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प्रशांत भूषण अवमानना मामला: सर्वोच्च न्यायालय में गाँधी का नामजाप क्यों?

चौरी चौरा के बाद आन्दोलन वापस लेना और अपने लोगों की हिंसा की आलोचना करना गाँधी के ही बस की बात थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी हिंसा के विरोध में पिछले कुछ वर्षों में कुछ कहा हो, याद नहीं आता! फिर सर्वोच्च न्यायालय में गाँधी का नामजाप क्यों?
अपूर्वानंद

गए हफ़्ते हमने क्षमा के भाव पर बात शुरू की थी। इस बीच काफ़ी कुछ हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने प्रशांत भूषण को बताया है कि अपनी ग़लती मान लेने से कोई छोटा नहीं हो जाता। इस प्रसंग में, जैसा भारत में हर प्रसंग में करने का रिवाज है, न्यायमूर्ति ने महात्मा गाँधी का सहारा लिया। कहा कि वह अक्सर क्षमा माँग लिया करते थे। दूसरों के लिए भी माफ़ी माँगते थे।

न्यायमूर्ति अवकाश मिलने के बाद गाँधी को पढ़ने का वक़्त पा सकेंगे। तब उन्हें मालूम होगा कि गाँधी अक्सर माफ़ी नहीं माँगा करते थे क्योंकि उनके निर्णय हड़बड़ी में नहीं लिए जाते थे। उनका एक-एक शब्द विचारा हुआ होता था। क्या गाँधी ने कभी अपने शब्द वापस लिए थे? इरादा उनका किसी को तकलीफ़ पहुँचाने का, अपमानित करने का कभी नहीं रहा, लेकिन मौक़ा पड़ने पर गाँधी का स्वर सख़्त भी हो जाया करता था। ख़ासकर तब जब उन्हें सभ्यता और शान्ति का पाठ पढ़ाने की कोशिश अँगरेज़ हुकूमत करती थी। अपने भारतीय विरोधियों या अन्य आलोचकों के साथ बात करते हुए गाँधी ने विनम्रता कभी नहीं छोड़ी, लेकिन अपनी जगह से हिले भी नहीं। जैसे जिन्ना के साथ या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के सदस्यों के साथ बहस में। यह न हुआ कि आधा रास्ता चलकर वह उनकी ‘पोजीशन’ की तरफ़ बढ़ने को राज़ी हो गए हों। उनके मित्रों ने यों ही नहीं उन्हें एक तरह का जिद्दी इंसान कहा है। जैसे भारत आने के तुरत बाद जब अपने आश्रम में दूधा भाई के परिवार के रहने को लेकर उनका अपने स्वजनों से ही मतभेद हुआ तो गाँधी ने उनकी भावनाओं का क़तई ख़्याल नहीं किया। उन्होंने उन सबको आश्रम छोड़ देने तक के लिए कह दिया, उनको तुष्ट करने के लिए क्षमा नहीं माँगी। उसी प्रकार अपने उपवासों में राजाजी हों या उनके पुत्र देवदास गाँधी, सबको उन्होंने दुखी किया। गाँधी ज़रा मुश्किल शै हैं। 

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

पूना समझौते के बाद ज़रूर उन्हें अपने इस विश्वास की ग़लती का अहसास हुआ जो उन्होंने उच्च जातियों की भलमनसाहत पर कर लिया था और यह यक़ीन कि वे उस अन्याय को पहचान पाएँगी जो उन्होंने शताब्दियों से दलितों पर किया है। गुरुवयूर के मंदिर में ‘हरिजन प्रवेश’ के लिए जो उनका उपवास था, वह एक तरह से दलित पक्ष से क्षमा याचना भी थी। चौरी चौरा के बाद आन्दोलन वापस लेना और अपने लोगों की हिंसा की आलोचना करना गाँधी के ही बस की बात थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी हिंसा के विरोध में पिछले कुछ वर्षों में कुछ कहा हो, याद नहीं आता! फिर सर्वोच्च न्यायालय में गाँधी का नामजाप क्यों?

