loader

यह आदिवासी की आवाज़ है बम का धमाका नहीं

छत्तीसगढ़ में सिलगेर के दीर्घजीवी आंदोलन के साथ कांग्रेस सरकार के रवैये से जाहिर होगा कि वह भारतीय जनता पार्टी से बुनियादी तौर पर अलग है या नहीं। राहुल गाँधी ने बार-बार, वह नियमगिरि हो या बस्तर, आदिवासियों को भरोसा दिलाया था कि वे उनके अधिकार के लिए उनके साथ लड़ेंगे। अब बस्तर के आदिवासी उनसे पूछ रहे हैं कि वे खामोश क्यों हैं।
अपूर्वानंद

2021 में एक आम भारतीय के राजनीतिक सामान्य ज्ञान और साक्षरता की जाँच कैसे की जाएगी? 2020 में एक भारतीय की राजनीतिक और सामाजिक साक्षरता की जाँच शायद सबसे आसानी से इस बात से की जा सकती थी कि उसे सिंघु और टिकरी बॉर्डर के बारे में क्या मालूम है। उसी तरह 2019 में यह शाहीन बाग़ के बारे में कहा जा सकता था। अगर आज उसे सिलगेर के बारे में कुछ नहीं पता तो मान लेना चाहिए कि उसकी राजनीतिक और सामाजिक इंद्रियाँ पर्याप्त संवेदनशील नहीं हैं।

सिलगेर को भारत के नक्शे पर खोजने की कोशिश कीजिए। फिर इस पर विचार कीजिए कि भारत की भौगोलिकता के हमारे बोध में उसे शामिल करने के लिए इतनी मेहनत क्यों करनी पड़ती है। 

ताज़ा ख़बरें

अगर आप मालिनी सुब्रमणियम, पुष्पा रोकड़े, आलोक पुतुल, आशुतोष भारद्वाज को पढ़ लें तो आपको मालूम होगा कि सिलगेर भारतीय जनतंत्र के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती और आमंत्रण, वह भी एक साथ क्यों बन गया है।

एक महीने से अधिक हो गया, छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के सिलगेर में पूरे बस्तर से हजारों आदिवासी इकठ्ठा हो रहे हैं। वे सिलगेर में सीआरपीएफ़ का कैंप लगाए जाने का विरोध कर रहे हैं।

आदिवासियों का विरोध-प्रदर्शन

जैसे सिंघु और टिकरी भारत सरकार के कृषि-कानूनों का विरोध करने वाले किसानों के लिए चुम्बक हैं, वैसे ही सिलगेर भी बस्तर और दांतेवाड़ा के आदिवासियों के लिए केंद्र बन गया है जो आदिवासी इलाकों में सुरक्षा बलों के कैंप लगाए जाने का और जबरन सड़क निर्माण का विरोध कर रहे हैं। मालिनी और पुष्पा की रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले अक्टूबर से अब तक ऐसे 12 विरोध-प्रदर्शन हो चुके हैं।

सिलगेर के विरोध प्रदर्शन पर सुरक्षा बल की तरफ से गोली चलाई गई जिसमें 3 आदिवासी मारे गए। पुलिस और सरकार ने फौरन मारे गए लोगों को माओवादी घोषित कर दिया। मानो माओवादियों को गोली मार देने का खुला लाइसेंस हर किसी को है। 

सरकारी बयान यह था कि प्रदर्शनकारियों की तरफ से गोली चली जिसके जवाब में आत्मरक्षा के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिसमें 3 माओवादी मारे गए। आदिवासी इसे सरासर झूठ बता रहे हैं। उनका कहना है कि उस इलाके में बिना स्थानीय लोगों से मशविरे के सड़क-निर्माण के नाम पर सुरक्षा बलों के कैम्प का वे शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे थे।

नकली आंदोलन?

छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने यह रुख ले लिया है कि यह आंदोलन नकली है। असल में माओवादी इसके पीछे हैं और वे ही आदिवासियों को डरा-धमका कर विरोध करवा रहे हैं। यह तर्क कुछ सुना हुआ लगता है। क्या भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने यह नहीं कहा था कि किसानों के आंदोलन के पीछे माओवादी और खालिस्तानी और जिहादी हैं! 

