बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के तीसरे चरण में विकास और जातीय समीकरण सीमांचल की वोट चर्चा के अहम हिस्सा नज़र आते हैं लेकिन बदलाव की चाहत इन पर भारी दिखती है। लोगों की बात आम तौर पर ऐसी होती हैः नीतीश जी 'काम तो किये हैं' लेकिन अब बदलना चाहिए।
सीमांचल का इलाक़ा वैसे तो कटिहार से ही शुरू माना जाता है लेकिन इसका असल एहसास वहाँ से ट्रेन की दो घंटे के सफर के बाद किशनगंज से शुरू होता है।
किशनगंज वास्तव में दो तरह से सीमांचल का हिस्सा है। एक तो इसकी सीमा के बाद बंगाल शुरू होता है और इसकी सीमा बांग्लादेश से भी मिलती है।
किशनगंज की मुख्य सड़कें तो अच्छी हालत में हैं लेकिन छोटी सड़कें बदहाल हैं। बिजली के बारे में भी कोई शिकायत नहीं मिलती है। यहाँ तक नीतीश कुमार के लिए सारी तारीफ़ है।
इसके बाद बात बदलाव की बात शुरू होती है। क्यों चाहिए बदलाव? जवाब मिलता है कि सड़क-बिजली के आगे भी तो ज़रूरत है। क्या ज़रूरत है? ‘यहाँ स्कूल सही नहीं है। अस्पताल में डाॅक्टर नहीं मिलते।‘ लेकिन इससे बड़ी शिकायत भी है। महानन्दा की बाढ़ में दो-दो बार धान की फ़सल बह गयी लेकिन कोई देखने नहीं आया। सरकार से कोई मदद नहीं मिली।
इस इलाक़े में तीन तरह की बहस होती दिखती है। एक तो विकास हुआ है, यह सब मानते हैं। दूसरी बहस उम्मीदवारों के अपने योगदान की है। इस मुद्दे पर कांग्रेस के विधायकों का प्रदर्शन सवालों के घेरे में नज़र आता है।
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान पूर्णिया ज़िले के अमौर से उम्मीदवार हैं। यहाँ बीजेपी से जदयू में आये सबा जफर एनडीए के उम्मीदवार हैं मगर असल मुक़ाबला कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान से बताया जाता है। यहाँ आम लोगों की शिकायत है कि उन्होंने चार बार विधायक रहने के बावजूद अमौर के लिए कुछ नहीं किया। दूसरी तरफ़ कुछ लोग ओवैसी पर साम्प्रदायिकता को बढ़ाने का इल्जाम लगाते हैं। इस बहस का अंत इस बात से होता है कि हम पार्टी नहीं, उम्मीदवार को वोट देंगे।
जो लोग एनडीए के पक्के समर्थक हैं उन्हें छोड़ दें तो बाक़ी लोग यह भी कहते नज़र आए कि इलाक़े की ग़रीबी दूर करने के लिए जो रोजगार-नौकरी देगा हम उसके साथ रहेंगे।
किशनगंज से पूर्णिया और वहाँ से अररिया के रास्ते में महानन्दा की बाढ़ की तबाही की चर्चा बहुत से लोग करते हैं। हालाँकि वे इस बात से ख़ुश भी हैं कि इस साल जूट की अच्छी क़ीमत मिल रही है।
अररिया से सुपौल जाते हुए दो चीजें कई जगह साफ़ दिखती हैं: एक तो सड़कों पर सुखाया जा रहा जूट और दूसरे नेपाल की बस्तियाँ। पूर्णिया से अररिया के ज़ीरो माइल पहुँचने पर एक साथ दो जगहों- अररिया और जोकीहाट- के उम्मीदवारों की गाड़ियाँ शोर करती हुई मिलती हैं।
जोकीहाट में इस बात पर जबर्दस्त चर्चा है कि पूर्व मंत्री मरहूम तसलीमुद्दीन के दोनों पुत्र यहाँ से लड़ रहे हैं। बड़े पुत्र सरफराज आलम आरजेडी से उम्मीदवार हैं और छोटे शाहनवाज आलम एआईएमआईएम से मैदान में उतरे हैं। चर्चा इस बात की भी है कि इन दोनों भाइयों के झगड़े में बीजेपी के रंजीत यादव बाजी न मार ले जाएँ। इस बात पर काफ़ी माथापच्ची होती मिली कि ओवैसी के पतंग छाप को बस तीन-चार जगह ही समर्थन मिलेगा, इसलिए बाक़ी जगह वोट बँटने नहीं देना है।
एक बहस इस बात पर भी हो रही है कि कथित रूप से ओवैसी की पार्टी ने भी टिकट देने के लिए पैसे ले लिये हैं जिससे उसकी छवि धूमिल हुई है। अररिया में कांग्रेस के उम्मीदवार आबिदुर रहमान के लिए आरजेडी वाले भी काफ़ी मेहनत करते हुए दिख रहे हैं। इसी के साथ यह बहस भी मिली कि कांग्रेस को आरजेडी ने कुछ ज़्यादा ही सीटें दे दी हैं।
दूसरी तरफ़ जदयू की शगुफ्ता परवीन को अल्पसंख्यक समुदाय ठीक ठाक उम्मीदवार मानते हुए भी वोट देने में इसलिए संकोच करता हुआ दिखा कि इनकी संगत 'फासिस्ट पार्टी' से है।
इस पूरे इलाक़े में वोट देने की चर्चा में यह बात भी शामिल हो गयी है कि सरकार बनने वाली है इसलिए उसी के उम्मीदवार को वोट दें। इस तरह ओवैसी की पार्टी के लिए वोट पाना और मुश्किल हो गया है।
अररिया से सुपौल जाते हुए कोसी की तबाही का मंजर अब भी देखा जा सकता है। खेतों में बालू भरे हैं। मगर इस इलाक़े में पड़ने वाले छतापुर विधानसभा से बीजेपी के उम्मीदवार नीरज कुमार सिंह बबलू अपनी फ़सल बेहतर करने में पूरा जोर लगाए हुए हैं। यह दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के चचेरे भाई हैं। इनके लिए आई प्रचार गाड़ियों में कई लग्ज़री कारें यूपी नम्बर प्लेट वाली मिलीं। देर शाम तक इनका काफिला सड़कों पर नज़र आया। इनका मुख्य रूप से आरजेडी के विपिन कुमार से सामना है।
कुल मिलाकर सीमांचल और कोसी में लोग बदलाव की बात खुलकर कर रहे हैं। अब मुख्यमंत्री ने इसे अपना अंतिम चुनाव घोषित कर दिया है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि उनकी पार्टी के उम्मीदवारों को सहानुभूति में कितने वोट मिलते हैं।
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