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एनआरसीः क्या यह खेल अब पूरे देश में खेला जाएगा?

असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) की अंतिम सूची में कुल आवेदनकर्तातओं से लगभग 19 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं हुए हैं। इन 19 लाख को विदेशी कहना सही नहीं होगा। खुद गृह मंत्रालय ने कहा है कि जिनके नाम नहीं होंगे वे विदेशी नहीं होंगे। सही है। जिनके नाम नहीं होंगे वे विदेशी न्यायाधिकरण में 120 दिनों में अपील कर सकेंगे। इसके लिए अतिरिक्त विदेशी न्यायाधिकरण बनाए गए हैं। इसके बाद ही बाकी की तसवीर साफ़ होगी।
उन्नीस लाख लोगों में से अन्य राज्यों के लोग हैं, असम के भी लोग हैं। लेकिन काग़ज़ात दे नहीं पाने के चलते उन्हें अंतिम सूची में शामिल नहीं किया गया है। इसलिए 19 लाख लोग विदेशी नहीं हो सकते। 
जो विदेशी होगा वह तो पकड़े जाने के डर से इन सब झमले में पड़ेगा ही नहीं। वह तो देश के किसी अन्य हिस्से में चला जाएगा, जहाँ फ़िलहाल एनआरसी की प्रक्रिया नहीं है। ऐसे में असम में एनआरसी को अपडेट करना एक निरर्थक प्रयास है। जब तक पूरे देश में एनआरसी नहीं होगी, तब तक यह निरर्थक ही होगी।

कोई नहीं है खुश!

असम में विदेशियों को खदेड़ने के लिए छह साल तक असम आंदोलन चला। साल 1985 में असम समझौता हुआ, लेकिन 34 साल बाद भी इस समस्या का हल नहीं निकला। एनआरसी सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में हुई। फिर भी असम आंदोलन करनेवाला अखिल असम छात्र संघ (आसू), बीजेपी, सुप्रीम कोर्ट में एनआरसी के लिए आवेदन करनेवाला असम पब्लिक वर्क्स (एपीडब्ल्यू) एनआरसी की अंतिम सूची से संतुष्ट नहीं हैं।
सबको लगता है कि जितने नाम छूटे हैं, वह संख्या कम है। जब दूसरे प्रारूप में 40 लाख लोगों के नाम नहीं आए तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इन्हें बांग्लादेशी क़रार दिया था। लेकिन वास्तव में सभी बांग्लादेशी नहीं थे। इसमें से आधे अंतिम सूची में जगह बनाने में सफल हो गए। लेकिन तब भी राजनीति हो रही थी और अंतिम सूची आने के बाद भी राजनीति ही हो रही है।

वैज्ञानिक तरीका अपनाया

एनआरसी के राज्य समन्वयक प्रतीक हाजेला ने कहा है कि एनआरसी को अपडेट करने में सर्वोत्तम वैज्ञानिक तरीका अपनाया गया है। हाजेला ने यह बात सचेतन नागरिक मंच के आरोपों का जवाब देने के लिए लिखे पत्र में कही है। मंच बीजेपी समर्थित संगठन है। इसने ही राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपकर पुनःसत्यापन की मांग की थी। 
केंद्र और राज्य सरकार ने भी मंच के ज्ञापन के जरिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर पुनःसत्यापन का अनुरोध किया था, जिसे अदालत ने ठुकरा दिया था। सुप्रीम कोर्ट में एनआरसी का मामला प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई देख रहे हैं। वह काफी सख्त हैं। निश्चय ही उन्होंने हाजेला द्वारा दिए गए तथ्यों को देखकर ही कोई फ़ैसला किया है।

कोई सबूत नहीं

हाजेला ने आगे कहा कि एनआरसी में नाम शामिल कराने के लिए आवेदनकर्ताओँ ने जो कागजात दिए हैं, उनका सत्यापन वैज्ञानिक तरीके से किया गया है। अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिक का इस्तेमाल न करने से छह करोड़ कागजातों का सत्यापन करना आसान नहीं था। मंच ने एनआरसी में काफी विदेशियों के नाम शामिल होने की बात कही,लेकिन आपत्तियाँ दर्ज कराने के लिए जो क़ानूनी प्रावधान थे, उनका इस्तेमाल मंच ने नहीं किया।
एनआरसी कार्यालय के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है जिससे पता चलता हो कि मंच ने एनआरसी के प्रारूप में ग़लत नाम शामिल होने को लेकर आपत्ति दर्ज की हो।

