loader

प्रेमचंद 140 : 18 वीं कड़ी: समय के प्रति जिम्मेवारी का बोध

लेखक, ख़ासकर कथाकार की सार्थकता तब है जब लोग उससे गपशप करना चाहें, जब उन्हें उसकी संगत में बैठने का जी करे। वह किसी को सुधार दे, बदल दे, उसकी यह महत्वाकांक्षा नहीं।

अपूर्वानंद
प्रेमचंद उर्दू और के अन्य कथाकारों या लेखकों से इस रूप में अलग थे और उनसे बड़े भी कि हमेशा ही अपने समय के प्रति अपनी जिम्मेवारी का बोध उन्हें था। यह बात अटपटी सी लगती है और लगता है कि यह तो हर लेखक में होता है लेकिन ऐसा है नहीं।
 अपने समय के बोध का अर्थ है अपनी सीमितता का बोध। अपने समय से बंधे होने का अहसास और उसकी स्वीकृति। स्वीकृति का अर्थ है एक विनम्रता। यह कि वह अपने समय को चुनौती नहीं दे रहा, उसे अपने साथ रहने और चलने का न्योता दे रहा है। 

साहित्य से और खबरें

मनुष्य की अपर्याप्तता

मैं समय से बड़ा नहीं हूँ। इसका अर्थ है, मैं उसकी सामूहिकता को पहचानता हूँ। मैं यह भी समझता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य अपने समय का बनाया हुआ है। और यह भी हर व्यक्ति एक सा नहीं है। इसलिए हरेक को सहानुभूति के साथ देखना ही उचित है। किसी को ठुकराया नहीं जा सकता। मनुष्य की अपर्याप्तता एक बड़ा सत्य है। अपने सत्य के अंतिम होने का ऐलान धर्मप्रवर्तक या कोई विचारधारा चाहे तो कर सकती है लेकिन लेखक, उसपर भी कथाकार को इसका तीखा अहसास है कि असल चीज़ तो संशोधन है।
आमूलचूल बदलने की बात सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन हम जानते हैं कि इसे लागू करने के नतीजे इतिहास में भयंकर हुए हैं।
‘साहित्य की प्रगति’ शीर्षक निबंध में साहित्य की परिभाषा देते हुए प्रेमचंद ने लिखा, 'साहित्य जीवन की आलोचना है, इस उद्देश्य से कि सत्य की खोज की जाए।' लेकिन इसके बाद वे सावधान करते हैं,

 'सत्य क्या है और असत्य क्या है, इसका निर्णय हम आज तक नहीं कर सके। एक के लिए जो सत्य है वह दूसरे के लिए असत्य। एक श्रद्धालु हिन्दू के लिए चौबीसों अवतार महान सत्य हैं—संसार की कोई भी वस्तु धन, धरती, पुत्र, पत्नी उसकी नज़रों में इतनी सत्य नहीं है। इसी प्रकार दया एक लिए सत्य है। पर दूसरा उसे संसार के सभी दुखों का मूल समझता है और इसलिए असत्य कहता है। इसी सत्य और असत्य का संग्राम साहित्य है।'

मनुष्य में आत्मा का विकास, और फिर नए नए सत्यों का आविष्कार जो प्राकृत सत्य नहीं, वरन मानव सत्य थे और फिर इनकी रक्षा के लिए नीति के नियम और बंधन।प्रेमचंद को इतिहास की यह समझ तो है कि वे यह देख सकें कि  

'मानव समाज में शान्ति का स्थापन करने के लिए जो जो योजनाएँ सोच निकाली गयीं, वह सभी कालान्तर में या तो जीर्ण हो जाने के कारण अपना काम न कर सकीं या कठोर हो जाने के कारण कष्ट देने लगीं।'
क्या नया धर्म रास्ता है? नितांत नई समाज व्यवस्था? क्या दूषित, जर्जर को ध्वस्त करने के साथ और सहनशीलता पैदा होगी ही? प्रेमचंद को इसमें संदेह है:

 'त्याग और संयम स्तुत्य हैं; उसी हालत में, जब वह अहंकार को अंकुरित न होने दे, लेकिन दुर्भाग्य से इन दोनों में कारण और कार्य सा सम्बन्ध पाया जाता है। जो जितना नीतिवान है, वह उतना ही अहंकारी भी है। इसलिए समाज आचारवालों को संदेह की निगाह से देखता है। एक शराबी या ऐयाश आदमी अगर उदार हो, सहानुभूति रखता हो, क्षमाशील हो तो समाज के लिए वह एक पक्के आचारवादी किन्तु अनुदार। घमंडी, संकीर्ण हृदय पुरुष से कहीं ज्यादा उपयोगी है। प्यूरिटन मनोवृत्ति जैसे इस ताक में रहती है कि किसका पाँव फिसले और वह तालियाँ बजाए।' 

