति में शामिल करने वाले दावा करते हैं कि अब भारत में जाति भेद जैसी चीज़ नहीं रह गई है, तो वे स्वयं ब्राह्मण पैदा करने वाली यह रस्म ख़त्म क्यों नहीं करते! नहीं, उन्होंने यह तर्क देना आरम्भ किया है कि यह दरअसल एक सामाजिक समारोह है, इसका जाति से कोई लेना-देना नहीं।

यज्ञोपवीत संस्कार प्रायः विवाह की तरह ही विस्तृत होते हैं। इसीलिए ख़र्चीले भी। अब वे अपनी हैसियत दिखलाने के लिए भी किए जाते हैं। ख़ुद को आधुनिक मानने वाले नौजवान ख़ासी बड़ी उम्र में भी यज्ञोपवीत संस्कार में शामिल होते हुए न सिर्फ़ नहीं शर्माते, बल्कि उसका पूरा आनंद लेते हैं। वे इसके प्रतिक्रियावादी पक्ष पर, इसके साथ जुड़े भीषण सामाजिक भेदभाव और अत्याचार के इतिहास को भी मज़े से नज़रंदाज़ कर देते हैं। वे यह क़तई नहीं सोचते कि इसका समाज के दूसरे हिस्सों पर क्या असर पड़ता है।

यज्ञोपवीत पर तो विचार जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद बंद हो गया। उस आंदोलन की एक ख़ासियत थी जनेऊ तोड़ने का अभियान और अंतरधार्मिक, अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय रिश्तों का बनना। यह नए समाज को बनाने की एक कोशिश थी। राजनीति का समाजीकरण भी था। जयप्रकाश का नामजाप करने वालों ने इसे भुला ही दिया है। समाज के शिक्षित समुदाय की इसे लेकर लापरवाही चिंताजनक है। बल्कि इसे सामाजिक या सांस्कृतिक बताना ऐसी चतुराई है जो अब हमारा सामाजिक स्वभाव बन गई है। जो इसे कुरीति या विकृति नहीं मानते, उनसे आप कैसे बात करें! उनका तर्क यह है कि यह सिर्फ़ हमारे अपने समुदाय की बात है, हम दूसरों का तो कोई नुक़सान नहीं कर रहे! लेकिन क्या एक जाति की श्रेष्ठता दूसरे की हीनता के बिना संभव है? जातियों का निरंतर पुनरुत्पादन इस समाज के साथ क्या कर रहा है? 

यज्ञोपवीत के साथ विवाह को ले लें। ऐसे विवाह में ही शामिल हों जो अंतरजातीय या अंतरधार्मिक हों, यह निर्णय करना इतना आसान नहीं है। गाँधीजी ने भी काफ़ी बाद में ही सही, लेकिन यह तय कर लिया था कि वह ऐसी शादियों को ही अपना आशीर्वाद देंगे।

अम्बेडकर ने सुझाया था कि अगर जातिभेद को तोड़ना है तो ऐसे रिश्ते करने होंगे। ख़ुद उन्होंने ऐसा ही किया। गाँधी के सहयोगी और सचिव प्यारेलाल ने अम्बेडकर के विवाह के बाद कनाट प्लेस में उनसे हुई मुलाक़ात का ज़िक्र किया है। उन्होंने प्यारेलाल से कहा कि बापू अवश्य इस विवाह से प्रसन्न होते।

बापू तो प्रसन्न होते लेकिन अम्बेडकर के इस निर्णय को लेकर दलित समुदाय में पूरी सहमति नहीं है। कुछ की समझ है कि उन्हें अपनी बिरादरी में ही संबंध करना चाहिए था। इसके पीछे की बेचैनी को समझा जा सकता है। एक जगह बातचीत में यह चिंता जताई गई कि पढ़-लिखकर अगर लड़कियाँ दूसरी जाति में रिश्ता कर लेंगी तो फिर अपनी बिरादरी के लड़कों का क्या होगा!

यह सब कुछ इसलिए आसान नहीं है। इंदिरा और फ़िरोज़ ने जब विवाह का फ़ैसला किया तो वह राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया था और उसमें गाँधी को हस्तक्षेप करना पड़ा था। आज तक इस विवाह को लेकर जो कुत्सित प्रचार चल रहा है, उससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारे समाज में इस प्रसंग में ज़हर और कितनी गंदगी भरी हुई है।

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एक बार चरण सिंह ने सुझाव दिया था कि सरकारी नौकरी वालों के लिए अंतरजातीय विवाह अनिवार्य कर देना चाहिए। अपनी प्रगतिशीलता के बावजूद नेहरू ने शादी जैसे निजी मामले में किसी तरह की राजकीय पाबंदी को पसंद नहीं किया।

