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पुस्तक समीक्षा: मनुष्यता के रितुरैण में कविता का ग्रीष्म

शिरीष कुमार मौर्य का नया कविता संग्रह रितुरैण इस विश्वास को और भी पुख़्ता करता है कि एक कवि के रूप में उनकी यात्रा नए मार्गों का अन्वेषण करते हुए निरंतर आगे बढ़ रही है। रितुरैण में उन्होंने ऋतुओं के आवागमन को एक नई दृष्टि के साथ देखा और प्रस्तुत किया है। ये नई दृष्टि गहरी मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों से रची-बसी है। ये दृष्टि उनमें पहले नहीं थी ऐसा नहीं है। 
मुकेश कुमार

एक अच्छे कवि का सामर्थ्य केवल इतना नहीं होता कि वह जो दिख रहा है उसे संवेदनशीलता के साथ सशक्त भाषा के ज़रिए प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकता है और उसके उस अर्थ को रचता एवं परिभाषित करता है जो सामान्य की नज़र में नहीं आता। उसके सामर्थ्य की परीक्षा एक से अधिक मोर्चों पर होती है। उसे विचारों, संवेदनाओं और संप्रेषण, हर प्रतिमान पर खरा उतरना होता है। इसीलिए अच्छी कविता भी बहुस्तरीय होती है, वह चालू मुहावरों को तोड़कर कहन का नया अंदाज़ रचती है। वह अपनी भाषा या गढ़न से केवल चमत्कृत नहीं करती, कोई कौतूहल या खुशनुमा एहसास ही पैदा नहीं करती बल्कि पाठक के अंदर एक बेचैनी को भी जन्म देती है। वह देश और काल दोनों का अतिक्रमण करती है, उनके आरपार देखती है और वर्तमान को अतीत एवं भविष्य से जोड़ती भी चलती है। 

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शिरीष कुमार मौर्य इसीलिए एक सशक्त कवि हैं क्योंकि वे बख़ूबी ये काम करते रहे हैं। उनके पहले के कविता संग्रहों को हिंदी जगत में जैसी स्वीकृति मिली वह इसका प्रमाण है। उनका नया कविता संग्रह रितुरैण इस विश्वास को और भी पुख़्ता करता है कि एक कवि के रूप में उनकी यात्रा नए मार्गों का अन्वेषण करते हुए निरंतर आगे बढ़ रही है। रितुरैण में उन्होंने ऋतुओं के आवागमन को एक नई दृष्टि के साथ देखा और प्रस्तुत किया है। ये नई दृष्टि गहरी मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों से रची-बसी है। ये दृष्टि उनमें पहले नहीं थी ऐसा नहीं है। इस दृष्टि के दर्शन वे अपनी पूर्व की कविताओं में भी कराते रहे हैं लेकिन जब हम उसे हिंदी साहित्य में ऋतु वर्णन की परंपरा के संदर्भ में देखते हैं तो फिर से हमें एक नएपन का अनुभव होता है।

कवि अपनी मिट्टी से पूछो

चैत में गेहूँ कटेगा कि नहीं?

जेठ में तुम्हारे भीतर का गुलमोहर

खिलेगा कि नहीं?

उदाहरण के लिए हिंदी साहित्य वसंत ऋतु के गुणगान से भरा पड़ा है। वसंत को ऋतुराज कहा गया है और उसकी शान में बहुत कुछ लिखा गया है। मगर रितुरैण का रचयिता वसंत से खिन्न नज़र आता है। 

तुम्हारा वसंत यह

भारत का लोकतंत्र है

मैं उस राह पर

ज़हरखुरानी के बाद भी बचा हुआ

कोई मुसाफ़िर।

और

मुँह में दबी हुई थैली विकट ज़हर की

दिल में कमीनगी है पर थोबड़े वसंत के

वह तो वसंत को एक छलावे की तरह देखता है और उसे सीधे लाँघकर ग्रीष्म में चला जाना चाहता है। शिशिर उसके लिए गहरे संघर्ष का प्रतीक है, क्योंकि ऋतुओं को वह पहाड़ों के संदर्भ में देखता है और पहाड़ों पर जाड़ों का जीवन भारी जद्दोजहद से भरा होता है। शिशिर के बाद इसीलिए वह ग्रीष्म में उल्लसित होता है, उसके स्वागत के लिए तत्पर नज़र आता है।

शिशिर मेरा माध्यम है

जलती लकड़ियों की लपट शिशिर में

मेरा वसंत है

ग्रीष्म में राह पर थोड़ी छाँव

घर लौटने पर ठंडा पानी और प्रिय चेहरे परिजनों के

मेरे जीवन में रोज़ उतरने वाले वसंत हैं

रितुरैण रूढ़ि के मुताबिक़ चैत्र में मायके की याद और भाई की प्रतीक्षा में गाया जाने वाला गीत है, लेकिन इसका एक अर्थ ऋतुओं का बदलना भी है। अगर हम इन्हें बिंब की तरह लें तो कविता संग्रह में हमें इन सबके विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। 

शिशिर की रात 

वसंत की स्मृति में कोई रोता है

उसे वसंत की उम्मीद और स्वप्न में 

होना चाहिए

पर वह रोता है

बस यही तो मेरे मुल्क में ऋतुरैण होता है।  

यहीं हमें कवि की विचार-दृष्टि को समझने का मौक़ा भी मिलता है। वह ऋतुओं को विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले एक छोटे से वर्ग के मन बहलाव के रूप में नहीं देखता, जो कि रीतिकाल के कवियों में प्रचुरता से पाया जाता है। इसके विपरीत वे मेहनतकश वर्ग और ऋतुओं के संबंधों के द्वंद्व को उभारते हुए एक सघन तनाव रचते हैं। कहा जा सकता है कि शिरीष अपने कविता-कर्म में कल्पनाशील होते हुए भी काल्पनिकता से अधिक यथार्थ पर अवलंबित कविताएँ रचते हैं। 

वह जो गंध उठती है

विकट जैविक

गलते-सड़ते हुए पत्तों से ढकी धरती पर

प्यारी है कि नहीं?

विचार से भरा जीवन

अब भी एक जैविक गंध

है कि नहीं?

एक दूसरी परंपरा जिसमें ऋतुएँ अक्सर कहर बनकर मानव जीवन पर टूट पड़ती हैं उनकी भी है। लेकिन शिरीष की कविताओं में ऋतुओं का आवागमन प्राकृतिक आपदा के रूप में नहीं होता वह मानवीय त्रासदी के रूप में प्रकट होता है। इसीलिए वे ऋतुओं की बात करते हुए राजनीति पर आक्षेप करने से नहीं हिचकिचाते।

दंगा करने वालों के वसंत हैं

इस देश में

जबकि मनुष्यता के वसंत होने थे।

और 

कपटराज-नीति और विकट समाज के

इस समय में

आपको याद किया जा सकता है

थक कर घर जाने के लिए

या किसी और समय में जाकर

मर जाने के लिए।

शिरीष प्रतिरोध की सैद्धांतिकी को गढ़ते हुए दिखते हैं। यह कहना शायद ज़्यादा सही हो कि उनकी कविता में विचार तो है मगर इससे ज़्यादा कहीं उनके विचारों के अंदर कविता अवस्थिति है। ये प्रच्छन तौर पर नहीं है और न ही नारेबाज़ी के रूप में ही। यह एक चेतना संपन्न कवि का जागरूक हस्तक्षेप है। और हाँ, वे ऐसा करते हुए कविता के रस को न केवल बचाए रखते हैं, बल्कि एक नए तरह का आस्वाद गढ़ते भी हैं।

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मुकेश कुमार

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