क्या उसी सरकार ने नागरिकता के कानून में संशोधन के बाद शुरू हुए आंदोलन को यह कहकर बदनाम नहीं किया था कि माओवादियों और जिहादियों द्वारा भोले-भाले मुसलमानों को भ्रमित करके यह आंदोलन करवाया जा रहा था। यही आरोप दिल्ली पुलिस ने अपनी चार्जशीट में लगाया है। कि यह आंदोलन एक देश, राज्य, सरकार विरोधी साजिश का हिस्सा है।

आदिवासी सामने हैं। वे एक महीने से धरने पर बैठे हैं। उनके हाथ में कोई हथियार नहीं है। इस बीच पुलिस और अन्य सुरक्षा बल पर कोई हमला नहीं हुआ है। क्या बस्तर भर के आदिवासी माओवादियों के उकसावे और धमकी के कारण बाहर निकल पड़े हैं और सरकार का विरोध कर रहे हैं?

माओवादियों का प्रभाव ज़्यादा?

अगर ऐसा है तो ढाई साल साल से बनी हुई सरकार को, जिसे इसी इलाके से भारी समर्थन मिला, मान लेना चाहिए कि आदिवासी उसपर विश्वास नहीं करते और यह भी कि आदिवासी समाज में माओवादियों का प्रभाव उसके मुक़ाबले कहीं अधिक है। यह क्या उस सरकार के लिए लज्जा का विषय नहीं होना चाहिए कि उसके मतदाता उसकी बात से कहीं ज़्यादा माओवादियों की बात सुनते हैं? 

क्या आदिवासियों को सरकार की हिंसा की ताक़त का पता नहीं है? भारत के आदिवासी किसी भी दूसरे समुदाय से ज़्यादा भारतीय राज्य की हिंसा झेलते रहे हैं। अभी 12 जून को झारखंड में एक आदिवासी युवक को पुलिस ने गोली मार दी। उन्हें भ्रम हो गया था कि वह माओवादी है। इस भ्रम में क्या अकेले उसी की जान गई है?

Tribals protest in Chhattisgarh Silger  - Satya Hindi

पुलिस ने चलाई गोली!

जो भ्रम झारखंड में भारतीय राज्य की सुरक्षा के लिए तैनात सशस्त्र बल को हुआ, उसी भ्रम में उन्होंने सिलगेर में तीन आदिवासियों को मार डाला। उस भ्रम को ढिठाई से अपना यकीन कहते रहे। यह कहा कि पहले उन्होंने गोली चलाई थी। लेकिन शुभ्रांशु चौधरी ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सीआरपीएफ़ के एक अधिकारी से बातचीत के आधार पर लिखा है कि गोली अनावश्यक रूप से पुलिस ने चलाई थी। शायद वह आदिवासी जमावड़ा देखकर घबरा गई थी। 

उस अधिकारी ने साफ़ कहा कि प्रदर्शनकारियों की तरफ से गोली नहीं चली थी, पुलिस का गोली चलाना गलत था और इसकी ठीक जाँच होनी चाहिए।

शांतिपूर्ण आंदोलन 

सिलगेर का आंदोलन शांतिपूर्ण है। किसी ने ठीक ही कहा कि अगर माओवादियों के कहने पर शांतिपूर्ण आंदोलन हो रहा है तब तो हमें और खुश होना चाहिए क्योंकि यही तो सरकार चाहती थी। यह कि अपनी असहमति हथियारों से नहीं, अपनी आवाज़ से जाहिर की जाए। लेकिन आदिवासी क्या करें कि छत्तीसगढ़ सरकार को उनकी आवाज़ में भी गोली चलती सुनाई देती है और वह जवाब में गोली ही चलाती है।

आदिवासी इलाके के साथ व्यवहार भारतीय जनतंत्र की मानवीयता, ईमानदारी और इंसाफ़ पसंदी की लिटमस जाँच है। जो-जो वादे भारतीय राज्य ने आदिवासियों के साथ किए थे उन्हें धोखे या साफ़ ढिठाई से तोड़ते जाने में कोई राजनीतिक दल दूसरे से कमतर नहीं रहा है।

आदिवासियों की ज़मीन पर नज़र

भारतीय राज्य को और उसकी प्रिय पूँजी को वह खनिज संपदा वाली भूमि चाहिए, वे जंगलात चाहिए जो आदिवासियों के घर रहे हैं। आदिवासी पिछड़े हैं क्योंकि वे इनका दोहन विकास के लिए नहीं कर पाते। सो, शिक्षित और प्रगतिशील समाज इन्हें खींचकर विकास की ऊपरी सतह पर ले आना चाहता है। 

