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दिल्ली की एक कॉलोनी

दिल्ली में सिर्फ़ राजनीतिक ‘खेल’ है कॉलोनियों की मंज़ूरी का मुद्दा

आख़िर दिल्ली की अवैध बनाम कच्ची कॉलोनियों के लिए वह घड़ी आ ही गई जब केंद्र सरकार ने इन कॉलोनियों को मंज़ूर करने का एलान कर दिया। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। इसके बावजूद बहुत-से सवाल हैं लेकिन मुहर लगना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। वह इसलिए कि ये कॉलोनियाँ जिस कदर राजनीति में उलझी रही हैं, उनमें राजनीतिक दलों ने कई बार अपना उल्लू सीधा कर लिया है लेकिन ऐसी मुहर पहले नहीं लग पाई। यह मुहर आख़िरी मुहर होगी या इसके बाद इनकी ज़िंदगी आसान हो जाएगी, इस पर अभी कई सवालिया निशान लगे हुए हैं लेकिन इन कॉलोनियों के लोग यही मान रहे हैं कि उनके लिए यही दिवाली का तोहफ़ा है।

दिल्ली की 1797 कॉलोनियों की मंज़ूरी पर यह मुहर लगी है। अभी लोकसभा के अगले सेशन में इस पर बिल लाया जाएगा और बिल के पास होने के बाद ही सारी प्रक्रिया शुरू होगी लेकिन इस मुहर के लगने और उसका श्रेय लेने की राजनीति सभी की समझ में आ रही है। इसीलिए बाक़ी सवालिया निशानों की धुंध छँटना आसान नहीं लग रहा।

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दरअसल, दिल्ली की इन कॉलोनियों में रहने वाले ज़्यादातर ग़रीब तबक़े से हैं। बहुत-सी कॉलोनियाँ सरकारी ज़मीन पर बनी हुई हैं और बहुत-सारी कॉलोनियाँ ऐसी हैं जहाँ कृषि होती थी लेकिन कॉलोनाइजरों ने किसानों से ज़मीन ख़रीदकर वहाँ कॉलोनियाँ बसा दीं। न तो वहाँ गली, सड़क, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल या कम्युनिटी सेंटर के लिए जगह छोड़ी गई और न ही किसी और तरह का योजनाबद्ध विकास हुआ। ग़रीब को सबसे पहले छत चाहिए और वह जब उसे सस्ते दामों पर मिल गई तो उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि वह सरकारी ज़मीन पर बनी कॉलोनी है, प्राइवेट लैंड पर है, वन विभाग की है या फिर उसकी पक्की रजिस्ट्री होती है या नहीं। पॉवर ऑफ़ अटार्नी पर ज़मीन की क़ीमत का भुगतान हुआ। कच्ची-पक्की चहारदीवारी बनी और एक-दो कमरों का मकान बनाकर वहाँ उसका परिवार आ बसा। दिल्ली का इस तरह बेतरतीब विस्तार पिछले 35-40 सालों में हुआ है और यही वजह है कि दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा स्लम बनकर रह गया है। यह एक अलग पहलू है लेकिन यहाँ के 40-50 लाख लोग अब दिल्ली के वोटर हैं और राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक हैं।

यही वजह है कि इन कॉलोनियों की मंज़ूरी एक बड़ा मुद्दा रही है। इन कॉलोनियों में रहने वाले सबसे ज़्यादा लोग पूर्वांचल के हैं। इसके अलावा बंगाल या बांग्लादेश से आकर भी दिल्ली में बस गए हैं। दिल्ली बाहर के लोगों के लिए आकर्षण रही है। इसलिए भी कि राजधानी होने के कारण यहाँ ज़्यादा सुविधाएँ हैं और इसलिए भी कि यहाँ रोज़गार के अवसर भी मौजूद हैं। यहाँ 10 रुपए में भी पेट भरा जा सकता है और 10 हज़ार रुपए में भी। केजरीवाल सरकार के आने के बाद मुफ़्त बिजली-पानी अपने आप में एक और बड़ा आकर्षण बन गया है।

पिछले दो विधानसभा चुनावों में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को इन कॉलोनियों से भरपूर समर्थन मिला है। इससे पहले कांग्रेस इन्हें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करती थी।

1983 में कांग्रेस ने इन कॉलोनियों को मंज़ूर करने की बात कही थी। उस वक़्त कॉलोनियों की पहचान की गई थी और तादाद निकली थी 607 और अब इनकी संख्या बढ़कर 1797 हो गई है। इसके बाद भी ऐसी बहुत-सी कॉलोनियाँ हैं जिन्हें पास नहीं किया जा रहा। ख़ासतौर पर पॉश कॉलोनियाँ, जैसे; सैनिक फ़ार्म, महेंद्रू एन्कलेव या फिर अनंतराम डेयरी वगैरह। कॉलोनियाँ बढ़ती गई हैं और साथ ही उसके वोटरों की तादाद भी। 2008 के विधानसभा चुनावों से पहले शीला सरकार ने इन कॉलोनियों को मंज़ूर करने की लंबी एक्सरसाइज की थी। यह भी दिखाया था कि जैसे कॉलोनियाँ मंज़ूर हो ही गई हैं। सोनिया गाँधी के हाथों प्रोविजनल सर्टिफ़िकेट भी बँटवा दिए थे लेकिन जब कांग्रेस तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव जीत गई तो उसके बाद इन कॉलोनियों को भूल गई। इसीलिए इन कॉलोनियों के वोट बैंक पर केजरीवाल का कब्जा हो गया।

