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केजरीवाल के पर कतरने की तैयारी 

दिल्ली में फिर बखेड़ा खड़ा हो गया है। एक बार फिर दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने केंद्र सरकार के सरकार के ख़िलाफ़ तलवारें निकाल ली हैं। 2015 में 67 और 2020 में 62 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी को ऐसा लग रहा है कि इतना प्रचंड बहुमत भी उसके लिए काफी नहीं है। उसे लग रहा है कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच ने जो फ़ैसला दिया था, उससे भी ऊपर अब केंद्र सरकार नए फ़ैसले कर रही है ताकि आम आदमी पार्टी इतना प्रचंड बहुमत होने के बाद भी दिल्ली में जो चाहे, वह न कर सके।

दिल्ली में 1993 में विधानसभा का गठन हुआ था। उससे पहले दिल्ली में स्थानीय प्रशासन चलाने के लिए महानगर परिषद हुआ करती थी। राजीव गांधी के जमाने में यह तय हुआ था कि दिल्ली को नया ढाँचा दिया जाए ताकि दिल्ली को बहुत सारी एजेंसियों के जंजाल से मुक्त किया जाए। सरकारिया-बालाकृष्णन कमेटी की रिपोर्ट के बाद दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट की जगह आखिर दिल्ली के लिए गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 बना। 

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केंद्र-शासित प्रदेश बना रहेगा?

अगर उस एक्ट की मुख्य बातों पर नज़र डाल लें तो शायद मामला समझने में आसानी होगी। एक्ट के अनुसार दिल्ली विधानसभा मिलने के बाद भी केंद्र-शासित प्रदेश बना रहेगा। दिल्ली में उपराज्यपाल होंगे जो दिल्ली के प्रशासक होंगे। एक विधानसभा होगी जिसके सदस्य चुनकर आएंगे।

लोक व्यवस्था, पुलिस और ज़मीन को छोड़कर बाकी मामलों पर दिल्ली सरकार क़ानून बना सकती है, लेकिन ये कानून संसद द्वारा बनाए गए किन्हीं कानूनों पर असर नहीं डाल सकते, संसद के किसी कानून के विरुद्ध नहीं हो सकते।

दिल्ली में एक मंत्रिपरिषद होगी जो उपराज्यपाल को उन विषयों में सहायता करेगी और सलाह देगी जिनपर विधानसभा को क़ानून बनाने का अधिकार है। अगर दोनों के बीच कोई मतभेद होता है तो मुद्दा राष्ट्रपति को भेजा जाएगा और उनका फ़ैसला अंतिम होगा। इसके अलावा विधानसभा चलाने के रूल्स में कहा गया है कि कोई भी बिल राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना पास नहीं हो सकता यानी उसे उपराज्यपाल की मार्फत राष्ट्रपति को भेजना होगा। 

दिल्ली पर किसका राज?

संशोधन विधेयक के आते ही दिल्ली सरकार उबल पड़ी है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि बीजेपी जो विधानसभा चुनावों में पिछली बार 3 और इस बार 8 सीटें जीत पाई, हाल ही के नगर निगम उपचुनावों में ज़ीरो हो गई, अब वह दिल्ली पर राज करना चाहती है। 

उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को लग रहा है कि बीजेपी चोर दरवाजे से दिल्ली पर शासन करना चाहती है। उनका कहना है कि जनता की चुनी हुई सरकार की कोई अहमियत नहीं है और सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के फैसले की कोई अहमियत नहीं है।

अब बीजेपी उपराज्यपाल की मार्फत दिल्ली चलाना चाहती है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आम आदमी पार्टी की सरकार के आने से पहले केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार में कभी भी इस तरह की तनातनी नहीं रही। केंद्र में चाहे बीजेपी की सरकार रही हो और दिल्ली में कांग्रेस का शासन हो या फिर 1998 से पहले का युग हो जब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी और दिल्ली में बीजेपी थी-तो भी इस तरह का टकराव कभी नहीं हुआ। यह टकराव तभी शुरू हुआ, जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में शासन संभाला।

