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क्या नीतीश को समर्थन दे सकते हैं बिहार के मुसलमान?

बिहार के मुसलिम मतदाता दुविधा में होंगे कि वे इस बार किसका साथ दें। वे महागठबंधन का साथ देना चाहते हैं लेकिन उसके सत्ता में आने के आसार कम हैं। दूसरी तरफ़ बीजेपी नीतीश को कमज़ोर कर अपने दम पर सत्ता हथियाना चाहती है। ऐसे में बीजेपी को रोकने के लिए क्या वे नीतीश का समर्थन कर सकते हैं?
नीरेंद्र नागर

बिहार के मुसलिम वोटर इन दिनों बहुत ही पसोपेश में होंगे। वे सोच रहे होंगे कि अपना वोट महागठबंधन के उम्मीदवारों को दें जिन्होंने हमेशा उनका साथ दिया है और उनके पक्ष में आवाज़ उठाई है या फिर नीतीश कुमार की जेडीयू को दें जो फ़िलहाल बीजेपी के साथ हैं लेकिन जिनको कमज़ोर करने की पूरी कोशिश बीजेपी की तरफ़ से हो रही है।

पसोपेश का कारण यह है कि बिहार में चुनाव के बाद एनडीए की सरकार बन रही है, इसके बारे में किसी को कोई शक-शुबहा नहीं है। बिहार का जातीय गणित उसी की तरफ़ इशारा करता है और सी-वोटर का ताज़ा सर्वे भी यही बता रहा है। 

सवाल बस यही है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी। क्या बीजेपी जेडीयू से अधिक सीटें ले जाएगी और अगर ऐसा हुआ तो सत्तारूढ़ गठबंधन के समीकरण क्या और किस तरह बदलेंगे?

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सी-वोटर के सर्वे के अनुसार, बीजेपी को चुनाव के बाद 85 सीटें मिलती दिख रही हैं जबकि जेडीयू को 70 यानी लगभग बराबर की संख्या में प्रत्याशी उतारने के बावजूद जेडीयू को बीजेपी से 15 सीटें कम मिल रही हैं। अगर ऐसा हुआ तो तय है कि चुनाव के बाद बीजेपी और जेडीयू का समीकरण बदलने वाला है और हो सकता है, अधिक सीटें पाने के बाद बीजेपी मुख्यमंत्री पद की पूरी दावेदारी न भी करे तो ढाई-ढाई साल की हिस्सेदारी की माँग करे।

बीजेपी से होगा मुख्यमंत्री?

आगे क्या होगा, यह बहुत-कुछ इसपर निर्भर करेगा कि फ़ाइनल टैली क्या आती है। अगर दोनों दलों में सीटों में अंतर बहुत ज़्यादा हुआ और बीजेपी को लगा कि जेडीयू विधायकों के बिना भी वह एलजेपी, अन्य सहयोगी दलों तथा दल-बदलुओं के बल पर अपनी सरकार बना सकती है तो बिहार का अगला मुख्यमंत्री बीजेपी का भी हो सकता है।

मुसलिम वोटरों को इसी बात का डर है। उनकी पहली चॉइस महागठबंधन है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि गठबंधन को सरकार बनाने लायक़ सीटें किसी भी हाल में नहीं मिल रहीं और वह अगले पाँच साल विपक्ष में ही रहेगा।

ऐसे में उनकी अगली चॉइस निश्चित रूप से नीतीश कुमार होंगे। क्योंकि वे जानते हैं कि नीतीश भले ही सत्ता के लिए बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे हों, लेकिन उनके रहते राज्य में मुसलिमों के साथ वैसा व्यवहार क़तई नहीं होगा, जैसा बीजेपी-शासित राज्यों में होता है और जैसा बिहार में भी होने की आशंका है, अगर वहाँ बीजेपी की स्वतंत्र सरकार बन जाए तो।

बीजेपी-जेडीयू का रिश्ता 

बिहार में बीजेपी और जेडीयू का रिश्ता स्वार्थ और मजबूरी का एक अजीब रिश्ता है। अजीब रिश्ता इसलिए कि संगठन और ज़मीन, दोनों ही स्तर पर, बीजेपी जेडीयू से अधिक ताक़तवर है लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश दबाए हुए हैं। अगर हम 2014 और 2015 के चुनावी आँकड़ों को देखें तो हमें पता चल जाएगा कि जनाधार के लेवल पर दोनों पार्टियाँ कहाँ ठहरती हैं।  

आंकड़ों पर नज़र 

2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी और जेडीयू अलग-अलग लड़े थे, तब बीजेपी को 30% और जेडीयू को 16% वोट मिले थे। उसके एक साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में जेडीयू और आरजेडी मिलकर लड़े। तब बीजेपी का शेयर घटकर 24% हो गया जबकि जेडीयू का 17% के आसपास रहा। 2019 के आँकड़े हम नहीं देख रहे हैं, क्योंकि तब दोनों पार्टियां गठबंधन में थीं। इस बीच, आरजेडी का शेयर 18-20% के बीच रहा।