बड़ा वोट बैंक

दिल्ली के 70 विधानसभा इलाक़ों में से लगभग आधे पर इस तरह की कॉलोनियाँ बनी हुई हैं लेकिन 30 विधानसभा इलाक़े ऐसे हैं जहाँ इन कॉलोनियों वाले चुनावी नतीजों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। ये हैं- नरेला, बुराड़ी, बादली, रिठाला, बवाना, मुंडका, किराड़ी, सुल्तानपुर माजरा, मंगोलपुरी, नांगलोई, मादीपुर, उत्तम नगर, द्वारका, मटियाला, नजफगढ़, बिजवासन, पालम, महरौली, छतरपुर, देवली, अम्बेडकर नगर, संगम विहार, तुगलकाबाद, बदरपुर, ओखला, त्रिलोकपुरी, कोंडली, मुस्तफाबाद और करावल नगर। ज़ाहिर है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी 40 फ़ीसदी सीटों की अनदेखी नहीं कर सकती। यही वजह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी आसानी से इन वोटों को दूसरों की झोली में नहीं जाने देना चाहती। इसीलिए हर हथकंडा अपनाया जा रहा है।

पूर्वांचलियों का प्रभाव

चूँकि इन कॉलोनियों में रहने वालों में बहुत बड़ी तादाद पूर्वांचल के लोगों की है तो बीजेपी ने मनोज तिवारी को दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष बनाकर पंजाबी-बनिया अध्यक्ष बनाने की परंपरा को तोड़ डाला। केजरीवाल ने पिछले दिनों पूर्वांचल के लोगों को नाराज़ होते देखा तो संजय सिंह को झट से दिल्ली का प्रभारी बनाकर इस वर्ग पर डोरे डालने का काम शुरू कर दिया। कांग्रेस कहाँ पीछे रहने वाली है। हालाँकि वह महाबल मिश्रा को पूर्वांचल नेता मानती रही है लेकिन अब कीर्ति आज़ाद को अगले चुनावों के लिए कैम्पेन कमेटी का चेयरमैन बनाकर पेश कर दिया है ताकि यह लगे कि इस वर्ग के हम भी खैरख्वाह हैं।

बात सिर्फ़ इन नेताओं को कमान देने की नहीं है, बल्कि देखना यह है कि अब इन कॉलोनियों को पास करने का श्रेय लेकर कौन इनके ज़्यादा निकट होने का अहसास दिलाता है।

केजरीवाल पिछले तीन महीनों से यह कोशिश कर रहे हैं कि वह इन कॉलोनियों में विकास कार्य का डंका बजाकर यह साबित करने की कोशिश करें कि मैं आपका जीवन सुधार रहा हूँ। बीजेपी ने जब इन कॉलोनियों को मंज़ूर करने की सुगबुगाहट शुरू की तो केजरीवाल ने झट से यह कहना शुरू कर दिया कि इसका प्रस्ताव तो मैंने ही भेजा था। अब भी वह उस प्रस्ताव का हवाला देकर श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले पाँच सालों में केजरीवाल की तरफ़ से प्रस्ताव पर रिमांडइर क्यों नहीं आया, यह पूछा जाता है तो संजय सिंह यह कह देते हैं कि बीजेपी ने पाँच सालों में कॉलोनियों को पास करने का एलान क्यों नहीं किया।

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श्रेय लेने की होड़ मचेगी

इन कॉलोनियों की मंज़ूरी आसानी से हो जाएगी, ऐसा नहीं है। कॉलोनियों के पास होने के लिए लंबी प्रक्रिया चल सकती है लेकिन केजरीवाल इसका श्रेय लेने के लिए बेताब बैठे हैं। जैसे ही केंद्र सरकार बिल पास करेगी, केजरीवाल इन कॉलोनियों में रेवेन्यू विभाग के कैंप लगवा देंगे कि आइए, रजिस्ट्री कराइए। उस प्रक्रिया में जहाँ भी हील-हुज्जत होगी तो कहा जाएगा कि ये सारी मुश्किलें तो केंद्र सरकार ने पैदा की हैं। देखिए मैं तो कैंप लगाकर बैठा हूँ और रजिस्ट्री करने के लिए तैयार हूँ। इस तरह ठीकरा केंद्र के सिर पर फोड़ा जाएगा। दूसरी तरफ़ बीजेपी भी खेली-खाई है। बीजेपी कॉलोनियों की मंज़ूरी के एलान के साथ ही कह देगी कि अब तो बाक़ी काम दिल्ली सरकार को करना है। आप दिल्ली सरकार की शर्तों को पूरा कीजिए और रजिस्ट्री करा लीजिए।

इन कॉलोनियों के लोगों पर तरस आता है कि उन्हें एक बार फिर से वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की तैयारी हो रही है। आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए अब सब कुछ जल्दबाज़ी में किया जा रहा है। कॉलोनियों की मंज़ूरी पर मुहर लग गई है लेकिन सारे राजनीतिक दल अपने चुनाव चिन्ह के आगे लगने वाली मुहर के तलबगार बने हुए हैं। यह सारी हलचल इसी का नतीजा है।
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दिलबर गोठी

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