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क्या बसपा को ट्रांसफ़र हो पाएगा सपा का वोट?

देश के दलित इस समय मायावती और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की राजनीति पर नज़र बनाए हुए हैं। कम से कम भारत के हिंदी भाषी राज्यों के दलित मायावती को उम्मीद की आख़िरी किरण के रूप में देखते हैं। लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से उत्तर प्रदेश में समझौता करने के बाद एक बार फिर मायावती चर्चा में हैं। और इस चर्चा की वजह बने हैं सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव यानी नेताजी। बीएसपी से सपा के समझौते पर नाराज़गी जताते हुए नेताजी ने पार्टी नेताओं से लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए आवेदन भी माँग लिए हैं।
  • सपा और बसपा में गठबंधन तय होने के बाद राज्य में यह चर्चा आम हो गई थी कि गठबंधन में जो सीटें बीएसपी को मिलेंगी, वहाँ सपा से अलग हुए शिवपाल यादव के दल के प्रत्याशी भी मैदान में होंगे। 

नेताजी के बयान से बढ़ी चिंता

नेताजी के नाराज़गी जताने और प्रत्याशियों से आवेदन माँगने के बाद एक बार फिर आशंका पैदा हो गई है कि अगर बीएसपी के खाते में आई लोकसभा सीटों पर नेताजी अपना प्रत्याशी उतारते हैं तो बीएसपी का भविष्य क्या होगा? बहुत हद तक संभव है कि इन सीटों पर सपा से टिकट न मिलने के कारण नाराज़ प्रत्याशी ही इन सीटों पर उतारे जाएँगे जिनकी पार्टी की स्थानीय इकाई पर मज़बूत पकड़ होगी। साथ ही उनके पास शिवपाल यादव के दल का चुनाव चिन्ह और नेताजी का आशीर्वाद भी होगा। ऐसे में क्या सपा का वोट बीएसपी को ट्रांसफ़र हो पाएगा, इसे लेकर आशंका है। 
  • सपा का वोट बीएसपी को ट्रांसफ़र होने को लेकर संदेह एक हद तक वाज़िब भी है। इसकी वजह है कि सपा के मतदाता बीएसपी के मतदाताओं की तुलना में ज़्यादा सयाने और कम प्रतिबद्ध हैं। एक हिसाब से देखें तो उनकी प्रतिबद्धता पर भी कोई सवाल नहीं उठेगा क्योंकि वे समाजवादी विचारधारा और अपने नेताजी को ही समर्थन दे रहे होंगे।
21वीं सदी की भारत की राजनीति को देखें तो 4 महिला नेताओं ने अपना दम दिखाया है। इनमें कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, अन्नाद्रमुक की जयललिता और बीएसपी की मायावती का नाम शामिल है।

दलित होने के बावजूद बनाया मुकाम

मायावती प्रभावशाली महिला नेताओं में सबसे अलग इसलिए कही जा सकती हैं क्योंकि महिला होने के साथ-साथ वह दलित परिवार से हैं और फिर भी उन्होंने अपना अलग मुकाम बनाया है। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि दलित परिवार में जन्म लेना अपने आप में एक डी-मेरिट माना जाता है। दलित समुदाय के ताक़तवर अधिकारियों की लॉबीइंग भी नहीं होती। राजनीति और सरकार में उनके कोई ज़्यादा समर्थक नहीं होते। और सबसे बड़ी बात यह है कि समाज के वर्चस्ववादी तबके़ का भी उसे ज़्यादा समर्थन नहीं मिलता है।

