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किसके ‘दबाव’ के कारण करकरे अपना पद छोड़ना चाहते थे?

हेमंत करकरे मालेगाँव ब्लास्ट की जाँच कर रहे थे। वे उस समाज से थे जिसके एक सदस्य विष्णु रामकृष्ण करकरे का गाँधीजी की हत्या में नाम आया था। क्या समाज से किसी दबाव के कारण वे एटीएस में अपना पद छोड़ना चाहते थे?
नीरेंद्र नागर

मुंबई पुलिस के पूर्व कमिशनर जूलियो रिबेरो ने शुक्रवार को कहा कि मालेगाँव धमाके की जाँच कर रहे एटीएस चीफ़ हेमंत करकरे से उनकी मुंबई हमले से एक दिन पहले मुलाक़ात हुई थी जिससे पता चलता था कि उनपर कोई ’अदृश्य’ दबाव था और इस कारण वे बेहद तनाव में थे। रिबेरो के अनुसार करकरे मालेगाँव मामले में राजनीतिक आरोपों के कारण परेशान थे लेकिन उनपर जो ‘अदृश्य’ दबाव पड़ रहा था और जिसके बारे में मीडिया में ज़्यादा चर्चा हुई है, वह राजनीतिक नहीं, सामाजिक था।

यह अदृश्य दबाव दरअसल करकरे पर उनके समाज और रिश्तेदारों की तरफ़ से आ रहा था और इसी कारण उन्होंने मुंबई हमले वाले दिन ही महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर. पाटील से मिलकर अपना पद छोड़ने का प्रस्ताव रखा था।

आपको बता दें कि हेमंत करकरे उस समाज से थे जिसके एक सदस्य विष्णु रामकृष्ण करकरे का गाँधीजी की हत्या में नाम आया था। गाँधीजी की हत्या के प्रयास में 15 साल से भी ज़्यादा की सज़ा काट चुके थे। विष्णु रामकृष्ण करकरे 20 जनवरी 1948 को बिड़ला हाउस में हुए बम धमाके और 30 जनवरी को हुई हत्या के समय वहाँ मौजूद थे और उनको दोनों मामलों में दोषी पाया गया था। अपनी सज़ा पूरी करने के बाद वे 1964 में रिहा हुए। दस वर्ष बाद उनका निधन हो गया।

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हेमंत करकरे पर क्या था दबाव?

समाज के अपने एक सदस्य के गाँधी हत्या से जुड़ाव और उसको उस कारण हुई लंबी सज़ा के कारण हिंदुत्व के प्रति उसमें झुकाव पाया जाता था। इस कारण जब मालेगाँव कांड में हेमंत करकरे के प्रयासों के चलते ही धमाके में इस्तेमाल की गई बाइक की मालकिन के तौर पर साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का नाम उजागर हुआ और उनको गिरफ़्तार कर लिया गया तो करकरे पर उनके समाज की तरफ़ से भारी दबाव पड़ा कि वे इस जाँच से हट जाएँ क्योंकि इससे वह ‘हिंदुत्व’ बदनाम हो रहा था जिसके लिए विष्णु रामकृष्ण करकरे ने जेल में इतनी लंबी सज़ा काटी। हेमंत करकरे एक क़ाबिल अफ़सर थे, कई वर्षों तक रॉ में काम कर चुके थे और कई मुश्किल मामलों को सुलझाने के लिए तारीफ़ें भी पा चुके थे। यही कारण था कि उनको एटीएस का चीफ़ बनाया गया। अब यह तो सभी जानते थे कि प्रफ़ेशनल तौर पर उनपर न उँगली उठाई जा सकती है न ही उनपर कोई दबाव डाला जा सकता है। इसीलिए उनको प्रभावित करने के लिए पर्सनल लेवल पर यह सामाजिक दबाव डाला गया। इसका असर भी हुआ और 26 नवंबर 2008 को मुंबई हमले के दिन वे एक तरह से फ़ैसला भी कर चुके थे कि वे इस जाँच से हट जाएँगे।

उस दिन करकरे मालेगाँव मामले में होने वाली अपनी डेली मीटिंग के बाद बहुत उखड़े हुए मूड में थे। आर्मी के एक अधिकारी ने जब कहा कि उनको इस जाँच से हटने का आदेश दिया गया है और वे जाना चाहते हैं तो वे नाराज़ हो गए कि यदि जाना ही था तो जाँच में शामिल ही क्यों हुए। इसी तरह हरियाणा के एक डीएसपी जो समझौता ब्लास्ट की जाँच से जुड़े थे, उन्होंने भी उनसे मिलने का समय माँगा तो वे उनपर भी बिफर पड़े। बाद में जब हेमंत करकरे की इस खीझ का कारण खोजा गया तो पता चला कि करकरे अपने समाज की तरफ़ से आ रहे दबाव के कारण बहुत परेशान हैं और इसी कारण उस दिन ऐसा व्यवहार कर रहे थे।

उसी दिन दोपहर को करकरे महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर. आर. पाटील से मिले और कहा कि वे उन्हें मालेगाँव जाँच से मुक्ति दें और किसी और को एटीएस का प्रमुख बना दें। लेकिन पाटील ने उनका आग्रह नहीं माना।

पाटील ने कहा कि आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और बिना किसी दबाव में आए अपना काम करते रहें।