साहित्यकार यह समझता है कि प्यूरिटनिज्म और अनुदारता पर्याय हो गए हैं। और जहाँ तक सेक्स का सवाल है, 

'वहाँ तो वह नंगी तलवार, बारूद का ढेर है। उसे अपने नियमों की रक्षा के लिए किसी का जीवन नष्ट कर देने में एक गौरव युक्त आनंद प्राप्त होता है। भोग उसकी दृष्टि में सबसे बड़ा पाप है।..पुरुषों के लिए चाहे किसी भी तरह क्षमा सुलभ भी हो जाए, किन्तु स्त्रियों के लिए क्षमा के द्वार बंद हैं और उनपर अलीगढ़वाला बाढ़ लीवर का ताला पड़ा हुआ है।'

प्रेमचंद के साहित्य का अवलोकन करने से अंदाज हो जाता है कि वह अगर किसी एक चीज़ से सावधान करता चलता है तो वह है किसी भी किस्म के प्यूरिटनिज्म से जुड़ी हुई अहमन्यता।

शुद्धतावाद से मुक्ति

मनुष्य को किसी भी प्रकार के शुद्धतावाद या पवित्रतावाद से मुक्त नेत्रों से देखनेवाला ही कथाकार हो सकता है। 

इस तरह देखें तो लेखक, कवि को प्रायः पैगंबर कहना एक हद तक ही ठीक है। लेखक, ख़ासकर कथाकार की सार्थकता तब है जब लोग उससे गपशप करना चाहें, जब उन्हें उसकी संगत में बैठने का जी करे। वह किसी को सुधार दे, बदल दे, उसकी यह महत्त्वाकांक्षा नहीं। रघुवीर सहाय ने इसकी पहचान ठीक की है,
'उन्होंने मानव मन की जटिल गुत्थियों और अम्स्यामूलक प्रवृत्तियों को बैठकखाने की किताबी बहसों का विषय नहीं बनने दिया था। उन्होंने इन गुत्थियों को भीतर तक पहचाना और उन्हें लिए-दिए अपने पात्रों की असंगतियों और वर्जनाओं के साथ पाठक के मन में प्रवेश कर गए-बाहर खड़े यह बताते नहीं रहे कि देखो, मैंने इन्हें पहचान लिया और मैं कितना आधुनिक लेखक हूँ।'
‘खतरनाक प्रेमचंद’ शीर्षक टिप्पणी में रघुवीर सहाय इन्हें पढ़ने और समझने का तरीका बताते हैं, 'प्रेमचंद का साहित्य एक मिलीजुली चीज़ है। कहीं-कहीं उसमें कथ्य और शिल्प का अचूक संपुंजन है, कहीं उसमें केवल कथ्य है, कहीं वह बीज है और कहीं पर पत्र, पल्लव, पुष्प और फल से लदा हुआ वृक्ष है। लेकिन उसकी विशेषता यह है कि वह हर हालत में पाठक को अनुभव कर करने पर और सोचने पर मजबूर करता है।' 

कलात्मक सावधानी

प्रेमचंद की कलात्मक सावधानी यह है कि वे पाठक को संवेदना के नए और पहले से ऊँचे धरातल पर प्रतिष्ठित कर देते हैं, बिना उसे सदमा पहुँचाए। वह खुद को कमतर करके न देखे बल्कि खुद अपने भीतर संवेदना की इस संभावना को पहचान सके। महत्त्व सिर्फ आपकी बात के सही होने का नहीं, बल्कि इसका भी है कि क्या वह एक सामूहिक चेतना का अंग बन पा रही है या नहीं।…..
‘खुचड़’ मानसरोवर के चौथे खंड में संकलित है।कहानी यों शुरू होती है,

  ‘बाबू कुन्दनलाल कचहरी से लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नीजी एक कुँजड़िन से कुछ साग-भाजी ले रही हैं। कुँजड़िन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं। इस पर कई मिनट तक विवाद होता रहा। आखिर कुँजड़िन डेढ़ ही पैसे पर राजी हो गई। अब तराजू और बाट का प्रश्न छिड़ा। दोनों पल्ले बराबर न थे। एक में पसंगा था। बाट भी पूरे न उतरते थे। पड़ोसिन के घर से सेर आया। साग तुल जाने के बाद अब घाते का प्रश्न उठा। पत्नीजी और माँगती थीं, कुँजड़िन कहती थी, 'अब क्या सेर-दो-सेर घाते में ही ले लोगी बहूजी।'

