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यमुना किनारे पुल के नीचे आसरा लिये श्रमिक। (फ़ाइल फ़ोटो)फ़ोटो: वीडियो ग्रैब

रहम से इंसानी रिश्ते बेहतर नहीं होते

कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए तालाबंदी के चलते कॉरपोरेट जगत को हुए नुक़सान की भरपाई ज़रूर की जाएगी। इसे राहत राशि नहीं कहा जाता, स्टिम्युलस पैकेज जैसे आकर्षक नाम से पुकारा जाता है। क्यों मज़दूर को मिलने वाली कोई भी राशि या सामग्री स्टिम्युलस नहीं या उसका अधिकार नहीं और क्यों कॉरपोरेट जगत के लिए वह अनिवार्य है?
अपूर्वानंद

सुनता हूँ कि न्यूयॉर्क में 

26 स्ट्रीट और ब्रॉडवे के कोने पर 

जाड़ों के महीनों में एक शख़्स हर शाम खड़ा होता है

और माँगता है बिछौने वहाँ बेघरों के लिए

हर राहगीर से अपील करके 

यह दुनिया को नहीं बदलेगा 

इससे इंसानों के बीच रिश्ते बेहतर नहीं होंगे 

यह शोषण का ज़माना छोटा नहीं करेगा 

हाँ! कुछ लोगों को रात भर के लिए बिस्तरा हो जाएगा 

एक रात भर के लिए वे हवा से बचे रहेंगे

जो बर्फ़ उनपर गिरनी थी वह सड़क पर गिरेगी।

बर्फ़ से बेघर और बेबिस्तर लोगों को बचाने की रहमदिली पर ब्रेख़्त निर्मम आक्रमण करते हैं। हाँ, कुछ लोग कुछ रात बर्फ़ से बच जाएँगे लेकिन मसला यह नहीं है और न यह मसले का हल है।

जो अपील कर रहा है, वह दर्दमंद है, इसमें क्या शक! और वह जिनसे अपील कर रहा है, उनके भीतर भी दया, करुणा को वह जगा रहा है। इसके मेल से किसी तीसरे को ठंड से बचाया जा सकेगा। वह जो इस तरह बचाया जा सकेगा, उसके मन में इन दोनों के लिए, जिनमें एक उसके आगे प्रत्यक्ष होगा और दूसरा अदृश्य, कृतज्ञता का भाव पैदा होना चाहिए। इस तरह इन तीनों के बीच एक रिश्ता बन रहा है। यह इंसानी रिश्ता ही है। 

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यह भी कहा जा सकता है कि या तो इस प्रक्रिया में एक नया रिश्ता बनता है या पहले से बने रिश्तों में कुछ तब्दीली आती है। लेकिन ब्रेख़्त का कहना है कि यह तब्दीली इन रिश्तों में बेहतरी नहीं है।

अच्छे या बेहतर रिश्ते हमेशा ही बराबरी के रिश्ते होते हैं। बराबरी के मायने समझना बिना इंसाफ को समझे सम्भव नहीं। ब्रेख़्त बिना कहे यह कह रहे हैं कि बजाय एक-एक राहगीर में इस दया को जगाने के ठीक यह होगा कि समाज में इंसाफ़ के ख़याल को मज़बूत किया जाए। इंसाफ़ के साथ दो लफ़्ज़ याद रखें, बराबरी और हक़। इनके रसायन के बिना किसी भी संबंध में बंधुत्व का भाव नहीं होता।

जो दया के वशीभूत होकर कुछ देते हैं, जो उन्हें अपने हिस्से से कुछ निकालने जैसा लगता है, उनमें प्रायः माध्यम और पात्र के प्रति विश्वास नहीं होता। आज जैसी विपदा में जब दया का भाव उपजाना पड़ता है तो देने वाला प्रमाण माँगता है। देने और ग्रहण किए जाने का प्रमाण। कैमरे की ओर देखते हुए दो चेहरे होते हैं। इन चेहरों और कैमरे की आँख के बीच का रिश्ता कैसा है?

दया को आधिकारिक स्वीकृति भी चाहिए। इसलिए वे अपनी दया उस खाते के ज़रिए ही व्यक्त करते हैं जिसमें उनके नाम सरकार के आगे दर्ज हो। यह कायर दया है। इरादा सरकार के आगे अपने नम्बर बढ़वाने का है।

देने वाला दया की पूँजी इकट्ठा करता है और इसके एवज़ में छूट भी चाहता है। इस दान से उसके पहले की पूँजी को एक नई वैधता और सम्मान मिलता है। वह पूँजी न होती तो यह दया कैसे सम्भव होती?

