सरकार ने नये कृषि क़ानूनों पर डेढ़ साल तक स्थगन यानी रोक लगाने का प्रस्ताव तो दे दिया है, लेकिन वह ऐसा करेगी कैसे? क्या संविधान में कहीं ऐसा कोई प्रावधान है कि सरकार किसी क़ानून को रोक दे या रद्द कर दे? यदि सरकार ऐसा कराना चाहे तो वह ऐसा कैसे करा सकती है? विशेषज्ञ क्या कहते हैं यह जानने से पहले यह जानिए कि आख़िर क्या है पूरा मामला और क्या है प्रावधान-
सरकार ने घोषणा की है कि वह नये कृषि क़ानूनों पर किसानों की चिंताओं का समाधान करने और इस पर सहमति बनाने के लिए 18 महीने तक इन क़ानूनों पर रोक लगाने के लिए तैयार है। अब इस पर स्थिति यह है कि संसद ने पिछले साल सितंबर में क़ानून पास किए थे। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इनको मंजूरी दी थी और इसके बाद इनका गजट नोटिफिकेशन 27 सितंबर को प्रकाशित किया गया था। इसके बाद यह क़ानून बन चुका है।
संविधान के जानकारों का कहना है कि अब इस क़ानून के साथ तीन स्थिति है। पहली तो यह है कि यह क़ानून जैसा है वैसे ही लागू कराया जाए, जो किसानों को मंजूर नहीं है। कुछ संशोधन किया जाए। यह भी उन्हें स्वीकार नहीं। इसे रद्द किया जाए जो सरकार चाहती नहीं। लेकिन जो सरकार चाहती है वह है इसपर कुछ समय के लिए रोक। लेकिन संविधान में स्थगन का कोई प्रावधान नहीं है। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ऐसा कर सकता है।
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने 12 जनवरी को एक बेहद महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए तीनों कृषि क़ानूनों पर रोक लगा दी है। अगले आदेश जारी होने तक यह रोक लगी रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी भी बनाई है।
कृषि क़ानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी आठ हफ़्ते में अपनी सिफारिशें देगी। यानी आठ हफ़्ते तक ही सुप्रीम कोर्ट की रोक (स्टे) रहेगी।
'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा, 'केवल सुप्रीम कोर्ट के पास क़ानून को रोकने की शक्ति है, सरकार के पास नहीं। यदि सरकार किसी अधिसूचना को वापस लेकर संसद के अधिनियम को पूर्ववत कर सकती है तो संसद से क़ानून पास होने का क्या मतलब है।'
अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा, 'सरकार से क़ानून की अधिसूचना पहले ही जारी हो जाने के बाद, एक और अधिसूचना जारी कर उसे रद्द किया जा सकता है। इसके लिए सिर्फ़ एक कार्यकारी आदेश की ज़रूरत है, इसे संसद में जाने की ज़रूरत नहीं है।'
हालाँकि, पीडीटी आचार्य इससे सहमत नहीं हैं। वह कहते हैं, 'मेरे विचार से क़ानून पर सरकार द्वारा रोक नहीं लगाई जा सकती है। एक बार जब संसद से क़ानून पास हो गया... सरकार का काम सिर्फ़ उसे लागू कराना है और यह क़ानून का गला नहीं घोंट सकती है।' 'द इंडियन एक्सप्रेस' से बातचीत में लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप भी कहते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने अभी तक ऐसी कभी स्थिति नहीं देखी है जिसमें क़ानून बनाने के बाद सरकार ही उस पर रोक लगवाना चाहती हो। उन्होंने कहा, 'विधेयक वापस लिए गए हैं। अधिसूचना नहीं जारी कर क़ानून को लागू करने में देरी की गई है। और क़ानून को रद्द किया गया है। लेकिन विधायी प्रक्रिया पूरा किए जाने के बाद उस पर रोक लगाई गई हो, ऐसा कभी नहीं हुआ है।'
जानकारों के अनुसार, सरकार एक क़ानून पर रोक नहीं लगा सकती है, लेकिन नियमों को अधिसूचित करने से पहले इसके कार्यान्वयन में देरी कर सकती है।
ऐसा कई मामलों में हो चुका है। दिसंबर 2019 में दोनों सदनों द्वारा पास किए गए नागरिकता संशोधन अधिनियम, जनवरी 2020 में आधिकारिक गजट में अधिसूचित किया गया था। संसदीय प्रक्रिया के तहत क़ानून के नियमों को गजट नोटिफिकेश की तारीख़ से छह महीने के भीतर अधिसूचित किया जाना होता है। हालाँकि, सरकार द्वारा क़ानून लागू करने के नियमों को अधिसूचित किया जाना बाक़ी है। अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, बेनामी लेनदेन (निषेध) अधिनियम, 1988 को 2016 में नियमों को अधिसूचित किए जाने तक लगभग 28 वर्षों तक लागू नहीं किया गया था।
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