अगर आततायी कहने लगे कि उसके अत्याचार का ज़िक्र करने से उसे अपमान का अनुभव होता है तो क्या करें? यह प्रश्न शायद थियोडोर अडोर्नो के समक्ष भी आया होगा। तभी तो उन्होंने कहा कि जल्लाद घर में फाँसी के फंदे का ज़िक्र नहीं करना चाहिए, वरना उसे लग सकता है कि आपके मन में उसके ख़िलाफ़ नाराज़गी या द्वेष है। आपके मन में उसके ख़िलाफ़ मैल है। इससे आपकी कमी का पता चलता है।

क़ातिल जब क़त्ल कर रहा होता है तो वह अपनी समझ से इन्साफ़ करता होता है। उस इन्साफ़ को क़त्ल कहने का मतलब उसके नेक इरादे पर शक करना है या उसकी नीयत पर ही शक करना है। जो इस तरह इरादे पर शक करे उसे माफ़ी माँगनी चाहिए या नहीं?

इस विषयांतर को रहने दें, कई भले लोगों की समझ थी कि प्रशांत भूषण को विनम्र होने की आवश्यकता थी। इसकी जगह वह अपनी बात पर अड़ गए। इससे मालूम होता है कि वह अहंकारी हैं। जब प्रशांत भूषण ने अपने शब्दों के लिए माफ़ी माँगने से इंकार किया तो वह एक उसूली रुख के साथ अपनी बात कह रहे थे। यह नैतिक अवसरवाद होता कि जो फाँक उनके लिए(!) बनाई गई थी, वे उस रास्ते निकल जाते। उसूल बहुत सीधा सा था, माफ़ी हमेशा सच्चे दिल से माँगी जाती है। जो माफ़ी सज़ा से बचने को माँगी जाए वह सच्ची नहीं है। इसपर काफ़ी बात हो चुकी है।

जब कोई आपसे माफ़ी खींचना चाहता हो और आपसे विनम्रता की माँग कर रहा हो, तो उसका प्रतिरोध करना ही इंसानियत की हिफ़ाज़त है। हृदय के अंतरतल से जब तक वह न उपजे, क्षमा व्यर्थ है। इसलिए जो बात बात में माफ़ी माँग लेते हैं, वे बस किसी तरह बचकर निकल जाना चाहते हैं।

विनम्रता और क्षमा का गहरा रिश्ता है। लेकिन विनम्रता और दृढ़ता में कोई विरोधी संबंध नहीं है। बल्कि उलटा ही सही है। जो दृढ़ है, वही विनम्र हो सकता है। विनम्रता और दीनता में फर्क है। अतिरिक्त विनम्रता से सावधान हो जाना चाहिए। उसमें अक्सर हिंसा न कर पाने की हिंसा छिपी होती है। जो अपनी बात कहते हुए विनम्र है, वह किसी भी बात को मान ले, ऐसा लुचपुच नहीं।

जो विनम्र है, अपनी बात रखते वक़्त अगर शायद का प्रयोग करता है तो उसे शायदवादी कहकर उसकी खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए। ऐसे लोग भी आपको मिलते ही हैं जो आपको चेता देते हैं कि वे एक महत्त्वपूर्ण बात कहने जा रहे हैं। अज्ञेय के सरस्वतीपुत्र से वे नितांत भिन्न हैं। कविता को याद कर लेना गुण ही करेगा:

मन्‍दिर के भीतर वे सब धुले पुँछे, उघड़े-अवलिप्‍त,

खुले गले से

मुखर स्‍वरों में

अति-प्रगल्‍भ

गाते जाते थे राम-नाम।

भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन जल्‍पक,

निर्बोध, अयाने, नाटे

पर बाहर जितने बच्‍चे उतने ही बड़बोले।

बाहर वह

खोया-पाया, मैला-उजला

दिन-दिन होता जाता वयस्‍क,

दिन-दिन धुँधलाती आँखों से

सुस्‍पष्‍ट देखता जाता था

पहचान रहा था रूप,

पा रहा वाणी और बूझता शब्‍द,

पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था

दिन-दिन पर उसकी घिग्‍घी बँधती जाती थी।

तो क्या इसका अर्थ यह है कि जो जितना ही जानता जाता है उतना ही बोलने में निश्चयात्मकता से बचता है? कौन हैं जो अपने सोचे और जाने हुए पर संदेह नहीं करते और आपकी गर्दन दबाकर अपनी बात उगलवाने को उद्यत रहते हैं?