बिहार चुनाव पर देखिए चर्चा- 

बीजेपी की मजबूरी 

ऊपर के नंबरों के आधार पर हम कह सकते हैं कि बीजेपी का जनाधार हमेशा जेडीयू से अधिक रहा लेकिन इतना अधिक नहीं रहा कि वह जेडीयू+आरजेडी से ज़्यादा हो जाए। इसलिए इस डर से कि कहीं नीतीश वापस आरजेडी से हाथ न मिला लें, बीजेपी नेता अपने से कम ताक़त और कम जनाधार वाले नीतीश कुमार को राज्य का मुख्यमंत्री बनाए रखने और लोकसभा और विधानसभा में बराबर सीटें देने पर बाध्य रहे हैं, हालाँकि यह स्थिति बीजेपी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को ही नहीं, उनके नेताओं को भी खल रही है।

बदलेंगे चुनावी हालात?

अभी तक बीजेपी यह कहकर ख़ुद को दिलासा दे रही थी कि मौजूदा विधानसभा में नीतीश की पार्टी के पास ज़्यादा विधायक हैं (क्योंकि 2015 में बीजेपी को केवल 53 सीटें मिली थीं)। परंतु 2020 में हालात बदलते दिख रहे हैं और इस बात की पूरी संभावना है कि अगली विधानसभा में बीजेपी के विधायक ज़्यादा हों और जेडीयू के विधायक कम। 

जैसा कि ऊपर कहा, तब क्या होगा, यह बहुत-कुछ दोनों दलों की सीटों में अंतर पर निर्भर करेगा। अगर दोनों में अंतर बहुत ज़्यादा रहा और जेडीयू की सीटें इतनी कम रहें कि वह महागठबंधन के साथ मिलकर भी सरकार न बना सके, तो नीतीश की कुर्सी हिलेगी। और तब राज्य में बीजेपी की सरकार और बीजेपी का ही मुख्यमंत्री होगा- एक ऐसी स्थिति जो कोई भी मुसलमान वोटर नहीं चाहता होगा।

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क्या है उपाय?

अब इसको रोकने का क्या उपाय हो सकता है? उपाय यही है कि लोहे को लोहे से काटा जाए। अगर एलजेपी और अपने वोटरों के सहारे बीजेपी यह कोशिश कर रही है कि जेडीयू उम्मीदवारों को हराया जाए और उसकी सीटें कम की जाएँ तो मुसलमान वोटर उन सीटों पर जेडीयू उम्मीदवारों को वोट देकर उनकी जीतने की संभावनाएँ बढ़ा सकते हैं। इसका नुक़सान यह होगा कि इन सीटों पर महागठबंधन उम्मीदवारों के हार की संभावना बढ़ जाएगी और अंतिम टैली में अगर उसे 60-70 सीटें मिल रही होंगी तो वे और कम हो जाएँगी।

लेकिन महागठबंधन की सीटें घटने से पूरे परिदृश्य पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ने वाला। वह 80 सीटें लेकर भी विपक्ष में रहेगा और 60 सीटें लेकर भी।

परंतु अगर जेडीयू की सीटें किसी भी तरह बीजेपी के बराबर रहीं या उससे ज़्यादा रहीं तो बीजेपी नेताओं की अपने दम पर सत्ता में आने की पूरी रणनीति धरी की धरी रह जाएगी। 

साथ ही अगर विधानसभा में दलों की स्थिति ऐसी रही कि जेडीयू और आरजेडी मिलकर सरकार बना सकें तो बीजेपी कभी भी नीतीश पर हावी नहीं हो सकेगी। बिहार का मुसलिम वोटर आज की स्थिति में इससे बेहतर और क्या चाह सकता है?

लेकिन ऐसा हो, इसके लिए ज़रूरी है कि बिहार के मुसलमान नीतीश कुमार जिन्हें वे पलटू कुमार भी कहते हैं, के प्रति अपने ग़ुस्से को कुछ समय के लिए भुला दें। क्या बिहार के मुसलमान, ख़ासकर युवा मुसलमान इसके लिए तैयार होंगे, कहना मुश्किल है। कई बार लोग किसी से इतना नाराज़ होते हैं कि उसको सज़ा देने के लिए ऐसा क़दम भी उठा लेते हैं जिससे तात्कालिक रूप से उनका नुक़सान हो। संभव है, अगर बिहार में चुनाव के बाद नीतीश कुमार कमज़ोर होते हैं और राज्य में बीजेपी का मुख्यमंत्री आता है तो कई मुसलमान इसी से ख़ुश हो जाएँ कि नीतीश कुमार को आख़िरकार उनके किए की सज़ा मिली।

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