जो कम्पनी आज 5000 लोगों को खाना बाँट रही है, वह जब 1000 कामगारों की छँटनी करेगी तो हम जो उससे यह अनुदान लेकर लोगों को ज़िंदा रखने का संतोष लाभ कर रहे हैं, क्या उन कामगारों की तरफ़ से कुछ बोल पाएँगे?

कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए तालाबंदी के चलते कॉरपोरेट जगत को हुए नुक़सान की भरपाई ज़रूर की जाएगी। इसे राहत राशि नहीं कहा जाता, स्टिम्युलस पैकेज जैसे आकर्षक नाम से पुकारा जाता है। क्यों मज़दूर को मिलने वाली कोई भी राशि या सामग्री स्टिम्युलस नहीं या उसका अधिकार नहीं और क्यों कॉरपोरेट जगत के लिए वह अनिवार्य है?

कहा जाता है कि यह वर्ग शेष जन के लिए काम पैदा करता है और उन्हें जीवित रखने के साधन देता है। इसलिए उसका स्वस्थ होना आवश्यक है। क्या कभी आपने इस वर्ग के संदर्भ में न्यूनतम या अधिकतम शब्द का प्रयोग देखा है? न्यूनतम हमेशा मज़दूरों के लिए इस्तेमाल होता है। यह भी कहा जा सकता है कि यह वह रेखा है जिसके नीचे गिरने पर वह उत्पादक नहीं रह जाता, समाज के किसी काम का नहीं रहता।

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यह दया जिस भाषा को असम्भव कर देती है, वह है अधिकार की भाषा। यह जो दो जून खाना बँट रहा है, कभी खानेवालों से पूछा गया कि उनके लिए वह खाद्य है कि नहीं! जिन्हें खाना मिल रहा है, क्या उन्हें स्वाद का अधिकार है? इस पर खाना बाँटनेवाले हैरानी ज़ाहिर करते हैं कि खाना लेते हुए वे पूछें कि क्या यह हफ़्ते भर से मिलती आ रही खिचड़ी ही है या कुछ और? वे रात को भात नहीं खाते, यह कहने का अधिकार इस वक़्त उन्हें नहीं। चुनाव का अधिकार उनका नहीं। रायपुर से एक मित्र ने लिखा, ‘खाने के नाम पर कई बार ऐसा खाना जो जानवर न खा पाए। ठीक खाना इतना कम कि मज़दूर के पेट में कहाँ धंस जाता है उसे पता ही नहीं चलता।’

बर्तोल्त ब्रेख़्त की यह कविता ‘संकट के वर्षों की कविताएँ’ वाले खंड में संकलित है। यह उस दौर की कविता है जब यूरोप और अमेरिका के लिए यह संकट महामंदी के रूप में आया था। यह मंदी कोई एक दशक पहले भी आई। फिर कॉरपोरेट दुनिया को प्राणदायी औषधि दी गई। लेकिन उस मंदी में लाखों श्रमिक, तरह-तरह के श्रमिक बस लापता हो गए। पूँजी की दुनिया में फिर से उभार आया। लेकिन इसका इस्तेमाल उसने श्रमिकों में निवेश करके नहीं किया, अपने लिए और सुरक्षा ज़रूर एकत्र की।

अब जब एक बार और संकट सामने है तो वे सारे श्रमिक याचकों में शेष हो गए हैं। फिर वे कगार से खाई में गिर गए हैं। गिर गए हैं, या धकेल दिए गए हैं?

ये याचक सिर्फ़ पहले के दिहाड़ी मज़दूर नहीं, अभी के संभ्रांत वर्ग के भी सदस्य हैं जो दिहाड़ी मज़दूरों में बदल जाएँगे। अमेरिका में राहत केन्द्रों के सामने लम्बी कारों की क़तारें इस अन्यायी व्यवस्था की एक तस्वीर है। यह कगार पर खड़ी अर्थव्यवस्था है जिसमें जो शीर्ष पर है वह दयावान होने का सुखलाभ कर सकता है और बहुलांश कगार से खाई में गिरकर लुप्त जाने को अभिशप्त। एक दयानिधान है, दूसरा दया का पात्र। 

इंसानों के बीच का यह रिश्ता बदलना चाहिए। ब्रेख़्त आगे लिखते हैं:

यह सब पढ़कर किताब बंद मत कर देना, मेरे दोस्त।

कुछ लोगों के पास रात भर के लिए बिस्तर है

एक रात भर के लिए हवा से उन्हें बचाव है

बर्फ़ जो उनपर गिरती, अब सड़क पर गिरती है 

लेकिन यह दुनिया को नहीं बदलेगा 

यह इंसानों के बीच रिश्तों को बेहतर नहीं करेगा 

यह शोषण का ज़माना छोटा नहीं करेगा।

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अपूर्वानंद

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