  • लोग मानकर चलते हैं कि अगर कोई व्यक्ति दलित परिवार में पैदा हुआ है तो वह अयोग्य और नाकाबिल ही होगा। ऐसे में भारत की राजनीति में आगे बढ़ने के हिसाब से मायावती में वह सभी डी-मेरिट मौजूद हैं, जो उन्हें नेता बनने से रोकते हैं।
  • सभी बाधाओं के बावजूद मायावती नेता बनीं। जब वह पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं तो अधिकारियों की पहली प्रतिक्रिया यह आई कि यह 6 महीने यूपी का शासन नहीं चला पाएँगी, आईएएस अधिकारी इनको बेच खाएँगे। यह प्रतिक्रिया नावाज़िब भी न थी। किसी भी सचिवालय में ऊँची जाति के अधिकारियों की संख्या अभी भी 80 प्रतिशत से ऊपर है। 
मायावती ने जब पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली तो एक महीने के भीतर ही अधिकारियों की सोच पूरी तरह बदल गई। जब वह बैठकें लेती थीं तो अधिकारी काँपते थे। मायावती ने ऐसी धाक जमाई कि उनकी इच्छा के बग़ैर पत्ता हिलना भी मुश्किल हो गया।
मायावती के ऊपर बार-बार आरोप लगते हैं कि वह सड़कों पर संघर्ष क्यों नहीं करतीं। वह इन आरोपों से वाक़िफ हैं। साथ ही इस चीज से भी वाक़िफ हैं कि उनका कोर वोटर स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी इस हालत में नहीं पहुँच पाया है कि वह सड़कों पर उतर पाए। 

ग़रीब है बीएसपी का कोर वोटर

बीएसपी का कोर वोटर अगर एक दिन सड़क पर उतरता है तो उसकी उस दिन की रोटी बंद हो जाएगी क्योंकि ज़्यादातर लोग रोजी पर काम करने वाले शेड्यूल्ड कास्ट ही हैं, जिनके लिए न तो कोई साप्ताहिक छुट्टी है, न मेडिकल, कैजुअल या अर्न लीव। ऐसे लोग सुबह काम पर निकलते हैं और जब वापस कुछ ख़रीदकर लौटते हैं तब उसके घर का चूल्हा जलता है। संभवतः यही वजह है कि बहुत उकसाए जाने, संपादकीय लेख लिखे जाने, सोशल मीडिया पर ललकारे जाने के बावजूद मायावती समूह में सड़क पर आंदोलन का आह्वान कभी नहीं कर पातीं। 

नेताजी झुके, लेकिन मायावती नहीं

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जहाँ नेताजी यानी मुलायम सिंह बार-बार केंद्र सरकारों के सामने झुकते नज़र आए हैं, मायावती उस स्तर तक झुकती नज़र नहीं आतीं। भारत-अमेरिका परमाणु संधि के मसले पर कांग्रेस को समर्थन देने का मामला हो, प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन देने की बात हो या मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव का मामला हो, नेताजी बार-बार झुकते और समझौता करते नज़र आते हैं। जब भी नेताजी केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ जाते हैं, सीबीआई कोई न कोई मामला खोल देती है। उसके बाद नेताजी पटरी पर आ जाते हैं और पलटी मारते हुए केंद्र का समर्थन कर देते हैं। वहीं, दूसरी ओर मायावती खामोशी से अपना काम करती रही हैं।

मज़बूत हुए पिछड़े वर्ग के नेता

मुलायम सिंह या किसी अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं के साथ यह सकारात्मक पहलू है कि कम से कम पिछड़ा वर्ग राजनीतिक रूप से इतना सबल हो गया है कि अगर इन नेताओं को निशाना बनाया जाता है तो देश के कुछ नेताओं का समर्थन उन्हें मिल जाता है। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू सहित तमाम ग़ैर द्विज नेता हैं। वहीं, मायावती के समर्थन में खड़ा होने वाला देश में कोई नेता नजर नहीं आता। 

  • भले ही आज के दौर में राहुल गाँधी और सोनिया, पी. चिदंबरम से लेकर लालू प्रसाद व उनके हर रिश्तेदार के घर केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों के नोटिस आ चुके हैं, लेकिन मायावती तक अगर नोटिस पहुँचता है तो वह सबसे तेज़ी से निशाने पर आ जाती हैं। 

दाँव पर हैं उम्मीदें

अब मायावती की राजनीति एक बार फिर ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहाँ स्थिति साफ़ नहीं है। राजनीति का हर जानकार यह स्वीकारता है कि मायावती अपना मत किसी को भी ट्रांसफ़र करा सकती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में सपा के मतदाताओं का वोट बीएसपी को ट्रांसफ़र होगा या नहीं, यह बड़ी चिंता का विषय बन गया है। उत्तर प्रदेश के सपा-बसपा गठबंधन में बीएसपी और मायावती के साथ लाखों कार्यकर्ताओं, मानसिक रूप से समर्थन करने वालों की उम्मीदें भी दाँव पर लग गई हैं। 
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क़मर वहीद नक़वी

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