आतंक पहले भी कम नहीं था, लेकिन कोरोना वायरस को लेकर जो नया अंदेशा दुनिया भर के वैज्ञानिकों और महामारी विशेषज्ञों को परेशान कर रहा है, वह है ‘सेकेंड वेव’ यानी एक बार कम होने के बाद संक्रमण फिर से बढ़ने की आशंका।
इसकी चर्चा तो काफी समय से थी, लेकिन पिछले दिनों अमेरिका के सबसे बड़े महामारी विशेषज्ञ और अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी एंथनी फॉची ने यह कह कर आशंकाओं को और हवा दे दी कि अमेरिका से कोविड-19 यानी कोरोना की पहली लहर अभी पूरी तरह ख़त्म भी नहीं होगी और इसकी दूसरी लहर आ धमकेगी।
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क्या होता है 'सेकंड वेव'?
महामारी विज्ञान में ‘सेकेंड वेव’ या दूसरी लहर का अर्थ होता है कि एक बार फैली कोई महामारी अपने चरम पर पहुँचने के बाद ख़त्म होती दिखाई देने लगे, इसके बाद अचानक इसमें फिर से उछाल आ जाये और मरीजों की संख्या दुबारा तेजी से बढ़ने लगे। इस लिहाज से देखें तो दुनिया के ज़्यादातर हिस्से अभी पहली लहर की ही चपेट में हैं।यह चिंता इसलिए भी अधिक है कि जिसे हम कोविड-19 की पहली लहर कह रहे हैं, उसने लगभग सभी तैयारियों को मात दे दी है। कोरोना वायरस का संक्रमण जिस तेज़ी से फैला है या फैल रहा है।
उसके आगे लगभग सभी सरकारें और स्वास्थ्य व्यवस्थाएं अभी तक बेबस दिखी हैं। हालांकि कुछ उम्मीदें अब ज़रूर दिखने लगी हैं। कुछ दवाएँ हैं जो इस रोग में काम करती दिख रही हैं और कुछ टीकों पर काम भी अंतिम चरण में पहुँच गया है। ऐसे में ‘सेकंड वेव’ की आशंका और ज़्यादा परेशान करने वाली है।
वायरस में म्यूटेशन?
अभी तक के अध्ययन बताते हैं कि कोरोना वायरस में बहुत ज़्यादा म्यूटेशन नहीं हुआ है, यानी उसके जीन्स में कोई इतना बड़ा बदलाव नहीं हुआ है कि उसका चरित्र या उसका प्रभाव बदल जाए। अगर दूसरी लहर किसी म्यूटेशन के कारण आती है तो परेशानियाँ काफी बड़ी भी हो सकती हैं।यह भी मुमकिन है कि कोरोना वायरस की तबाही की क्षमता बढ़ जाए और यह भी हो सकता है कि अभी तक जो दवाइयाँ और जो टीके प्रभावी दिख रहे हैं, वे नए कोरोना वायरस के सामने बेकार साबित होने लगें।
समस्या इसलिए भी बड़ी है कि यह एक नया वायरस है जिसके बारे में हम अभी बहुत कम जानते हैं।
सेकंड वेव पक्का नहीं
हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि दूसरी लहर आएगी ही, इसे पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारविक के डाॅक्टर माइक टिल्डेस्ले के शब्दों में, ‘यह कोई वैज्ञानिक बात नहीं है, लहर को मनमाने ढंग से परिभाषित कर दिया जाता है।’ कई और वैज्ञानिकों ने भी इसे अवैज्ञानिक अवधारणा कहा है।दरअसल, महामारी की ‘सेकंड वेव’ की पूरी अवधारणा 1918 के स्पैनिश फ्लू के अनुभवों पर आधारित है। उस साल स्पैनिश फ्लू मार्च महीने तक तकरीबन पूरी दुनिया में फैल चुका था और अगले तीन महीनों में इसने बड़ी संख्या में लोगों की जान भी ले ली थी। फिर मई महीने से इसका संक्रमण कम होने की ख़बरें आने लगीं। यह लगा कि अब महामारी विदा हो चुकी है।
तीन महीने में सेकंड वेव?
लेकिन तीन महीने बाद यह फिर अचानक पूरी दुनिया में फैल गया। लॉरा स्पिने ने अपनी किताब ‘पेल राइडर’ में लिखा है कि यह दूसरी लहर दबे पाँव आई और इससे पहले कि लोग समझ पाते इसने पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया। हारवर्ड विश्वविद्यालय के डाॅ. विलियम हंगे के शब्दों में, ‘यह गरजता हुआ वापस आया और इस बार कहीं ज्यादा ख़तरनाक था।’भारत को भी स्पैनिश फ्लू की इसी ‘सेकंड वेब’ ने ही सबसे ज़्यादा परेशान किया। यह वह दौर था जब पहला विश्व युद्ध ख़त्म हो चुका था और सैनिक अपने-अपने देश लौट रहे थे, अपने साथ ही वे इस रोग के वायरस भी ले गए।
संभावना से इनकार नहीं
वैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि अप्रैल के बाद जब गर्मियाँ शुरू हुईं तो स्पैनिश फ्लू का वायरस कुछ निष्क्रिय हो गया था, बाद में जैसे ही गर्मियाँ विदा हुईं तो वह फिर से सक्रिय हो गया। दरअसल ये स्पैनिश फ्लू के ही अनुभव थे, जिनके कारण इस साल के शुरू में यह कहा जा रहा था कि कोरोना वायरस का संक्रमण गर्मियों में कम हो जाएगा।गर्मी के मामले में कोरोना वायरस ने स्पैनिश फ्लू के इतिहास को नहीं दोहराया, लेकिन सिर्फ इसी से ‘सेकंड वेव’ की आशंका खारिज नहीं हो जाती।
यह ठीक है कि जब कोविड-19 के मामले सामने आने शुरू हुए तो उस समय सर्दियां ही थी, लेकिन अभी भी हम ठीक से नहीं जानते कि जब इस साल की सर्दियां शुरू होंगी तो कोरोना वायरस किस तरह बर्ताव करेगा। महामारी विशेषज्ञ इसी को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं।
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