एनसीटी एक्ट को देखें तो एक सवाल ज़रूर पैदा होता है कि दिल्ली में आखिर किसकी सरकार है। आम आदमी पार्टी कहती है कि दिल्ली में हमारी चुनी हुई सरकार है, लेकिन एक्ट के हिसाब से दिल्ली का प्रशासक तो उपराज्यपाल होता है।

'गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी’ 

संविधान में भी दिल्ली के लिए स्थानीय प्रशासन शब्द का इस्तेमाल हुआ है। दरअसल जब दिल्ली में विधानसभा बनी थी तो शुरू में जितने बिल बने थे, उनमें सरकार का मतलब ‘एलजी’ ही लिखा जाता था। दिल्ली विधानसभा के पूर्व सचिव एस.के. शर्मा का कहना है कि तब विपक्ष के नेता जगप्रवेश चंद्र ने एक बार विधानसभा में एक बिल पर चर्चा के दौरान यह संशोधन लगा दिया कि ‘एलजी’ की जगह ‘गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी’ लिखा जाए।

तब मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना होते थे। तब उसके बाद डेढ़ दर्जन से ज्यादा बिलों में दिल्ली सरकार का मतलब ‘गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी’ ही लिखा गया। साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज के कार्यकाल में भी यही चलता रहा। 

सरकार का मतलब एलजी

1998 में जब कांग्रेस की सरकार आई और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं तो गृह मंत्रालय का दिल्ली सरकार को एक पत्र आया जिसमें साफ किया गया कि दिल्ली में सरकार का मतलब एलजी ही है, भविष्य में बिलों में एलजी ही लिखा जाए क्योंकि एलजी दिल्ली के प्रशासक हैं। 2013 तक यानी जब तक शीला दीक्षित मुख्यमंत्री रहीं, इसी पर अमल हुआ।

जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो एक बार फिर एलजी को हटाकर ‘काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स’ यानी सरकार का मतलब दिल्ली की मंत्रिपरिषद लिखना शुरू कर दिया गया जबकि एक्ट आज भी यही कहता है कि दिल्ली में सरकार का मतलब उपराज्यपाल है और वही दिल्ली के प्रशासक हैं।

अब संशोधन में यह साफ किया जा रहा है कि दिल्ली के प्रशासक उपराज्यपाल हैं तो इसका मतलब यह है कि कानूनी व्यवस्था को ही फिर से लागू करने की बात की जा रही है।

दिल्ली के प्रशासक उपराज्यपाल

इसका मतलब यह भी है कि अगर दिल्ली सरकार कोई बिल बनाती है तो विधानसभा में पेश करने के पहले उसे उपराज्यपाल के पास भेजना होगा। इसके लिए अब तक कोई समय तय नहीं था। संशोधन में 15 दिन का समय तय किया जा रहा है।

दरअसल दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार उपराज्यपाल के पास कई बिल भेजती ही नहीं। 2013 में आम आदमी पार्टी की सरकार ने 49 दिन में इसीलिए इस्तीफा दे दिया था कि वे जन लोकपाल बिल पास करना चाहते थे लेकिन उस बिल को पहले उपराज्यपाल के पास नहीं भेजा गया था। उपराज्यपाल की मार्फत ही बिल राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए जाते हैं जबकि आम आदमी पार्टी सरकार इस व्यवस्था को नहीं अपनाती। 

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संशोधन के जरिए अब यह भी साफ किया जा रहा है कि दिल्ली विधानसभा में कौन से मामलों पर चर्चा की जा सकती है। अगर अभी तक का इतिहास देखें तो आम आदमी पार्टी कठुआ से लेकर उन्नाव तक हर मामले पर विधानसभा में चर्चा कर लेती है। यहाँ तक कि राजीव गांधी से भारत रत्न वापस लिया जाए, यह प्रस्ताव भी पास कर दिया जाता है जबकि कानूनी रूप से ऐसा नहीं हो सकता।
दिल्ली विधानसभा में उन्हीं बिलों, प्रस्तावों को, संकल्पों को पास किया जा सकता है जो दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। इसी तरह उन विभागों के अधिकारियों को दिल्ली सरकार तलब नहीं कर सकती जो सब्जेक्ट उसके अधिकार में नहीं हैं।

