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फाँसी के पहले क्या बीतती है दोषियों पर, अफ़ज़ल गुरु, रंगा-बिल्ला ने क्या किया था?

फाँसी दिए जाने के पहले क्या बीतती है उन लोगों पर जिन्हें म़त्युदंड दिया जाता है? वे कैसा व्यवहार करते हैं? अफ़ज़ल गुरु और रंगा-बिल्ला ने क्या किया था, कैसा बर्ताव किया था? क्या वे संयत थे? क्या वे बदहवास थे? क्या उन्होंने सामान्य रूप से खाया-पीया? 
निर्भया बलात्कार व हत्याकांड के चारों दोषियों को म़त्युदंड की सज़ा देने के बाद हाई प्रोफ़ाइल गुनहगार अफ़ज़ल गुरु की फाँसी की याद आना स्वाभाविक है। गुरु को संसद पर हमले में शामिल होने का दोषी पाया गया था और उसे तिहाड़ जेल में फाँसी की सज़ा दी गई थी। 

कोबाड गाँधी ने क्या कहा था अफ़ज़ल के बारे में?

पत्रकार सुनेत्रा चौधरी ने जेल व्यवस्था पर एक बहुत ही मशहूर किताब लिखी, 'बिहाइंड बार्स : प्रिज़न टेल्स ऑफ़ इंडियाज़ मोस्ट फेमस'। इस पुस्तक में तिहाड़ जेल के 13  मशहूर क़ैदियों के बारे में लिखा गया है। मशहूर माओवादी कोबाड गाँधी तिहाड़ में उसी समय थे, जब अफ़ज़ल गुरु को वहाँ ले जाया गया था। कोबाड गाँधी ने अफ़ज़ल के साथ बिताए कुछ क्षणों को साझा किया, जिससे गुरु के बारे में पता चलता है। इसके साथ ही यह भी मालूम होता है कि फाँसी की सज़ा पाया व्यक्ति कैसा महसूस करता है, उस पर क्या बीतती है और अफ़ज़ल कैसा था। 
कोबाड गाँधी के अनुसार, अफ़ज़ल गुरु को मशहूर रहस्यवादी कवि रूमी बेहद पसंद थे, वह जेल में अपने अंतिम दिनों में उनकी कविताएं पढ़ा करता था और उस पर बातें भी किया करता था।
अफ़ज़ल के पास रूमी की कविताओं की किताब के 6 वॉल्यूम थे। वह सुबह की चाय के साथ रूमी पर बातें करता था और कोबाड इससे काफी प्रभावित थे। उनका मानना था कि अफ़ज़ल गुरु को उर्दू साहित्य की अच्छी समझ थी। 

अफ़ज़ल का अंतिम दिन!

कोबाड गाँधी ने बताया कि 9 फरवरी की सुबह तिहाड़ जेल में बंद दूसरे कश्मीरी क़ैदियों ने फांसी की सज़ा के ख़िलाफ़ ज़ोरदार नारेबाजी की। वह प्रदर्शन इतना उग्र हो गया कि जेल में तैनात लॉ ऑफ़ीसर को वहां जाकर हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने क़ैदियों को समझाया कि वे नियम से बँधे हुए हैं और आदेशों का महज पालन कर रहे हैं। 
उस दिन सुबह जेल अधिकारी अफ़ज़ल की कोठरी में गए और तलाशी ली। कोबाड गाँधी को लगा कि यह रूटीन चेक है और यूं ही कोठरी की तलाशी ली जा रही है। उन्हें लगा कि सुबह की नमाज़ पढ़ने के बाद अफ़ज़ल लौट आएगा। 
गाँधी के मुताबिक़, अफ़ज़ल गुरु को बताया गया कि उसे फाँसी दी जानी है तो वह बिल्कुल भी नर्वस नहीं हुआ। तिहाड़ जेल के तत्कालीन महानिदेशक बी. के. गुप्ता ने भी बाद में इसकी पुष्टि की थी।

क्या कहा था अफ़ज़ल ने?