यह मुलाकात दोपहर को मंत्रालय में हुई। मुलाक़ात के बाद हेमंत करकरे उसका ब्यौरा पुलिस प्रमुख को देने के लिए पुलिस मुख्यालय पहुँचे। वहीं शाम को उन्हें आतंकी हमले की सूचना मिली। पहले की कुछ खबर भ्रमित करने वाली थी। थोड़ी ही देर मे, जब पूरे हालात सामने आने लगे, तब उन्होंने ख़ुद ही वारदात की जगह जाने की निश्चय किया। यह उनकी बेहतरीन लीडरशिप क्वॉलिटी को दर्शाता है। वे चाहते तो पुलिस मुख्यालय मे रहकर ही हालात पर नज़र रख सकते थे।  हेमंत करकरे अपने अंतिम विडियो मे फ्लाईओवर के नीचे अपना हेलमेट पहनते दिखाई देते हैं। उनके साथ मुंबई पुलिस के रघुवंशी साथ मे खड़े हैं। इसके बाद ही उनपर गोलियाँ चलती हैं और वे शहीद हो जाते हैं।

प्रज्ञा के आरोपों से व्यथित थे

हेमंत करकरे प्रज्ञा को टॉर्चर किए जाने के आरोपों से भी व्यथित थे। यह आरोप आडवाणी जैसे बड़े नेता ने भी लगाया था और इन दिनों प्रज्ञा भी हर जगह वही बात दोहरा रही हैं। प्रज्ञा के अनुसार उनको यातना दी गई और उनको जबरन मीट खिलाया गया। सच्चाई कुछ और है। दरअसल जब एटीएस प्रज्ञा को लेकर मुंबई गई तो उनको एक होटल में ठहराया गया। तब उनके साथ एक सेवादार भी था। प्रज्ञा अपना अधिकतर समय पूजा-पाठ में बिताती थीं और पूछताछ में सहयोग नहीं कर रही थीं। बाद में उनको महिला पुलिस के हवाले कर दिया गया और उनके सेवादार को वापस भेज दिया गया। उनका धार्मिक चोला और साज-सामान भी उनसे छीन लिया गया। इसपर प्रज्ञा ने भूख हड़ताल शुरू कर दी। इसी भूख हड़ताल के दौरान उनको जबरन खाना खिलाया गया।

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आरोप क्यों लगा रही हैं प्रज्ञा?

प्रज्ञा दरअसल एटीएस की पूछताछ में सबकुछ उगल चुकी हैं। उन्होंने ही कहा था कि इसमें पँचमढ़ी में ट्रेनिंग ले रहे एक सैनिक अधिकारी का भी हाथ है। करकरे के सामने उन्होंने कर्नल पुरोहित को पहचाना भी था। अब चूँकि अदालत के सामने उनका सारा कच्चा चिट्ठा है इसलिए वे यातना का आरोप लगा रही हैं ताकि दुनिया को बता सकें कि यह सब उनसे ज़बरदस्ती उगलवाया गया। लेकिन न तो एनआईए अदालत ने उनके इन आरोपों को तवज्जो दी और न ही सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें सच माना। करकरे के ख़िलाफ़ हाल में दिया गया उनका बयान भी उन्हीं के ख़िलाफ़ पड़ गया और उनको उसके लिए माफ़ी माँगनी पड़ी।

अब आगे क्या?

मालेगाँव मामले में प्रज्ञा के ख़िलाफ़ जितने भी सबूत हैं, उन सबको छोड़ भी दिया जाए तो दो कारणों के आधार पर ही उनको सज़ा हो जानी चाहिए। एक, धमाके में जो बाइक इस्तेमाल हुई, वह उनके नाम से रजिस्टर्ड थी। दो, रामचंद्र कलसांगरा जो इस मामले में फ़रार हैं, उनके साथ उनकी टेलीफ़ोन वार्ता जिसमें वे पूछती हैं कि बाइक भीड़भाड़ वाले इलाके में क्यों नहीं लगाई और धमाके में इतने कम लोग क्यों मरे।

प्रज्ञा से ही मिलता-जुलता एक मामला 1993 के मुंबई धमाके में सज़ा काट रही रूबीना मेमन का है। रूबीना को कोर्ट ने केवल इस कारण से सज़ा दी है कि जिस मारुति वैन में हथियार और विस्फोटक ले जाए गए थे, वह उनके नाम पर रजिस्टर्ड थी। समझ में नहीं आता कि जब रूबीना को विस्फोटकों से भरी गाड़ी अपने नाम पर दर्ज़ होने पर सज़ा हो सकती है तो प्रज्ञा के मामले में NIA क्यों कह रही है कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं हैं जबकि यह हर कोई जानता है कि धमाके में इस्तेमाल हुई वह बाइक उन्हीं के नाम से रजिस्टर्ड थी?
प्रज्ञा मालेगाँव मामले में कितनी दोषी हैं और अदालत से उनको सज़ा मिलेगी या नहीं, यह तो NIA द्वारा उनके ख़िलाफ़ पेश सबूतों और गवाहों के आधार पर ही तय होगा। यदि NIA ने समझौता मामले की ही तरह ढील दिखाई तो वे बरी हो सकती हैं।
कल चाहे जो हो लेकिन आज की तारीख़ में सच यही है कि वे मालेगाँव मामले में मुख्य अभियुक्त हैं और स्वास्थ्य के आधार पर ज़मानत पर छूटी हुई हैं। बीमारी की हालत में ज़मानत पर रहते हुए उनके चुनाव लड़ने का मामला NIA अदालत के सामने है और वह सोमवार, 22 अप्रैल को उसपर सुनवाई कर रहा है। चुनाव आयोग के सामने भी उनकी उम्मीदवारी के ख़िलाफ़ एक याचिका पेश की गई है।
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