केंद्र से ठनी

इन दोनों मामलों पर ही दिल्ली सरकार की उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से कई बार ठन चुकी है। इसी टकराव के कारण दिल्ली के एक मुख्य सचिव पर मुख्यमंत्री निवास में हमले का आरोप भी लगा और यह मामला अब तक कोर्ट में चल रहा है। संशोधन विधेयक में इस मामले पर भी स्पष्टता बनाने की कोशिश की जा रही है। नियमों को उसी तरह का बनाया जा रहा है जो संसद में लागू हैं।

अब सवाल यह है कि दिल्ली सरकार इन संशोधनों को लेकर इतनी गुस्से में क्यों है। 

दरअसल, इन सारे बदलावों के बीच केंद्र सरकार यह संशोधन भी करा रही है कि दिल्ली सरकार को सारी फ़ाइलें उपराज्यपाल के पास भेजनी होंगी। 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले इस मुद्दे को लेकर काफी टकराव होता था और यह आरोप लगाया जाता था कि उपराज्यपाल दिल्ली सरकार की अहम फाइलों को महीनों लटकाए रखते हैं।

उन विभागों की फ़ाइलें भी उपराज्यपाल के पास जाती हैं जो दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं। वित्त विभाग की सारी फाइलें भी उपराज्यपाल की मार्फत राष्ट्रपति के पास भेजनी होती हैं। दिल्ली सरकार को यह लगता है कि यह उसके अधिकारों पर कुठाराघात है।

ऐसे हालात क्यों बने?

इस मामले में केंद्र की मंशा पर शक तो होता है लेकिन एक सवाल यह भी पैदा होता है कि आखिर ऐसे हालात क्यों बने हैं। आखिर ऐसे संशोधन अब ही क्यों लाए जा रहे हैं तो लगता है कि इसके लिए आम आदमी पार्टी सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। आप सरकार ने नियमों को हमेशा ही धत्ता बताया है। उन्होंने हमेशा यह माना है कि हमारी सरकार को उतने ही अधिकार हैं जितने यूपी या बिहार सरकार को हैं जबकि संविधान के अनुसार ऐसा नहीं है।

दिल्ली में हाल ही में विधानसभा का बजट अधिवेशन हुआ है और नियमानुसार 15 दिन पहले विधानसभा सेशन की घोषणा होनी चाहिए लेकिन यहाँ सिर्फ 4 दिन पहले यह सूचना दी गई। दिल्ली सरकार ने खुद ही बिलों में एलजी की जगह काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स लिखना शुरू कर दिया।

दिल्ली सरकार ने खुद ही बिलों को केबिनेट की मंजूरी के बाद और विधानसभा में पेश करने से पहले उपराज्यपाल के पास भेजना जरूरी नहीं समझा। दिल्ली सरकार 67 या 62 सीटें जीतने के बाद यह मान बैठी कि उसे सारे अधिकार मिल गए हैं जबकि उसके अधिकार उतने ही हैं जितने 36 सीटें जीतने पर होते।

 अगर संविधान के अनुसार देखा जाए तो दिल्ली में एक ही सरकार है जो केंद्र सरकार है और केंद्र सरकार के नुमाइंदे उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासक हैं। दिल्ली की पिछली सरकारें आपसी समझ और तालमेल से अपनी इस लक्ष्मण रेखा को लांघती रही हैं लेकिन आप सरकार उसे अपना अधिकार मानकर टकराव से चलना चाह रही थी, इसीलिए उसके पर काटने की तैयारी हो रही है।

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दिलबर गोठी

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