गुप्ता ने बतया था कि जेल के अधिकारी फाँसी देने की पूरी तैयारी नहीं कर पाए थे। वे कोई जल्लाद नहीं ढूंढ पाए, इसलिए जेल के एक कर्मचारी को यह ज़िम्मेदारी दी गई। 
जेल में तैनात लॉ ऑफ़ीसर सुनील गुप्ता ने बाद में कहा कि उन्होंने अफ़ज़ल से माफ़ी माँगी। अफ़ज़ल ने कहा, 'मैं जानता हूं कि आपके मन में मेरे प्रति दया है। लोग मुझे आतंकवादी समझते हैं, पर मैं एक्टिविस्ट हूं और हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों के लिए काम करता हूँ।

अफ़ज़ल की अंतिम इच्छा

अफ़ज़ल गुरु ने सुनील गुप्ता से गुजारिश की कि उसे मौत जल्दी हो जाए। गुप्ता ने उसे आश्वस्त किया कि उसे बहुत अधिक कष्ट नहीं होगा। 

अफ़ज़ल गुरु ने जेल अधिकारियों से कहा कि वह अंतिम बार अपने घर के लोगों से फ़ोन पर बात करना चाहता है। पर उसकी यह इच्छा पूरी नहीं की गई। 

अफ़ज़ल ने नहाया, नमाज़ पढ़ी, चाय पी और बिस्कुट खाया। वह जेल कर्मचारियों से मिला, उनसे बात की, उनके गले लगा। अफ़ज़ल ख़ुद चल कर फाँसी की जगह तक गया।

खालिस्तानी आतंकवादी

कोबाड गाँधी और अफ़ज़ल गुरु के अलावा दो खालिस्तानी आतंकवादी वहाँ थे, जिनमें से एक भुल्लर को फाँसी की सज़ा सुनाई जा चुकी थी। कोबाड गाँधी ने खालिस्तानी आतंकवादियों के बारे में बताया कि वे अपने रास्ते से भटक गए थे और कट्टरपंथी रवैया अपनाते थे। वे सिख पंथ के मूल उद्येश्यों से हट चुके थे और भिंडरावाले के अंध भक्त थे। गुरु नानक देव के बताए रास्ते से वे दूर हो चुके थे। ये खालिस्तानी आतंकवादी पाकिस्तान से नशीली दवाओं की तस्करी जैसे काम में लिप्त हो चुके थे। 

रंगा-बिल्ला को फाँसी

कुलजीत सिंह उर्फ़ रंगा और जसबीर सिंह उर्फ़ बिल्ला को 31 जनवरी 1982 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया था। वे 26 अगस्त, 1982, को गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा के अपहरण, हत्या और गीता के बलात्कार के दोषी पाए गए थे। 

पत्रकार प्रकाश पात्र ने बाद में उनके बारे में लिखा। उन्होंने 'द टेलीग्राफ़' में अपना अनुभव साझा करते हुए एक लेख लिखा है। वह लिखते हैं कि उस समय नेशनल हेरल्ड के क्राइम रिपोर्टर थे और उन्होंने जेल में फांसी से पहले इन दोषियों से मुलाक़ात की थी। पात्र उसे याद करते हुए लिखते हैं कि ग्रिल के उस पार खड़े जसबीर सिंह उर्फ़ बिल्ला को उन्होंने नज़दीक से देखा था।
दोनों दोषियों से कह दिया गया था कि उन्हें फाँसी दी जाने वाली है। रंगा धार्मिक प्रवृत्ति का हो चुका था। उसने जेल अधिकारियों को उन चीजों की सूची दी, जो उसने कहा था कि उसके परिजनों तक पहुँचा दी जानी चाहिए। 
प्रकाश पात्र लिखते हैं, 'बिल्ला थरथर काँप रहा था। उसकी आवाज़ साफ़ थी, पर वह बहुत ही धीमी थी। उसने बार-बार कहा कि वह निर्दोष है और रब ही जानता है कि जिस हत्या के लिए उसे फाँसी दी जा रही है, उसने नहीं की है।'
निर्भया के दोषियों ने फांसी के पहले स्नान करने और चाय पीने से इनकार कर दिया। वे काफी नर्वस थे और उनमें से एक बुरी तरह रोने लगा था। उन्होंने पिछली रात में खाना भी नहीं खाया था।
लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि मृत्युदंड देने से क्या अपराध कम हो जाएंगे? क्या मृत्युदंड सचमुच 'डेटेरेंट' का काम करता है, यानी लोगों को अपराध करने से रोकता है? इन सवालों के जवाब पर समाज दो गुटों में बंटा हुआ है। कुछ लोग मृत्युदंड को सही मानते हैं तो कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि यह किसी समस्या का समाधान नहीं है। यह बस क़बीलाई मानसिकता का प्रतीक है कि मौत के बदले मौत होनी चाहिए। यह सुधार नहीं बदला लेने के सिद्धान्त पर टिका हुआ है।
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प्रमोद मल्लिक

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