खैर, आधा घंटे में वह सौदा पूरा हुआ, और कुँजड़िन फिर कभी न आने की धमकी देकर बिदा हुई। कुन्दनलाल खड़े-खड़े यह तमाशा देखते रहे। कुँजड़िन के जाने के बाद पत्नीजी लोटे का पानी लाईं तो आपने कहा, 'आज तो तुमने जरा-सा साग लेने में पूरे आधा घंटे लगा दिये। इतनी देर में तो हजार-पाँच का सौदा हो जाता। जरा-जरा से साग के लिए इतनी ठॉय-ठॉय करने से तुम्हारा सिर भी नहीं दुखता ?'

रामेश्वरी ने कुछ लज्जित होकर कहा, 'पैसे मुफ़्त में तो नहीं आते !'

'यह ठीक है; लेकिन समय का भी कुछ मूल्य है। इतनी देर में तुमने बड़ी मुश्किल से एक धेले की बचत की। कुँजड़िन ने भी दिल में कहा, होगा कहाँ की गँवारिन है। अब शायद भूलकर भी इधर न आये।'

'तो, फिर मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि पैसे की जगह धेले का सौदा लेकर बैठ जाऊँ।'

'इतनी देर में तो तुमने कम-से-कम 10 पन्ने पढ़े होते। कल महरी से घंटों सिर मारा। परसों दूधवाले के साथ घंटों शास्त्रार्थ किया। ज़िन्दगी क्या इन्हीं बातों में खर्च करने को दी गई है ?'

कुंदनलाल एक आधुनिक,विवेकशील पुरुष हैं और पत्नी रामेश्वरी परंपराशील गृहस्थन। पति उदार है, पत्नी कृपण, अनुदार। उसके जीवन का वृत्त संकीर्ण है। वह कौड़ी दांत से पकड़ती है। पति की दुनिया कहीं अधिक विस्तृत है। यह सब उनके लिए उपेक्षणीय है। एक कुशल कथाकर की तरह आगे प्रेमचंद ऐसे ही प्रसंगों की योजना करते हैं जिनसे दोनों की प्रकृति का अंतर और स्पष्ट हो जाए। एक दिन बिल्ली दूध पी जाती है। प्रेमचंद की भाषा के आनंद से आप वंचित क्यों रहें?

रामेश्वरी दूध गर्म करके लाई और स्वामी के सिरहाने रखकर पान बना रही थी कि बिल्ली ने दूध पर अपना ईश्वरप्रदत्त अधिकार सिद्ध कर दिया। रामेश्वरी यह अपहरण स्वीकार न कर सकी। 

गुस्से में वह बिल्ली को रूल से मार बैठती है। कुंदनलाल फिर उपदेश आरम्भ कर देते हैं।

'उसे मारने से दूध मिल तो नहीं गया ?'

'जब कोई नुक़सान कर देता है, तो उस पर क्रोध आता ही है।'

'न आना चाहिए। पशु के साथ आदमी भी क्यों पशु हो जाय? आदमी और पशु में इसके सिवा और क्या अन्तर है ?

तीसरा प्रसंग एक भिखारी के साथ रामेश्वरी के रूखे बर्ताव पर पति के उपदेश का है,

  'इतने भिखमंगे आ कहाँ से जाते हैं ? ये सब काम क्यों नहीं करते ?'

'कोई आदमी इतना नीच नहीं होता, जो काम मिलने पर भीख माँगे।'हाँ, अपंग हो, तो दूसरी बात है। अपंगों का भीख के सिवा और क्या सहारा हो सकता है?'

'सरकार इनके लिए अनाथालय क्यों नहीं खुलवाती?'

'जब स्वराज्य हो जायगा, तब शायद खुल जायँ; अभी तो कोई आशा नहीं है मगर स्वराज्य भी धर्म ही से आयेगा।'

'लाखों साधु-संन्यासी, पंडे-पुजारी मुफ़्त का माल उड़ाते हैं, क्या इतना धर्म काफ़ी नहीं है ? अगर इस धर्म में से स्वराज्य मिलता, तो कब का मिल चुका होता।' 

इस बिंदु पर कहानी रामेश्वरी की तरह झुकने लगती है। पति हिन्दू जाति का महिमागान करना शुरू करते हैं और पत्नी टोक देती है,
  ‘आप समझते होंगे; हिन्दू-जाति जीवित है। मैं तो उसे उसी दिन से मरा हुआ समझती हूँ, जिस दिन से वह अधीन हो गई। जीवन स्वाधीनता का नाम है, ग़ुलामी तो मौत है।' 

