अब जब लोकसभा चुनाव का औपचारिक एलान किसी भी वक़्त हो सकता है तब यह आकलन करने का मुफ़ीद वक़्त है कि इस चुनाव के मुद्दे क्या हैं? वैसे तो अनेक मुद्दे हैं पर चुनाव का सबसे प्रमुख मुद्दा ब्रांड मोदी ख़ुद ही हैं। ब्रांड मोदी पिछले चुनाव में विकास का पर्याय बना था पर इस बार पाकिस्तान का संहारक है।
इस बार बालाकोट और पुलवामा ब्रांड मोदी के अस्त्र हैं और काला धन और विकास उसने दरी के नीचे डाल दिया है। पिछली बार नारा था ‘अच्छे दिन’ इस बार नारा है ‘घर में घुस कर मारूँगा!’
वरिष्ठ नेताओं को किया किनारे
2002 के गुजरात के रक्तरंजित अतीत से ख़ून के दाग छुड़ाने की जो कोशिश मोदी कैम्प ने बेहद व्यवस्थित और बेहद आधुनिक तौर-तरीक़ों के अति कुशल इस्तेमाल से शुरू की थी, उसके विकासक्रम में कल्पनाओं को ध्वस्त करते हुए मोदी 2014 का आम चुनाव जीते। उन्होंने अपनी पार्टी, पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेतागण और एक हद तक आरएसएस को भी नेपथ्य में कर दिया।
आज मोदी भारतीय राजनीति के सबसे बड़े ब्रांड हैं और चुनाव प्रचार का जो परचम दिखाई दे रहा है उस पर बीजेपी नहीं सिर्फ़ मोदी नाम की संज्ञा लहरा रही है। ख़ुद की छवि को चुनाव का एजेंडा बनाने में मोदी पूरी तरह सफल हैं।
मोदी सरकार में लोकपाल का गठन किया ही नहीं गया। गवर्नरों और लोकायुक्तों को सभी जगह संविधान की जगह ब्रांड मोदी की वफ़ादारी में लोकलाज के हर पैमाने को तार-तार करते पाया गया।
नाम मात्र रही विदेश, गृह मंत्रालय की भूमिका
दो-चार मुँहलगे मंत्रियों के सिवा केंद्रीय मंत्रिमंडल के किसी सदस्य का नाम तक लोगों को इस दौरान याद नहीं रहा। विदेश और गृह जैसे सर्वप्रमुख मंत्रालयों की स्वायत्त भूमिका समाप्त हो गई और इनके मंत्री धीरे-धीरे अपने रोल को गोल होते देखने वाले दर्शकों में बदल गये। विदेशों से वापस लाए जाने वाले क़ालेधन के 2014 के आम चुनाव में सबसे ज्यादा प्रचारित किए गए सपने को चूर-चूर किया गया और तमाम बहुत बड़े आर्थिक अपराधियों को देश से बाहर भगाने के लिए सीबीआई आदि ने नियम शिथिल किए।
मोदी सरकार में पनामा पेपर्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख़ुलासों को दरी के नीचे डाल दिया गया जबकि पाकिस्तान जैसे देश तक में पनामा पेपर्स के ख़ुलासे के चलते नवाज शरीफ़ को जेल हुई।
कॉरपोरेट दोस्तों की भरपूर मदद की
मोदी जी ने अपने कॉरपोरेट घरानों के दोस्तों की मदद में हर सरकारी फ़ैसले को उलट-पलट दिया। उनके बैंक क़र्ज़ों को रीस्ट्रक्चर करवाने, रिज़र्व वनों, नदियों, समुद्रों के किनारों आदि पर पर्यावरणीय कारणों से लगी रोक आदि को हटवाकर ज़मीन दिलवाने और सरकारी कंपनियों को नुक़सान की क़ीमत पर उनकी सेवा में लगाने जैसे फ़ैसले बेहिचक लिए गए।
मोदी जी ने सेना को हथियारों की आपूर्ति के मामलों में अपने कॉरपोरेट दोस्तों को हर विदेशी दौरे में साथ रखा, विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से मिलवाया और कई बार प्रायोजित विदेशी दौरे तक किए जिससे उन देशों में कॉरपोरेट मित्रों को आ रही अड़चनों को दूर करा सकें।
प्रचार में लुटाया जनता का पैसा
अब तक के किसी भी प्रधानमंत्री से कई गुना ज़्यादा विदेश यात्राएँ नरेंद्र मोदी ने कीं। बड़े पश्चिमी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को पटाने के लिए हथियार सौदों के बड़े-बड़े लॉलीपाप बाँटे और विदेशों में ख़ुद के प्रचार के लिए जनता का पैसा खुलेहाथ लुटाया। यह सब कुछ पब्लिक डोमेन में है लेकिन इसके बावजूद मोदी जी इस चुनाव के सबसे बड़े ब्रांड कैसे बने हुए हैं यह जानना दिलचस्प होगा!
दरअसल, देश के किसी भी दूसरे दल या राजनैतिक व्यक्ति की तुलना में प्रचार के मेगा स्तर के इस्तेमाल में मोदी जी बाक़ी सबसे दशकों आगे हैं! इस तरह के लगातार प्रचार की बहुत बड़ी क़ीमत लगती है, जिसका भुगतान किया जा रहा है।
प्रचार में काम आए कॉरपोरेट दोस्त
मोदी जी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में सबसे पहले अपने प्रचार का स्थाई प्रबंध किया। उन्होंने औद्योगिक/ व्यापारिक घरानों को मनचाही रियायतें, ज़मीन, परमिशन, प्रायवेटाइजे़शन के रूप में दीं और फिर उनकी क्षमता को ब्रांड मोदी में परमानेंट इन्वेस्टर के रूप में बदल दिया। चाहे अमेरिकी कंपनी को छवि सुधार का ठेका देना हो (जिसके भुगतान का रिकॉर्ड कहीं नहीं है) या देसी मीडिया को ख़रीदना हो, उनके दोस्त काम आए।विपक्ष को तहस-नहस और बदनाम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विशालकाय ट्रोल नेटवर्क खड़ा करके प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया की असीमित क्षमताओं का बर्बर स्तेमाल किया।
देश में मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा को पागलपन के स्तर पर ले जाने के लिए इस सोशल मीडिया ने लगातार काम किया। आलोचक पत्रकारों को नौकरी से बाहर करवाने और सारे टीवी चैनलों, अख़बारों में अपने प्रशंसकों को प्रमुख पदों पर लगवाने का काम बेहद संगठित तौर पर सफलतापूर्वक किया गया।
बीजेपी में संगठन का सबसे प्रमुख पद आईटी सेल का हेड बन गया। आईटी सेल का प्रयोग इतना मारक रहा कि देश की नई पीढ़ी के दिमाग में इतिहास-भूगोल की अफ़वाहों का भूसा भर गया।
सरकारी नौकरियों, शिक्षा संस्थानों और रोज़गार के दूसरे केंद्रों में भेदभाव के ख़िलाफ़ स्वर प्रबल होते गए और निराश हो चुके विपक्षी दल भी मैदान में फिर उग आए।
दरअसल, 2019 में चुनाव इस बात पर होगा कि क्या विपक्ष 'असली' मोदी को ब्रांड मोदी के सामने सच्चा साबित कर सकता है कि नहीं।
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