हम इस पक्ष की बात छोड़ भी दें तो शादियों के आयोजन के बारे में चिंता के और कारण भी हैं। हर शादी और निराशा पैदा करती है। शादियाँ खर्चीली होती जा रही हैं और उनमें दिखावा बढ़ता जा रहा है। विडंबना यह है कि इसमें माँ-बाप से ज़्यादा अब बच्चों की ज़िद वजह है। जिन्होंने अपनी शादी सादगी से की, वे अपने बच्चों की शादी तड़क-भड़क के साथ करने को मजबूर हैं। उन्होंने अपने वक़्त तो अपने माँ-बाप की नाराज़गी उठाई लेकिन अब वे बच्चों से लड़ नहीं सकते। लाखों रुपये के लहंगे और दूल्हे के परिधान में किसी को अश्लीलता नज़र नहीं आती, वैसे ही जैसे खाने-पीने के सैकड़ों स्टॉल से कोई परेशानी नहीं होती।

समाज का अगुवा तबक़ा इस मामले में कोई नज़ीर पेश नहीं करता। पूँजीपति अपने यहाँ शादी में इस फूहड़पन का प्रदर्शन करें लेकिन जनता से जुड़े होने का दावा करने वाले राजनीतिक नेता जब इनमें शामिल होते हैं तो वे इसका समर्थन ही कर रहे होते हैं। हज़ारों लोगों को न्योतकर जब ये नेता भी ऐसे ही आयोजन करते हैं तो देखना मुश्किल नहीं है कि वे ख़ुद को नए सामंत की तरह ही पेश कर रहे हैं। जनता और उनके बीच ऐसी खाई है, जिसे भरना मुश्किल है।

एक वक़्त था जब शादी से जुड़े रस्मो-रिवाज, कहानियों और उपन्यास के विषय हुआ करते थे। आप सिर्फ़ प्रेमचंद के ग़बन को याद करें। अब ये विषय ग़ायब हो गए हैं। तो क्या यह मसला भी नहीं रह गया है? क्या दहेज समाप्त हो गया है?

चर्चा से ग़ायब हुआ दहेज का मुद्दा

मुझे एक नौजवान ने बताया कि बैंगलोर जैसे महानगरों में ऐसे जमावड़े होते हैं जिनमें विशिष्ट वर्ग, जैसे - आईआईटी, आईआईएम से पढ़े जवान या प्रशासनिक सेवा में काम कर रहे युवक शामिल होते हैं और वहाँ उनकी हैसियत के मुताबिक़ रिश्ते तय होते हैं। क्या हमारे नए ज़माने के नौजवान ऐसे मौक़ों से समाज में मेलजोल की संस्कृति को मज़बूत कर रहे हैं या वे नए प्रभु वर्ग पैदा कर रहे हैं? यह समाज में आपसी सहमति से दहेज को बनाए रखने और नए अभिजन के निर्माण का नया तरीक़ा है। दहेज का सार्वजनिक चर्चा से ग़ायब हो जाना एक नई चालाकी है। अब कन्या पक्ष पहले की तरह इसका रोना भी नहीं रोता। वह ख़ामोशी से ख़ुद को तबाह हो जाने देता है। इसमें समाज के अभिजन, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासक सब शामिल हैं। जिन्हें संविधान की रक्षा करनी है वे अपने जीवन की शुरुआत ही क़ानून तोड़कर करते हैं। 
आज़ादी के आंदोलन के दौरान नए समाज के निर्माण का सपना देखा ही नहीं गया, उसे यथार्थ बनाने के प्रयास भी किए गए। लेकिन वह पीढ़ी अब गुज़र गई।

आज़ाद हिंदुस्तान के अभिजन और शिक्षित जन ने ख़ुद को निरंतर नया करने का कोई श्रम नहीं किया। उन्होंने आधुनिक शिक्षा का लाभ तो लिया लेकिन किसी भी आधुनिक मूल्य के लिए संघर्ष नहीं किया। उलटे परंपरा के नाम पर सारी रूढ़ियों को आभूषण की तरह धारण किया और शान से उन्हें प्रदर्शित भी किया। 

अब जो पीढ़ी अपने जीवन के निर्णय ले रही है तो उसमें भी नया रास्ता बनाने की कोई जिद और दुस्साहस नहीं दिखता। जिन्हें अभिजात स्थान कहा जाता है, उनसे यथास्थितिवादी और स्वार्थी युवा बाहर निकल रहे हैं। थोड़े से नौजवान जो इसके ख़िलाफ़ जाते हैं उन्हें जातीय या धार्मिक श्रेष्ठता या विशिष्टता की रक्षा के नाम पर जब ख़त्म कर दिया जाता है तो कोई हाहाकार नहीं उठता। हमारी नाक इतनी भोथरी हो चुकी है कि धीरे-धीरे समाज के सड़ते जाने की दुर्गंध हमें महसूस नहीं होती। इस समाज के लिए क्या आशा की जाए?

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