लचर दलील

मंच अपने ज्ञापन में कोई सबूत देने में सफल नहीं हुआ। मंच ने सिर्फ़ मोरिगाँव के एक स्कूल शिक्षक खाइरुल इसलाम का जिक्र किया जो एनआरसी के हाथ से लिखनेवाले प्रारूप में कुछ समय के लिए था। इसके कुछ दिनों बाद हाथ से प्रारूप लिखने की पूरी प्रक्रिया को ही बंद कर दी गई। मंच ने अपने ज्ञापन में कुछ एनआरसी के एप्लीकेशन रिसीप्ट (एआरएन) नंबरों का उल्लेख किया, पर वास्तव में उस तरह के कोई एआरएन नंबर है ही नहीं। 
मंच ने नंबर के तौर पर पाँच अंक के एआरएन नंबर लिखे हैं जबकि एआरएन नंबर 21 अंकों के होते हैं। मंच ने अपने ज्ञापन में स्वदेशी लोगों के नाम एनआरसी के प्रारूप में न रहने की बात कही है। इस पर भी वह कोई उदाहरण पेश नहीं कर पाया है। राष्ट्रपति को सौंपे गए ज्ञापन में 25 लाख लोगों के हस्ताक्षर रहने की बात कही है। पर वास्तव में ज्ञापन में 1.7 लाख लोगों के ही हस्ताक्षर थे।

गेम चेंजर

मालूम हो कि राज्य एनआरसी समन्वयक के कार्यालय की स्थापना 2013 में की गई थी। पर सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में एनआरसी को अपडेट करने का काम सही अर्थों में फरवरी 2015 में लीगेसी डाटा के प्रकाशन के साथ ही हुआ। उसी साल मार्च से अगस्त तक नागरिकों से आवेदन माँगे गए। 3.29 करोड़ लोगों ने एनआरसी में नाम शामिल कराने के लिए आवेदन किया। उसी साल सितंबर में फ़ील्ड वेरीफ़िकेशन शुरु हुआ।
इसके बाद फ़ैमिली ट्री वेरीफ़िकेशन किया गया। यह पूरी प्रक्रिया में गेम चेंजर का काम कर गया। इस प्रक्रिया के दौरान ही अधिकतर अनियमितताएँ पकड़ में आई।
पहला प्रारूप 31 दिसंबर 2017 की मध्यरात्रि को प्रकाशित किया गया। अंतिम प्रारूप 30 जून 2018 को 40 लाख आवेदनकर्ताओं के नाम के बिना प्रकाशित हुआ। पिछले साल 25 सितबंर को ही दावों और आपत्तियों को स्वीकारने की प्रक्रिया शुरु हुई। मजे की बात है कि एनआरसी के अंतिम प्रारुप में नाम न रहनेवाले 40 लाख लोगों में से चार लाख ने फिर से दावा ही नहीं किया जबकि दो लाख शिकायतें दर्ज हुई। बाद में एनआरसी के प्रारूपों में नाम रहनेवाले 1.02 लाख लोगों के नाम हटाए गए। वेरीफ़िकेशन के दौरान यह बात सामने आई कि इनके नाम एनआरसी सूची में शामिल होने के योग्य नहीं थे।
अब एनआरसी की अंतिम सूची के साथ ही फिर आलोचनाएँ शुरु हो गई है। विदेशी-विदेशी का खेल शुरु हो गया है। राजनीति शुरु हो गई है। यह अंतहीन प्रक्रिया है। पर पूरे देश में एनआरसी करने से ही सारी समस्याएं खत्म होंगी और सही अर्थों में पता चलेगा कि भारत में कितने लोग भारतीय नागरिक न होकर विदेशी हैं। तब तक इस तरह का खेल चलता रहेगा और कुछ संगठन और पार्टियां अपनी-अपनी रोटी सेंकती रहेंगी।
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राजीब कुमार सिंघी

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