'संविधान बदलना चिक्की खाने जैसा आसान'
ताज़ा बयान आया है महाराष्ट्र की नेता और मंत्री पंकजा मुंडे का। पंकजा युवा नेता हैं और बीजेपी के वरिष्ठ नेता स्व. गोपीनाथ मुंडे की बेटी हैं। गोपीनाथ महाराष्ट्र में बीजेपी के बड़े नेता माने जाते थे। प्रमोद महाजन के साथ उनकी अच्छी राजनीतिक जोड़ी थी। राज्य में बीजेपी को स्थापित करने में उनका बड़ा योगदान था। गोपीनाथ मुंडे की मौत के बाद पंकजा को राज्य सरकार में मंत्री बनाया गया। परिवार की वजह से राजनीति उनको घुट्टी में मिली है। हाल ही में पंकजा ने एक रैली में कहा - 'अगर बीजेपी सत्ता में आयी तो संविधान बदल देगी।' महाराष्ट्र की महिला व बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे अपनी बहन प्रीतम मुंडे के लिए बीड संसदीय क्षेत्र में प्रचार कर रही थीं। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान बदला जा सके, इसलिए मजबूत लोगों को संसद में भेजा जाना चाहिए।क्या है संघ का अजेंडा?
तो क्या वाक़ई में बीजेपी संविधान को पूरी तरह से ख़ारिज करना चाहती है? यह सवाल आज की पीढ़ी को अजीब लग सकता है लेकिन सचाई यही है कि बीजेपी की मातृ संस्था आरएसएस को कभी भी भारतीय संविधान में आस्था नहीं रही। आरएसएस शुरू से ही संविधान के ख़िलाफ़ बोलता रहा है। आरएसएस का मानना है कि भारतीय संविधान विदेशी विचारों से प्रभावित है और विदेशी नक़ल पर आधारित है। इसमे भारतीयता का समावेश नहीं है। इसलिये आरएसएस ने भारतीय संविधान के पारित होने के सिर्फ़ तीन दिन बाद यानी 30 नवंबर, 1949 को ही इसे ख़ारिज कर दिया था। आरएसएस ने अपने मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में एक संपादकीय छापा, जिसमें संविधान की जगह ‘मनुस्मृति’ को लागू करने की वकालत की गई थी।“
हमारे संविधान में प्राचीन भारत के संवैधानिक विकास की चर्चा नहीं की गई है। मनु के क़ानून स्पार्टा के लाइकरगस और फ़ारस के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज भी पूरी दुनिया में मनुस्मृति की तारीफ़ की जाती है और लोग अपने आप इसे मानते हैं। पर हमारे संविधान पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।
ऑर्गनाइज़र, 30 नवंबर, 1949
“
हमारा संविधान सिर्फ़ पश्चिमी देशों के अलग-अलग संविधानों से जहाँ-तहाँ से उठाई गई उलझन में डालने वाली और बेमेल चीजों को एक जगह रख कर ही तो तैयार किया गया है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हम अपना कह सकें। क्या इसमें ऐसा एक भी शब्द है जो हमारे राष्ट्रीय मिशन को निर्देशित करने वाले मूलभूत सिद्धांतों की बात करता है या हमारे जीवन के मूल्यों की बात करता है?’
अ बंच ऑफ़ थॉट्स, आरएसएस सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर
“
हमें राष्ट्रवाद की झूठी अवधारणा से ख़ुद को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। यदि हम इस सामान्य तथ्य को स्वीकार कर लें कि हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है और राष्ट्रीय संरचनाएँ सुरक्षित और मजबूत आधारशिला पर बनी हों तो अधिकतर मानसिक उलझनों और मौजूदा व भविष्य की मुसीबतों से बचा जा सकता है। राष्ट्र हिन्दुओं, हिन्दू परंपराओं, संस्कृति, मूल्यों और आकांक्षाओं पर बनना चाहिए।
ऑर्गनाइज़र, 14 अगस्त, 1949
यह कहा जा सकता है कि ये विचार आरएसएस के हैं और बीजेपी के नेताओं को इससे जोड़ना ठीक नहीं। पहली बात, यह समझनी होगी कि दोनों संगठनों में विभेद करना सही नहीं है। बीजेपी और आरएसएस में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही हैं, सिर्फ़ कार्य विभाजन है। बीजेपी नेता करते वही हैं जो आरएसएस चाहता है। दूसरी बात, ऐसा नहीं है कि समय के साथ संघ ने अपने विचार बदल दिये। आरएसएस के प्रमुख सिद्धांतकारों में से एक दीन दयाल उपाध्याय जो आगे चल कर बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ के बड़े नेता बने और जिन्होंने एकात्म मानवतावाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, वह भी भारतीय संविधान के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने 1965 में अपने 'मानवतावाद' के सिद्धांत के आधार पर संविधान में परिवर्तन करने की माँग की थी। यह अलग बात है कि तब जनसंघ बहुत छोटा था और उनकी बात को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गयी।
“
कोई राज्य ‘नि-धर्म’ यानी धर्म से बिल्कुल अलग नहीं हो सकता, न ही यह धर्म से उदासीन यानी धर्मनिरपेक्ष हो सकता है, ठीक वैसे ही जैसे गर्मी के बिना आग नहीं हो सकती। राज्य धर्म राज्य ही हो सकता है और कुछ भी नहीं।
दीन दयाल उपाध्याय, सिद्धांतकार, आरएसएस
दीन दयाल उपाध्याय के इस बयान से साफ़ है कि वह भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ थे। उनके बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने धर्म निरपेक्षता को “छद्म” साबित करने की कोशिश की और एक मुहिम के ज़रिये धर्मनिरपेक्षता को मुसलिम तुष्टीकरण से जोड़ दिया। बीजेपी बार-बार कहती रही है कि कोई धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। वह धर्मनिरपेक्षता को पंथनिरपेक्षता कहती रही है। दीन दयाल उपाध्याय की ही तरह बीजेपी भी धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ है और ऐसे किसी राज्य की कल्पना नहीं करती जो धर्मनिरपेक्ष हो। उपाध्याय कहते हैं कि जो धर्म हमारे जीवन में अंतर्निहित है, उससे मनुष्य निरपेक्ष कैसे हो सकता है। यानी उनकी पूरी सोच संविधान में दी गयी धर्म निरपेक्षता को ही चुनौती देती है। इस बिंदु पर आरएसएस-बीजेपी और भारतीय संविधान एक-दूसरे के सामने खड़े हो जाते हैं।
ऐसे में संघ के विचारक के.एन. गोविंदाचार्य अकारण नहीं कहते, 'हम नया संविधान लिखेंगे जो भारतीयता को दर्शाता हो।' गौर करने वाली बात यह है कि 2006 में दिये गये अपने वक्तव्य में गोविंदाचार्य संविधान संशोधन की बात नहीं करते, वह नया संविधान लिखने की बात करते हैं।
अपनी राय बतायें