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गांव में चहल-पहल कम हो गई है। यहाँ आम तौर पर दिन भर 5-7 लोग बैठे नज़र आ जाते थे।

बिहार: गाँवों में कोरोना? ‘इतनी संख्या में अंतिम संस्कार होते कभी नहीं देखा’

सुमेर सिंह (बदला हुआ नाम) की बहू को कई दिनों से बुखार है। बुधवार को साँस लेने में दिक्कत होने लगी तो परिवार वाले ऑक्सीजन की व्यवस्था वाले अस्पताल का पता करने लगे। काफ़ी वक़्त जाया हो गया अस्पताल के बारे में पता करने में। बिहार के औरंगाबाद से क़रीब 25 किलोमीटर दूर खैरा गाँव का मामला है यह। 18 किलोमीटर दूर एक छोटे-से शहर में सुविधा नहीं मिली। 50 किलोमीटर दूर झारखंड के छोटे से शहर हरिहरगंज के अस्पताल में उन्हें ले जाया गया। उन्हें रिश्तेदारों से उस अस्पताल के बारे में पता चला था। 

गाँवों-क़स्बों में अस्पताल तो है नहीं, दूर-दराज के छोटे शहरों में कुछ छोटे अस्पताल हैं भी तो यह पता नहीं होता कि किस अस्पताल में क्या सुविधा है, कितने बेड खाली हैं? दिल्ली, पटना जैसे शहरों की तरह गाँवों में ट्विटर-फ़ेसबुक से किसी तरह के सहयोग की गुंजाइश भी नहीं है। एक तो यहाँ लोगों को ट्विटर के बारे में पता नहीं है और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर भी किसी सहायता मिलने की उन्हें जानकारी नहीं है। यदि कोई सोशल मीडिया पर ऐसी सहायता माँगे भी तो उस मैसेज का शायद उतना प्रसार नहीं हो पाए और यदि मैसेज का प्रसार हो भी तो छोटे क़स्बों और शहरों में उस तरह से कोई सहायता नहीं मिल पाए। 

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दरअसल, यह स्थिति गाँवों और शहरों के बीच ज़मीन-आसमान जैसी खाई को दिखाती है। शहरों में जहाँ क़रीब-क़रीब हर तरफ़ अस्पताल हैं वहीं गाँवों की स्वास्थ्य व्यवस्था नीम-हकीमों पर निर्भर है। खैरा गाँव में भी ऐसे हालात हैं। गाँव के सबसे नज़दीक 15 किलोमीटर दूर ब्लॉक मुख्यालय बारून में सरकारी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। ऐसे केंद्रों में आधारभूत सुविधाएँ भी नहीं होती हैं। 25 किलोमीटर दूर ज़िला मुख्यालय औरंगाबाद में सदर अस्पताल है, लेकिन वहाँ भी सीमित सुविधाएँ ही हैं। वहाँ निजी क्लिनिक तो हैं, लेकिन कोरोना जैसी संक्रामक बीमारियों की जाँच या इलाज की व्यवस्था नहीं है। आईसीयू और वेंटिलेटर जैसी सुविधा भी गिने-चुने क्लिनिकों में ही है।

इन्हीं कारणों से लोग अस्पतालों में जाने से हिचकते हैं और स्थानीय तौर पर नीम-हकीम से इलाज करा लेते हैं। क़रीब महीने भर पहले 7 दिनों से बुखार से ग्रसित जयेंद्र सिंह नाम के एक ग्रामीण को जब मैंने कहा था कि वह जाँच करवाएँ तो उन्होंने कहा था 'आज तक मैं कभी बीमार पड़ने पर बारून गया ही नहीं कि इस बार मैं जाऊँगा। गाँव में ही दवा लेकर ठीक हो जाता हूँ।' बहरहाल, क़रीब 10 दिन तक बुखार-सर्दी-जुकाम से ग्रसित रहे जयेंद्र अब ठीक हो चुके हैं। जब उनसे बात हुई थी तो उन्होंने कहा था कि उनको स्वाद और सूंघने की क्षमता चली गई है। तभी मैंने उन्हें कोरोना का टेस्ट करवाने के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बारून जाने की सलाह दी थी। 

वैसे, जाँच करवाना आसान भी नहीं है। एक तो गाँव के ग़रीब लोगों को शहर जाना महंगा पड़ता है क्योंकि लॉकडाउन या लॉकडाउन जैसी स्थिति होने के कारण सार्वजनिक यातायात की सुविधा नहीं होती। कोरोना की जाँच से पहले टाइफाइड, मलेरिया, ख़ून-पेशाब जैसी जाँच की रिपोर्ट देखने की बात स्वास्थ्य केंद्रों पर कही जाती है और फिर कोरोना टेस्टिंग की बात। वह भी कितने दिनों में रिपोर्ट आएगी, यह भी तय नहीं। ऐसी शिकायतें आम तौर पर ग्रामीणों की हैं। 
गाँवों में बुखार से ग्रसित कोई भी जाँच करवाने नहीं गया। कारण चाहे जो भी रहा हो। या तो जाँच की सुविधा सही नहीं हो, सरकारी अस्पताल की अव्यवस्था उन्हें हतोत्साहित करती हो या फिर कुछ और कारण भी हो सकता है। पर ऐसा नहीं है कि वे इलाज से कतराते हैं।

खैरा से क़रीब 4 किलोमीटर दूर शंकरपुर नाम का गाँव है। वहाँ एक बैंककर्मी विजय सिंह की मौत हो गई है। बैंक में काम करने वाले विजय कोरोना से संक्रमित थे। उनके कोरोना संक्रमण की जाँच तब हुई जब वह गंभीर अवस्था में पहुँच गए थे। साँस लेने में दिक्कत होने लगी थी। उनकी मौत हो गई तो लोगों को पता चला उन्हें कोरोना संक्रमण था। फिर प्रशासन की टीम उस गाँव में जाँच करने आई। कई लोग कोरोना संक्रमित पाए गए। इस घटना से पहले ही गाँव में कई लोग बीमारी से उबर भी चुके थे। 

विजय सिंह पास के ही पंजाब नेशनल बैंक मेह में काम करते थे तो उस बैंक को कुछ दिनों तक सील किया गया। उस मेह गाँव में भी अब तक 3 लोगों की मौत हो चुकी है। उनकी मौत के बाद लोगों ने कोरोना के प्रति सावधानी बरतनी शुरू की। 

how villages tackle covid crisis without basic hospital facilities  - Satya Hindi

हालाँकि, इसके बावजूद आसपास के गाँव- अंबा, करमा, सदूरी, नराड़ी कला ख़ुर्द, कुड़वा, परसा, दरियाबाद सहित हरेक गाँवों में क़रीब-क़रीब सभी लोग बीमार पड़े। इलाज करवाने वही लोग बाहर गए जो गंभीर स्थिति में पहुँच गए। खैरा में एक बीमार युवक अरविंद सिंह से कोरोना की जाँच कराने के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा- 'कहाँ जाँच कराएँ। गाँव में ही दवा ले ली है। अब ठीक हूँ।' 

शहरों में ये हालात नहीं हैं। लक्षण दिखते ही लोग अस्पतालों की ओर रुख कर रहे हैं। कई ऐसे लोग हैं जो कोरोना की रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर, भले ही माइल्ड केस हो, अस्पतालों में भर्ती हो गए। कुछ दिनों में ठीक होकर वे घर लौटे। वैसे, गंभीर मरीज़ों की मौत भी हो रही है। 

मौतें तो गाँवों में भी हो रही हैं, लेकिन कई लोगों की मौत अस्पताल में भर्ती होने से पहले ही घर में ही हो जा रही है। मौत का कारण भी अलग-अलग पता चल रहा है। परसा गाँव में एक वृद्ध की मौत हुई तो लोगों ने बताया कि उनको हार्ट अटैक आया था और मौत हो गई। मेह में शुगर के एक मरीज की मौत होना बताया गया। लेकिन मौत का कारण कोरोना नहीं बताया गया। 

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मौत के ऐसे मामले क्या सामान्य हैं? खैरा के एक किसान और ट्रैक्टर चलाने वाले बदन सिंह कहते हैं, 'पुनपुन नदी किनारे श्मशान घाट पर मैं ट्रैक्टर से लकड़ी लेकर गया था। एक साथ तीन लोगों का अंतिम संस्कार हो रहा था। हाल में जब भी उधर गया अंतिम संस्कार होते देखा। मैंने पूरी ज़िंदगी वहाँ इतनी संख्या में अंतिम संस्कार होते कभी नहीं देखा।' पूछने पर वह बताते हैं कि उन्होंने उन अंतिम संस्कारों में कोई प्रशासनिक व्यवस्था नहीं देखी और न ही किसी कोरोना प्रोटोकॉल जैसी व्यवस्था। 

खैरा गाँव के ही राजेंद्र पासवान कहते हैं, 'मेरी जानकारी में इस साल जितनी भी शादियाँ हुई हैं वे छूतके (किसी की मौत पर परिवार व क़रीबी में शोक) के दौरान हुई हैं।' वह कहते हैं कि उनकी बुआ के यहाँ शादी है, लेकिन उनको गोत्र में बुजुर्ग व्यक्ति की मौत हो गई है।

ऐसा नहीं है कि गाँव में लोगों को कोरोना के बारे में जानकारी नहीं है। वे पहले उतने जागरूक नहीं थे, लेकिन जब से गाँव में सभी लोग बीमार पड़े हैं और कुछ मौतों के मामले आए हैं तब से लोग ज़्यादा सचेत हुए हैं।
अब कोरोना टीके लगाने की बात हर तरफ़ लोग कर रहे हैं। एक व्यक्ति ने पूछा कि 'सुना है कि कोरोना टीका लगवाने के लिए एक फ़ॉर्म भरना पड़ रहा है, कहाँ मिलेगा फ़ॉर्म?' मैंने उन्हें समझाया कि वेबसाइट पर एक फ़ॉर्म भरना है और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बारून जाकर टीका लेना है। उन्होंने जब फ़ॉर्म भरने को कहा तो मैंने मोबाइल से को-विन वेबसाइट पर चेक किया। फ़ॉर्म नहीं भरा जा सका क्योंकि शायद टीके उपलब्ध नहीं थे। बीमार होने पर ग्रामीण इलाज के लिए जूझते रहे, अब कोरोना टीका के लिए भी कहीं उन्हें जूझना न पड़े!
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अमित कुमार सिंह

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