क्या रफ़ाल सौदे में फ्रांसीसी कंपनी दसॉ को फ़ायदा पहुँचाने के लिए ही नियम क़ानून में बदलाव कर यह व्यवस्था की गई थी कि वह अपने ऑफ़सेट पार्टनर के बारे में उसी समय बताने के लिए बाध्य नहीं है? क्या इसक़ी वजह यह थी कि दसॉ पर यह दबाव था कि वह किसी एक ख़ास भारतीय कंपनी को ऑफ़सेट पार्टनर बनाए? क्या इसका मक़सद उस भारतीय ऑफ़सेट पार्टनर को ग़लत तरीके से फ़ायदा पहुँचाना था?
सीएजी की रिपोर्ट
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी ने संसद में बीते दिनों पेश अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सितंबर 2016 में होने वाले सौदे के पहले इस क़ानून में परिवर्तन किया गया था। सीएजी ने कहा है कि सरकार ने अप्रैल 2016 में नियम बदले और सितंबर 2016 में दसॉ के साथ क़रार पर दस्तख़त किए गए। इस बदलाव में यह व्यवस्था की गई कि फ्रांसीसी कंपनी क़रार पर दस्तख़त के समय ऑफ़सेट पार्टनर का नाम बताने को बाध्य नहीं है।
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इसके पहले तक यह नियम था कि टेक्निकल ऑफ़सेट इ़वैल्यूएशन कमिटी ऑफ़सेट पार्टनर का अध्ययन करेगी, उसे दिशा निर्देश देगी और उसका पालन करवाएगी। पर यह तो तब होता जब क़रार के समय ही विदेशी वेंडर उस ऑफ़सेट पार्टनर का नाम बता दे।
नियम में बदलाव
यह भी प्रावधान था कि अंतिम क़रार के पहले ही ऑफ़सेट पार्टनर का विस्तृत ब्योरा उस इवैल्यूएशन कमिटी के दो दिया जाएगा। वह कमिटी 4-8 हफ़्ते के अंदर अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट सौंपेगी और उसके बाद ही क़रार पर अंतिम बात होगी। लेकिन 2015 के अंत में इसमें बदलाव किया गया, जिसे 1 अप्रैल 2016 से लागू माना गया। इसके पैरा 8.2 में कहा गया है,यदि वेंडर टेक्निकल ऑफ़सेट इवैल्यूएशन कमिटी के सामने ऑफ़सेट पार्टर की जानकारी नहीं दे सकता है तो वह ऑफ़सेट क्रेडिट का दावा करते समय डिफेन्स ऑफ़सेट मैनजमेंट विंग को दे सकता है या जबसे ऑफसेट के तहत काम शुरू होगा, उसके एक साल पहले वह ये जानकारी दे सकता है।
यानी, यदि वेंडर चाहे तो क़रार के समय ऑफ़सेट पार्टनर की जानकारी, उसका ब्योरा न दे। इसका मतलब यह हुआ कि इवैल्यूएशन कमिटी को जो अध्ययन कर क़रार से पहले रिपोर्ट देनी है, वह भी नहीं होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि ऑफ़सेट पार्टनर की योग्यता, उसकी क्षमता पर क़रार से पहले कोई बात ही नहीं हुई, यहां तक कि उसके बारे में किसी को कुछ पता ही नहीं था।
रिलायंस पर विवाद
रफ़ाल रक्षा सौदे में पहले ऑफ़सेट पार्टनर के रूप में रिलायंस का नाम नहीं था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रांस गए थे, उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलां से मुलाक़ात की थी, उसके बाद ही इस सौदे में बदलाव हुए थे, उसके बहुत बाद दसू ने रिलायंस का नाम लिया था।यह भी महत्वपूर्ण है कि फ्रास्वां ओलां ने पद से हटने के बाद कहा था कि फ्रांसीसी कंपनी रिलायंस को ऑफ़सेट पार्टनर चुनने के लिए मजबूर थी क्योंकि उन्हें यह कहा गया था कि उन्होंने रिलायंस को पार्टर नहीं चुना तो शायद फ्रांसीसी कंपनी को यह ठेका न मिले। भारत सरकार ने इससे इनकार किया है।
अनुभव नही, प्रौद्योगिकी नही
रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड की स्थापना 28 मार्च 2015 को हुई, यानी रफ़ाल सौदे से दो हफ़्ते पहले। इसके बाद 24 अप्रैल 2015 को रिलायंस एअरोस्ट्रक्चर की स्थापना हुई, इस कंपनी में 99.98 प्रतिशत हिस्सेदारी रिलायंस डिफेन्स की है। अक्टूबर 2016 में दसॉ ने रिलायंस एअरोस्ट्रक्चर के साथ साझा कंपनी रिलायंस एअरोस्पेस बनाई। फरवरी 2017 में इसे रजिस्टर्ड किया गया और इसका नाम बदल कर दसॉ रिलायंस एअरोस्पेस लिमिटेड कर दिया गया।ऑफ़सेट पार्टनर के रूप में रिलायंस के नाम का एलान हुआ तो लोगों को ताज्जुब हुआ था कि क्योंकि उस क़रार के कुछ दिन पहले ही उस कंपनी का गठन किया गया था, उसके पास इस तरह के काम का कोई अनुभव नहीं था, उसके पास तकनीकी कौशल यहां तक कि कंपनी का सुगठित ढाँचा तक नहीं था।
हिन्दुस्तान एअरोनॉटिक्स क्यों नहीं
ऐसी कंपनी को भला कैसे 30 हज़ार करोड़ रुपए का ठेका मिल गया, इस पर सवाल उठे थे। सवाल इस पर भी उठे थे कि कांग्रेस पार्टी के समय जिस क़रार पर बात हो रही थी, उसमें सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एअरोनॉटिक्स लिमिटेड को ऑफ़सेट पार्टनर बनाए जाने की बात थी। इस कंपनी ने भारत में कई तरह के जहाज और दूसरे उपकरण बनाए थे, उसके पास तकनीकी जानकारी थी, काम का अनुभव था। फिर क्या हो गया?सीएजी ने इसी रिपोर्ट में बीते दिनों जब यह कहा कि ऑफ़सेट पार्टनर ने भारत में कामकाज शुरू करने में अब तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है तो लोगों का ध्यान इस ओर गया।
सीएजी ने क्या कहा?
सीएजी ने इसको थोड़ा और आगे बढ़ाते हुए कहा है, '36 मीडियम मल्टी रोल कंबैट एअरक्राफ़्ट के सौदे में वेंडर दसॉ एविएशन और एमबीडीए ने सितंबर 2015 में ही कहा था कि वे कुल कऱार की रकम का 30 प्रतिशत भारत में निवेश करेंगे और इसका इस्तेमाल प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में करेंगे।'ताज़ा हाल यह है कि इस साल ऑफ़सेट पार्टनर को निवेश करना था, उसने नहीं किया। ऑफ़सेट पार्टनर रिलांयस डिफेन्स प्रौद्योगिकी और निवेश की स्थिति में है यहा नहीं, किसी को नहीं पता। सरकार चुप है, दसॉ चुप है। रफ़ाल सौदे पर हल्ला मचाने वाला विपक्ष चुप है। ऐसे में यह सवाल तो उठता है कि क़रार के पहले ही नियमों में छूट देकर विदेशी वेंडर की राह आसान की गई ताकि वह बाद में इस पर हीला हवाला करता रहे।
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