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बिहार में बीजेपी की जीत के ढिंढोरे का यह है सच?

बीजेपी नेता बिहार की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने और ऐसा प्रभाव पैदा करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रख रहे। अब देखिए कि 2015 की तुलना में कुल 21 सीटें ज़्यादा जीतने के बाद वे ऐसा जता रहे हों मानो अपने दम पर सरकार बनाने जा रहे हों। वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जीत को ऐसे पेश कर रहे हैं मानो वह बीजेपी की जीत हो, लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। 
मुकेश कुमार

बीजेपी तथ्यों को तोड़-मरोड़कर और बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने में माहिर है। वह हार को जीत और जीत को हार बता सकती है। सामान्य जीत को विश्वविजय के रूप में प्रस्तुत कर सकती है। उसके नेता और प्रवक्ता हर घड़ी इसी काम में लगे रहते हैं। यह उसकी प्रचारात्मक रणनीति का हिस्सा है। इससे जनता को भरमाती है और आने वाले मुक़ाबलों के लिए माहौल भी बनाए रखती है। बिहार के चुनाव परिणाम आने के बाद आए उनके बयानों को देखिए और चुनावी आँकड़ों से उनका मिलान करिए, आपकी समझ में आ जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान भी इसकी मिसाल है। मोदी ने बिहार की जीत को ऐतिहासिक बताते हुए कहा है कि बीजेपी तीन बार से सत्ता में रहने के बावजूद ज़्यादा सीटें जीतने में कामयाब रही। लेकिन सचाई यह है कि बीजेपी 2015 में चुनाव हार गई थी यानी वह तीन बार से लगातार सत्ता में थी ही नहीं। उस चुनाव में महागठबंधन भारी बहुमत से जीता था। इसलिए उसे जोड़कर बताना तथ्यात्मक रूप से ग़लत था। वह तो बाद में तीसरी सरकार का हिस्सा बनी। वह भी साढ़े तीन साल के लिए यानी एंटी इनकंबेंसी उसके ख़िलाफ़ नहीं थी। चूँकि सरकार का नेतृत्व नीतीश कुमार कर रहे थे और जेडीयू उनकी पार्टी थी इसलिए सत्ता विरोधी लहर का सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव भी उन्होंने झेला।

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यही नहीं, सत्ता विरोधी लहर से बचने के लिए बीजेपी ने गठबंधन के अपने सहयोगी जेडीयू के साथ दग़ाबाज़ी भी की। लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान को उसके ख़िलाफ़ खड़ा किया, ताकि उसके क़द को छोटा किया जा सके। इस दग़ाबाज़ी को कुछ लोग रणनीति के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं और शाबाशी दे रहे हैं। मगर यदि यही किसी और ने किया होता तो उसे गठबंधन धर्म का उल्लंघन करने का दोषी क़रार दिया गया होता, नैतिकता की दुहाई देकर उसकी सत्तालोलुपता के लिए कोसा जाता।

बीजेपी नेता बिहार की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने और ऐसा प्रभाव पैदा करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रख रहे। अब देखिए कि 2015 की तुलना में कुल 21 सीटें ज़्यादा जीतने के बाद वे ऐसा जता रहे हों मानो अपने दम पर सरकार बनाने जा रहे हों। वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जीत को ऐसे पेश कर रहे हैं मानो वह बीजेपी की जीत हो, लेकिन हक़ीक़त कुछ और है। 

सचाई यह है कि अगर उसे अपने दम पर सरकार बनाना हो तो वह बहुमत के आँकड़े से बहुत दूर खड़ी है। उसे इसके लिए 48 सीटें और चाहिए। बिहार के सबसे बड़े दल बनने की हसरत भी उसकी पूरी नहीं हो पाई है।

एक सीट से ही सही, मगर राष्ट्रीय जनता दल उससे आगे है और ऐसा तब है जबकि बीजेपी के पास डबल इंजन की सरकार थी, प्रचारक के रूप में प्रधानमंत्री थे, सरकारी मशीनरी उसके साथ थी, ख़र्च करने के लिए अकूत धन था और मीडिया-बल तो उसके पास था ही।

आरजेडी के पास इनमें से एक भी चीज़ नहीं थी। लालू यादव जेल में थे। चुनाव लड़ने के लिए धन नहीं था। एनडीए के नेता जहाँ 22 हेलीकॉप्टर लेकर घूम रहे थे, वहाँ आरजेडी में यह सुविधा केवल तेजस्वी यादव के पास थी। इस पार्टी के एकमात्र प्रचारक भी वही थे। इसीलिए तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी का दर्ज़ा बनाए रखने में कामयाब रही। यही नहीं, उनकी पार्टी ने बीजेपी से क़रीब साढ़े तीन फ़ीसदी मत भी ज़्यादा हासिल किए। हालाँकि आरजेडी ने उससे ज़्यादा सीटों पर चुनाव भी लड़ा था।

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अब ज़रा दोनों गठबंधनों के प्रदर्शन को भी तुलनात्मक रूप से देखा जाए। महागठबंधन को एक गठबंधन के तौर पर एनडीए के मुक़ाबले काफ़ी कमज़ोर माना जा रहा था। उसके कई घटक चुनाव के पहले छोड़कर जा चुके थे या तेजस्वी उन्हें रोक नहीं सके थे। गठबंधन की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस बिहार में काफ़ी कमज़ोर हो चुकी है, उसका किसी भी सामाजिक समुदाय में प्रभाव नहीं रह गया है। जहाँ तक वामपंथी दलों का सवाल है तो उनका जनाधार बहुत ठोस है मगर सीमित क्षेत्र में है। वे पूरे राज्य की राजनीति को प्रभावित करने की  स्थिति में नहीं हैं।

इसके विपरीत अगर एनडीए को देखें तो बिहार के जातीय गणित के मद्देनज़र बीजेपी-जेडीयू का साथ में होना ही एक तरह से जीत की गारंटी था। स्थिति यह है कि तीन बड़ी पार्टियों में जो भी दो पार्टी एक साथ आ जाती हैं उनकी जीत लगभग सुनिश्चित हो जाती है। उस पर जीतन माँझी की ‘हम’ और मुकेश सहनी की ‘वीआईपी’ के जुड़ने से वह और भी मज़बूत हो चुका था।

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इस सबके बावजूद एनडीए को जीत के लिए लोहे के चने चबाने पड़ गए। हज़ार से कम वोटों से हारने वाली पाँच-सात सीटों पर हुई धाँधली के आरजेडी के आरोपों को ध्यान में रखा जाए तो महागठबंधन जीतते-जीतते हार गया। यहाँ दोनों के बीच के मतों के अंतर को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। एनडीए को 37.26 फ़ीसदी तो महागठबंधन को 37.23 प्रतिशत मत मिले हैं। यानी दोनों के बीच केवल 0.03 फ़ीसदी का अंतर है। अगर वोटों में देखा जाए तो महागठबंधन को मात्र 12768 वोट कम मिले हैं।

साफ़ है कि बिहार की उपलब्धि का ढिंढोरा पीटकर बीजेपी लोगों में भ्रम फैला रही है कि उसने सबको पछाड़ दिया है, वह अपराजेय है और मोदी का जादू बरक़रार है। वह इसका फ़ायदा पश्चिम बंगाल के चुनाव में उठाने की फ़िराक़ में है इसलिए उसके हिसाब से माहौल बना रही है। चूँकि मीडिया उसके साथ है इसलिए उसका यह नैरेटिव मज़बूती भी हासिल कर रहा है। मगर सचाई वही है जो ऊपर बताई गई है।

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