इसमें वे क़ानून आड़े आते हैं जो जाने किस संकोच में इसी समाज ने बनाए थे, आदिवासियों की ज़मीन के अधिकार के संरक्षण के लिए। फिर सरकार बेचारी क्या कानून की अड़चन के चलते विकास न करे? सो, वह झूठ, धोखे और सीनाजोरी से ज़मीन हड़पती जाती है और उन्हें अपने प्रिय पूँजीपतियों के हवाले करती है जो शायद इसके बदले उन्हें चुनाव में चंदा देते हैं।

छत्तीसगढ़ में सिलगेर के दीर्घजीवी आंदोलन के साथ कांग्रेस सरकार के रवैये से जाहिर होगा कि वह भारतीय जनता पार्टी से बुनियादी तौर पर अलग है या नहीं।

राहुल गाँधी ने बार-बार, वह नियमगिरि हो या बस्तर, आदिवासियों को भरोसा दिलाया था कि वे उनके अधिकार के लिए उनके साथ लड़ेंगे। अब बस्तर के आदिवासी उनसे पूछ रहे हैं कि वे खामोश क्यों हैं।

चौड़ी सड़क पर एतराज़

आदिवासियों को सड़क, स्कूल, अस्पताल सब चाहिए। वे भी काम के लिए बाहर जाते हैं। वे भी बीमार पड़ते हैं। उन्हें भी शिक्षा चाहिए। लेकिन क्या सड़क इसके लिए बनाई जा रही है? आदिवासी कह रहे हैं कि उनको इतनी चौड़ी सड़क की ज़रूरत नहीं। सरकार को इसकी ज़रूरत है क्योंकि इन इलाकों पर अपना कब्जा बनाने के लिए और माओवादियों से रणनीतिक रूप से आगे रहने के लिए उसे अपनी हथियारबंद गाड़ियाँ दौड़ाने के लिए इनकी ज़रूरत है।

वह यह न बोले कि आदिवासियों के भले के लिए वह सड़क बना रही है और मूर्ख आदिवासी उसका विरोध कर रहे हैं या वे माओवादियों के उकसावे में आ गए हैं और सरकार का नेक इरादा नहीं समझते।

माओवादी एक प्रति-सरकार या प्रति राज्य ही हैं। उनकी विचारधारा के मुताबिक़ भी आदिवासी पिछड़ी उत्पादन-व्यवस्था के अवशेष हैं। जैसे अभी भारतीय राज्य के लिए। इस अवशेष को मिटाकर विकास की नई इमारत खड़ी करने का इरादा कांग्रेस और बाकी दलों का भी है।
आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं। क्या हमें इस विरोध को समझने में कठिनाई हो रही है? फिर हमें तालीम की ज़रूरत है। आवश्यक नहीं कि इसके लिए आप बस्तर तक जाएँ। आप अनुज लुगुन, सोनी सोरी, दयामणि बारला, कलादास, आलोक शुक्ल, आलोक पुतुल, मालिनी, शालिनी गेरा, बेला भाटिया, ज्याँ ड्रेज़ से ही बात कर लें।
वक़्त-बेवक़्त से और ख़बरें

कांग्रेस सरकार पर आरोप

सुधा भारद्वाज और फादर स्टेन स्वामी को तो जेल में बंद कर दिया गया है जो इन आदिवासियों के मुक़दमे लड़ने से लेकर इनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे हैं। ज्याँ ड्रेज़ पर भी कांग्रेस सरकार को भरोसा नहीं रहा? फिर उन्हें बेला के साथ सिलगेर तक जाने से कितनी बार रोका गया? क्यों? उनसे क्या डर?

आदिवासी समाज की चिंता और अपने जीवन के स्वप्न को समझने के लिए भारतीय संवैधानिक कल्पना के विस्तार की भी ज़रूरत है। आदिवासियों को किसी मुख्यधारा में डुबाने की हिंसा का विरोध करना आज की फौरी ज़रूरत है। दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार इसमें न सिर्फ असफल है बल्कि वह इस हिंसा में शामिल है।     

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अपूर्वानंद

अपनी राय बतायें

वक़्त-बेवक़्त से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें