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हिंसा को ही जीवन बनाने वाले क्या दानिश की तसवीरों की अपील सुन पाएँगे?

कोई भी सभ्य सत्ता इस रेखा का उल्लंघन करते हुए दीखना नहीं चाहती। तालिबान का यह वक्तव्य इसी का प्रमाण है कि घृणा, हिंसा, हत्या से परहेज न करते हुए भी अब चूँकि वे सत्ता की दावेदारी पेश कर रहे हैं और इसीलिए इस सभ्य संसार की इस न्यूनतम शर्त का वे सम्मान करते हैं, इस बात को वे रेखांकित कर रहे हैं।  दानिश की मौत से खुद को दूर करने को उसपर अफ़सोस जतलाने की और कोई वजह नहीं। 
अपूर्वानंद

अगर आपकी तसवीरें पर्याप्त अच्छी नहीं हैं तो इसका मतलब यही है कि आप (चीज़ों के) पर्याप्त निकट नहीं हैं। (फ़ोटोग्राफर रॉबर्ट  कापा)

दानिश सिद्दीकी अपनी तसवीरों के विषय के काफी करीब चले गए थे। जैसे वे अपने पूर्वज फ़ोटोग्राफर रॉबर्ट  कापा को उत्तर दे रहे थे : मैं पर्याप्त करीब था। वे शायद कापा की उस चुनौती को भी याद कर रहे थे : युद्ध के संवाददाता के पास दाँव  लगाने को अपनी ज़िंदगी होती है। या तो वह इस घोड़े पर उसे लगा दे या उस पर या आख़िरी मिनट में उसे अपनी जेब में डाल  ले।

 दानिश ने अपनी मौत से जवाब दिया कि मैंने अपनी ज़िंदगी को जेब में नहीं रख लिया था। उसे दाँव  पर लगा दिया।  मैं ज़िंदगी की सच्चाई के, जो कि यह  जंग है, पर्याप्त करीब गया। जैसे तुम भी उसके कुछ अधिक ही करीब चले गए थे। कापा: जब तुम इंडोचाइना युद्ध के वक्त मैदान में थे और आगे बढ़ती फ़ौज की तसवीरें खींच रहे थे कि लैंड माईन पर पाँव पड़ने से विस्फोट में मारे गए।  

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तालिबान ने जताया दुख

कापा 40 साल के थे। दानिश उनसे 2 साल कम। दानिश की मौत पर दुनिया भर से अफ़सोस जतलाया जा रहा है। यहाँ तक कि तालिबान भी इसमें शामिल हैं।  

तालिबान ने पत्रकार दानिश सिद्दीकी के मारे  जाने पर दुःख प्रकट किया है। वे इस मौत की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहते। तालिबान  ने अपने  बयान  में कहा है उन्हें मालूम न था कि दानिश युद्ध भूमि में हैं। यह भी कहा है कि कोई भी पत्रकार वहाँ हो और उन्हें ख़बर हो तो वे उसकी हिफ़ाजत का अपनी तरफ से इंतजाम करेंगे। 

तालिबान, जिन्हें हिंसा और हत्या से परहेज नहीं, इस मौत से ख़ुद को दूर करना चाहते हैं, इस बात से इस एक मौत की ख़ासियत का पता चलता है। यह एक गवाह, एक साक्षी की मौत है। और यह किसी भी लिहाज से जायज़ नहीं।

 सांवादिक अवध्य है

 'अँधा युग' को  याद कीजिए जिसमें पराजित अश्वत्थामा संजय को मार डालना चाहता है और उसे कृतवर्मा और कृपाचार्य रोकते हैं। संजय अवध्य है। सांवादिक अवध्य है, उसे  अभय प्राप्त है। यह काल और संस्कृतियों की यात्रा में यह सभ्यता का एक पैमाना रहा है। 

कोई भी सभ्य सत्ता इस रेखा का उल्लंघन करते हुए दीखना नहीं चाहती। तालिबान का यह वक्तव्य इसी का प्रमाण है कि घृणा, हिंसा, हत्या से परहेज न करते हुए भी अब चूँकि वे सत्ता की दावेदारी पेश कर रहे हैं और इसीलिए इस सभ्य संसार की इस न्यूनतम शर्त का वे सम्मान करते हैं, इस बात को वे रेखांकित कर रहे हैं।  दानिश की मौत से खुद को दूर करने को उसपर अफ़सोस जतलाने की और कोई वजह नहीं। 

taliban kill danish siddiqui in afghanistan - Satya Hindi

ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकता तालिबान

लेकिन क्या तालिबान इतनी आसानी से इस मौत की ज़िम्मेदारी से बच सकते हैं? आखिर दानिश को अफ़ग़ानिस्तान में होने की वजह ही क्या थी? अगर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने की जंग न कर रहे होते तो दानिश के वहाँ होने का कोई कारण न था। 

अमरीका ने भी दानिश की मौत पर अफ़सोस जाहिर किया है। लेकिन क्या अमरीका भी इस मौत की ज़िम्मेदारी से खुद को बरी कर सकता है? अफ़ग़ानिस्तान अभी जिस हिंसा से गुजर रहा है, जिसे अपने कैमरे से दर्ज करने दानिश वहाँ गए थे,उसके लिए क्या अमरीका ही प्राथमिकतः जवाबदेह नहीं?

दानिश की मौत के लिए ज़िम्मेदारी की इस बहस को कुछ लोग व्यर्थ मानेंगे। वे जो हिंसा को, युद्ध को एक सामान्य मानवीय स्थिति मानते हैं और यह कहते हैं कि अगर आपका कोई सीधा फ़ायदा या नुक़सान उससे नहीं तो आप उससे वास्ता ही क्यों रखें।

दानिश जैसे लोगों की मजबूरी यह है कि वे इस इंसानी हालत को उसके क़रीब से देखकर उसका एक-एक ब्योरा, उसके बिगड़े चेहरे की एक एक रग को दर्ज करना चाहते हैं। उनके पेशे का यही धर्म है। इस धर्म के निर्वाह में सुरक्षा की गारंटी नहीं है।

भारत में क्या हुआ था दानिश के साथ?

लेकिन दानिश पहली बार इस तरह के जोखिम में पड़े हों, ऐसा नहीं। भारत में , जो उनका अपना मुल्क है, वे एक दूसरी धारावाहिक हिंसा के कई बार करीब गए। पिछले साल उत्तर पूर्वी दिल्ली में मुसलमान-विरोधी हिंसा को कैमरे पर दर्ज करते वक्त वे खुद जोखिम में पड़े। 

2020 की वह हिंसा क्या थी?  उसे परिभाषित करनेवाली पहली तसवीर दानिश ने अपने कैमरे से खींची। एक मुसलमान को चारों तरफ से घेरे हुए भीड़, उसपर हमला करती हुई, और वह ज़मीन पर झुका हुआ, लहूलुहान, खुद को अपने हाथों इस हिंदू भीड़ की हिंसा से बचाने की कोशिश करता हुआ। 

जैसा हेनरी ब्रेसॉं ने कापा की "गिरते हुए सैनिक' की तस्वीर के बारे में कहा था, दानिश की यह तसवीर एक उनकी उस काबिलियत का सबूत है जो 'निर्णायक क्षण' को कैमरे से पहचानकर दर्ज कर सकती है।

इस हिंसा की तसवीर खींचते हुए देख भीड़ सशंकित हो उठी और दानिश को उसने घेर लिया। हो सकता है कि दानिश का नाम जान लेने के बाद उनका हश्र वही होता जो उनकी उस तसवीर के विषय का हुआ था। अपने एक हिंदू सहकर्मी की हाजिरदिमाग़ी की वजह से वे बच गए।

दानिश की ज़िम्मेदारी

हिंसा, टकराव को दानिश रकम करते रहे। उनके छात्र जीवन से उनकी मित्र सलमा सिद्धीक ने लिखा है कि वह इसे एक ज़िम्मेदारी, कर्तव्य की तरह कर रहे थे। यह  जिम्मेदारी थी कमज़ोर के प्रति, जो हिंसा का निशाना बनाया जाता है, उसके प्रति जिम्मेदारी का तीखा अहसास!

हिंसा और युद्ध की तसवीरों के साथ ख़तरा यह है कि वे हिंसा की फ़ोटोग्राफी में शेष हो जा सकती हैं। सूसन सोंटैग ने फोटोग्राफी पर निबंध  में और बाद में  'द न्यूयॉर्क टाइम्स' में "युद्ध को देखते हुए" नामक निबंध में सावधान किया कि हिंसा और युद्ध की तसवीरों से हमारी इन्द्रियाँ और बोध हिंसा के प्रति सुन्न भी हो जा सकते हैं।

हिंसा का शिकार नितांत असहाय दिखलाई पड़ता हुआ मनुष्यता से बाहर चला जा सकता है। वह जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता। जो हमारी दया का पात्र है। इस तरह वह मनुष्यता खो बैठता है।

दानिश जैसे फ़ोटोग्राफ़र को मानवीय बोध के सन्दर्भ अपनी भूमिका की गंभीरता का पूरा अहसास था। इसलिए भी कि वे , जैसा उनकी मित्र सलमा ने लिखा है एक मुसलमान की तरह उस वक़्त भारत में बड़े हुए जब एक -एक हिंसा छवियों के जरिए पूरे देश में आक्रांता और आक्रांत के समूहों का निर्माण कर रही थी।

दूसरों का दर्द 

हरेक मुसलमान इस हिंसा से आक्रांत समूह का अंश होने को बाध्य था।  उससे बाहर रहने का विकल्प उसके पास नहीं था। दानिश की देह ने जैसे वह हिंसा जज्ब कर ली हो! 

क्या हिंसा और युद्ध तसवीरें दूसरों का दर्द हम तक पहुँचा सकती हैं? क्या वे हिंसा के विरुद्ध एकजुटता का गठन कर सकती हैं? दानिश के पहले भी हिंसा और युद्ध की मर्मांतक तसवीरें खींची गई हैं। तसवीरें उस हिंसा की स्मृति हैं। वे हमें उद्धरण, कहावतों की तरह ही याद रह जाती हैं। 

लकिन जैसा सूसन सोंटैग ने ही लिखा,"समस्या यह नहीं है कि लोग तसवीरें के जरिए क्या याद करते हैं, बल्कि समस्या यह है कि उन्हें सिर्फ तस्वीरें याद रहती हैं।" 

दानिश  जब मनावीय दुःख, तकलीफ, अत्याचार की तसवीरें खींच रहे थे तो वे ऐसा मनुष्यता को असहाय दिखलाने के लिए नहीं कर रहे थे। इन तसवीरें के माध्यम से वे हमें कैमरे से निकल कर उस विषय के साथ के ज़िंदा, इंसानी रिश्ता बनाने को कह रहे थे।

उनकी तसवीरें इस खोयी इंसानियत को तलाश करने की अपील हैं। तालिबान अपने  अफ़सोस की रस्म से निकलकर यह असली काम कर पाएँ या भारत में या पूरी दुनिया में हिंसा और युद्ध को ही जीवन बना देनेवाले इस अपील को सुन पाएँ, काश! 

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अपूर्वानंद

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