आजकल ऐसे लोग दुनिया के हर कोने में ख़ुद को राष्ट्रवादी कहते हैं। लेकिन वह आख़िर एक विचारधारा ही है। और अपने यक़ीन और लफ़्ज़ को आख़िरी मानने की जो अहमन्यता उनमें है वह अन्य विचारधाराओं के अनुयाइयों में भी उसी अनुपात में पाई जाती है। वे जो मानते हैं कि उन्हें सिर्फ़ सच ही नहीं पता, उस तक पहुँचने का रास्ता भी उन्हीं को मालूम है। अज्ञेय सावधान करते हैं हमें ऐसे द्रष्टाओं से और पथप्रदर्शकों से। लेकिन जैसा पहले कहा, इसका अर्थ यह नहीं कि उनके पास कोई यक़ीन नहीं और वे ख़ुद कुछ नहीं। संघर्ष उनका कुछ अलग है।

अज्ञेय उस संघर्ष की गंभीरता को पहचानते हैं,

यह नहीं कि मैंने सत्‍य नहीं पाया था

यह नहीं कि मुझको शब्‍द अचानक कभी-कभी मिलता हैः

दोनों जब-तब सम्‍मुख आते ही रहते हैं।

प्रश्‍न यही रहता है:

दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं

मैं कब, कैसे, उनके अनदेखे

उसमें सेंध लगा दूँ

या भर कर विस्‍फोटक

उसे उड़ा दूँ?

कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं करें,

प्रयोजन मेरा बस इतना है:

ये दोनों जो

सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,

कब, कैसे, किस आलोक-स्‍फुरण में

इन्‍हें मिला दूँ -

दोनों जो हैं बन्‍धु, सखा, चिर सहचर मेरे।

सत्य का भान है मुझे और मैं कोई भाषावंचित नहीं, लेकिन दोनों के बीच के तनाव का समाधान मैं कैसे करूँ?

विनम्रता इस कठिनाई के बोध के कारण आती है। लेकिन क्या उससे कर्तव्यबोध क्षीण होना चाहिए? अज्ञेय की एक और कविता ‘उड़ चल, हारिल’ की इन पंक्तियों में इसका उत्तर है: 

उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में

यही अकेला ओछा तिनका।

ऊषा जाग उठी प्राची में-

कैसी बाट, भरोसा किन का!

 

“काँप न, यद्यपि दसों दिशा में

तुझे शून्‍य नभ घेर रहा है,

रुक न, यदपि उपहास जगत्‌ का

तुझ को पथ से हेर रहा है”

अपनी सीमा का अहसास ठीक है, लेकिन अपने सत्य की नैतिकता में अगर विश्वास है तो उसका अर्थ यह है कि उसे स्रष्टा का गुर पता है। गाँधी का अहिंसा में यक़ीन ऐसा ही था।

तू मिट्टी था, किन्‍तु आज

मिट्टी को तूने बाँध लिया है,

तू था सृष्‍टि, किन्‍तु स्रष्‍टा का

गुर तूने पहचान लिया है!

विनम्रता कर्म के लिए तत्पर बनाती है, कर्मशिथिल या जड़ नहीं।

मिट्टी निश्‍चय है यथार्थ, पर

क्‍या जीवन केवल मिट्टी है?

तू मिट्टी, पर मिट्टी से

उठने की इच्‍छा किसने दी है?

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संदेह, अनिश्चय, आदि बहाना नहीं हो सकता कर्म से पलायन का। असल बात है नैतिक दिशा के निश्चय का। जिस रास्ते किसी का संहार न हो रहा हो, किसी की अप्रतिष्ठा न हो रही हो, जिसमें पहले के संकोच को तोड़कर विस्तार की गुँज़ाइश बन रही हो, वह शुभ पंथ है। क्या हुआ अगर वह अपर्याप्त है! क्या हुआ कि वह अंतिम समाधान का दावा नहीं करता!

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