यह एक स्वतंत्र मन और मस्तिष्क का विचार है और अपनी वैचारिक उदारता की अहमन्यता के मद में चूर पति को इससे ठोकर लगती है,

 कुन्दनलाल ने युवती को चकित नेत्रों से देखा, ऐसे विद्रोही विचार उसमें कहाँ से आ गये ? देखने में तो वह बिलकुल भोली थी। समझे, कहीं सुन-सुना लिया होगा। कठोर होकर बोले --'क्या व्यर्थ का विवाद करती हो। लजाती तो नहीं, ऊपर से और बक-बक करती हो।' 

सवाल पत्नी के विचारों के प्रगतिशील होने का जितना नहीं, उतना इसका है कि वह स्वतंत्र है। इस स्वाधीनता से पति सदमे में आ जाता है।

अगले प्रसंग में रामेश्वरी का विद्रोह और खुल कर सामने आ जाता है:

एक दिन कुन्दनलाल ने कई मित्रों की दावत की। रामेश्वरी सबेरे से रसोई में घुसी तो शाम तक सिर न उठा सकी। उसे यह बेगार बुरी मालूम हो रही थी। अगर दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ध क्यों नहीं किया? सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया ! उससे एक बार पूछ तो लिया होता कि दावत करूँ या न करूँ। होता तब भी यही; जो अब हो रहा था। वह दावत के प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती, तब वह समझती, दावत मैं कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी, मुझसे बेगार ली जा रही है। खैर, भोजन तैयार हुआ, लोगों ने भोजन किया और चले गये; मगर मुंशीजी मुँह फुलाये बैठे हुए थे। रामेश्वरी ने कहा, 'तुम क्यों नहीं खा लेते, क्या अभी सबेरा है?'

बाबू साहब ने आँखें फाड़कर कहा, 'क्या खा लूँ, यह खाना है, या बैलों की सानी!'

रामेश्वरी के सिर से पाँव तक आग लग गई। सारा दिन चूल्हे के सामने जली; उसका यह पुरस्कार ! बोली, 'मुझसे जैसा हो सका बनाया। जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती?'

'पूड़ियाँ सब सेवर हैं!'

'होंगी।'

'कचौड़ी में इतना नमक था किसी ने छुआ तक नहीं।'

'होगा।'

'हलुआ अच्छी तरह भुना नहीं क़चाइयाँ आ रही थीं।'

'आती होंगी।'

'शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।'

'होगा।'

'स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में चतुर हो।'

फिर उपदेशों का तार बँधा; यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई!

अब वह उपदेशों पर रोती नहीं, खुद को हीन नहीं मानती। पति के अस्त्र से ही उन्हें सबक सिखलाने के उपाय करती है। वह घर के मामलों में भी फ़ैसला लेने  से इनकार कर देती है। घर का काम काज  ठप्प पड़ जाता है। कुंदनलाल की समझ में नहीं आता कि आखिर हुआ क्या है!

कुन्दनलाल ने विवशता से दाँत पीसकर कहा, 'आखिर तुम क्या चाहती हो?'

रामेश्वरी ने शान्त भाव से जवाब दिया 

'क़ुछ नहीं, केवल अपमान नहीं चाहती।'

कुन्दन -‘ तुम्हारा अपमान कौन करता है?

रामेश्वरी‘ आप करते हैं।'

घर के मामले में दखल देने भर की बात नहीं। बात अपमान की है, अपनी उदारता के अहंकार में पत्नी को हीन मानने की है। कहानी का अंत मेलजोल से होता है। इसे प्रेमचंद की श्रेष्ठतम कहानियों में न गिना जाएगा लेकिन स्त्री, पत्नी के मान की है, 

रामेश्वरी।—‘मैं अपमान नहीं सह सकती।'

कुन्दन —‘इस भूल को क्षमा करो।'

रामे—‘सच्चे दिल से कहते हो न ?'

कुन्दन। —‘सच्चे दिल से।'

 

प्रेमचंद की कहानियों में पुरुष-स्त्री; प्रेमी, प्रेमिका  या पति-पत्नी के बीच का संबंध उस शक्ति-समीकरण की आलोचना है जिसमें पत्नी को हमेशा हीन रहना ही है। ध्यान से पढ़ने पर दीखता है, आर्थिक पृष्ठभूमि कोई भी हो, स्त्री हमेशा इसे चुनौती देती है और अपनी स्वाधीनता के मान का दावा करती है।      

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अपूर्वानंद

अपनी राय बतायें

साहित्य से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें