55 वर्षीय सरोज सिंह गाँव के चौपाल पर क़रीब-क़रीब हर रोज़ दिखते थे। 6-7 दिनों से नहीं दिखे। पूछने पर पता चला कि बीमार हैं। उन्हें बुखार और सर्दी-जुकाम है। कोरोना है या नहीं, इसकी पुष्टि नहीं है। वह गाँव में ही कुछ एंटीबायोटिक और पेरासिटामोल दवाएँ ले रहे हैं। वह गाँव में अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो बीमार पड़े और ऐसी ही दवाओं पर निर्भर हैं। पड़ोस के गाँवों में भी ऐसे ही हालात हैं।
बिहार के औरंगाबाद ज़िला मुख्यालय से क़रीब 25 किलोमीटर दूर परसा नाम के क़स्बे के सरोज सिंह से पास के ही गाँव खैरा में एक चौपाल पर क़रीब 15 दिनों पहले मेरी मुलाक़ात हुई थी। तब 6-7 लोग वहाँ बैठे थे। उनमें दो लोग बीमार भी थे। मैं उस रास्ते गुज़र रहा था तो हालचाल पूछने रुक गया। कोरोना वायरस के प्रति आगाह किया तब सरोज सिंह तपाक से बोल पड़े- 'जिसका टिकट कट गया होगा न उसको कोई नहीं रोकेगा।' बिना देर किए मैंने भी तुरत रेलवे लाइन की तरफ़ इशारा कर कह दिया कि पड़ जाइए रेलवे लाइन पर टिकट कटा होगा तो...।
मुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिए था क्योंकि वह उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े हैं। लेकिन मुझे लगा कि कोरोना के प्रति जैसे हालात हैं उससे भी ज़्यादा सख़्त लहजे में बात करना ग़लत नहीं है।
दूसरे गाँवों की तरह मेरे गाँव में भी पहले कोरोना को लेकर धारणा अजीब थी। 'कोरोना को गाँव में आकर मरना है क्या', 'कोरोना-फोरोना कुछ नहीं होता है', 'कोरोना शहरों में ही होता है', 'मीडिया का झूठ फैलाया हुआ है'। ऐसे ही अलग-अलग तर्क देते थे लोग। शहरों में भी कुछ लोग ऐसे तर्क देते सुने जा सकते थे। अब ऐसे तर्क नहीं सुनने को मिलते हैं। कोरोना को लेकर लोगों की मानसिकता बदली है। लोग कोरोना टीके लगाने के लिए उत्सुक दिखते हैं। क़रीब डेढ़ महीने पहले गाँव में गिनती के लोगों ने ही टीका लगवाया था। अब कई लोग मास्क लगाए घूमते दिख जाते हैं। कई पुरुष गमछा (तौलिए जैसा कपड़ा) तो महिलाएँ साड़ी से ही मुँह को ढँकी हुई दिख जाएँगी। ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले क़रीब एक महीने में गाँव में क़रीब-क़रीब हर कोई बीमार पड़ चुका है। गाँव में कुछ ही अपवाद होंगे। आसपास के गाँवों में कई लोगों के मरने की ख़बरें भी सुन ली हैं। जहाँ मौत हुई वहाँ प्रशासन ने जाँच की और कई लोग कोरोना से संक्रमित पाए गए। ऐसी ही स्थिति आसपास के गाँवों और ज़िलों में भी है और रिश्तेदारों के भी बीमार होने की ख़बरें आती हैं।
जब मैं गाँव के लोगों से मिला तो कई लोग पूछते थे कि आप तो ख़बरों की दुनिया में रहते हैं, बताइए, क्या सच में कोरोना है? या कोरोना का झूठ फैलाया गया है?
जब मैं उन्हें पूरी गंभीरता से कहता कि कोरोना काफ़ी ख़तरनाक है और यह उनकी ज़िंदगी के लिए ख़तरनाक हो सकता है तो वे हँसते थे।
बिल्कुल इसी अंदाज में आज से क़रीब 10 दिन पहले जब कोरोना के प्रति फिर से मैंने सचेत किया तो मुझपर कुछ लोग फिर से हँसे। तब मैं घर से निकलकर खेतों की तरफ़ जा रहा था। मुझे भी बुखार आया था। बिना किसी बुखार उतरने वाली दवा के ही लगातार तीन दिन तक बुखार नहीं आया था तो मैं छठे दिन बाहर निकला था। मुझे कोरोना था या नहीं, इसकी पुष्टि नहीं हो पाई क्योंकि मैं जाँच नहीं करा पाया था। ऐसा इसलिए क्योंकि एक साथ घर में सभी लोग बीमार पड़ गए थे। पहले छह साल की भतीजी बीमार पड़ी और फिर परिवार के दूसरे सदस्य। सर्दी-जुकाम जैसी सामान्य बीमारी के इलाज करने वाले गाँव के नीम-हकीम आए तो पता चला गाँव में बड़ी संख्या में लोग बीमार हैं। फिर मैं आश्वस्त हो गया कि गाँव में कोरोना आ धमका है!
मैं भी बीमार पड़ गया था। गाँव से 20 किलोमीटर दूर छोटे शहरों में पता किया तो आसपास के निजी अस्पतालों में कहीं भी कोरोना जाँच नहीं हो रही थी। ज़िले के लिए दिए गए हेल्पलाइन नंबर पर फ़ोन किया। एक फ़ोन बंद आया। दूसरे नंबर पर बात हुई। मैंने अपनी और अपने परिवार की बीमारी के लक्षण बताए और कोरोना टेस्ट के लिए कहा तो दूसरी तरफ़ से महाशय ने सलाह दी कि 'काफ़ी ज़्यादा टाइफ़ाइड, मलेरिया के मामले आ रहे हैं इसलिए ये जाँचें और ख़ून-पेशाब जाँच करवा लें और फिर यदि कोई बीमारी नहीं निकलती है तो कोरोना की जाँच की जाएगी। मुझे लगा कि छोटे शहरों में इन जाँचों की रिपोर्ट और फिर कोरोना टेस्ट व इसकी रिपोर्ट आने में कहीं ज़्यादा देर न हो जाए।
पहचान के डॉक्टर को फ़ोन पर बीमारी के लक्षण बताये तो उन्होंने दवाएँ लिख कर दे दीं। वही दवाएँ लीं और मैं व पूरा परिवार ठीक हो गया।
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