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अकेला मामला जिसमें महामारी के कीटाणु का इस्तेमाल हथियार की तरह हुआ

ट्रेन कोई भी हो हावड़ा जंक्शन के प्लेटफार्म पर भीड़ कभी कम नहीं होती। 26 नवंबर 1933 की दोपहर जब अमरेंद्र पांडेय पाकुड़ के लिए ट्रेन पकड़ने पहुँचा तो उसे उसका सौतेला भाई बिनोयेंद्र चंद्र पांडेय भी वहीं टहलता नज़र आया। 

यह बात अजीब इसलिए थी कि एक दिन पहले जब अमरेंद्र कोलकाता के एक थियेटर में किसी से मिलने गया था तो वहाँ भी बिनोयेंद्र नजर आया था। पाकुड़ के जमींदार उनके पिता गुजर चुके थे और दोनों भाई उनकी संपत्ति के वारिस थे। संपत्ति में अपना हिस्सा पाने के लिए अमरेंद्र अदालत का दरवाजा भी खटखटा चुका था। 

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बात सिर्फ इस संपत्ति की ही नहीं थी, देवघर में रहने वाली उनकी चाची रानी सूरजबती की कोई  संतान नहीं थी और उनका वारिस भी इन दोनों ही भाइयों को बनना था। अमरेंद्र के साथ उसकी बहन बनोबाला थी और कुछ दोस्त भी जो उन दोनों को छोड़ने के लिए आए थे। उन्हें डर लगा कि कहीं बिनोयेंद्र किसी ग़लत इरादे से पीछा तो नहीं कर रहा। उनका डर सही था, लेकिन यह बात बहुत बाद में पता पड़ सकी।

इसी बीच एक अजीब सी घटना हुई। अचानक भीड़ में से मुंह पर काली कमली लपेटे एक आदमी आया और जब तक कोई समझ पाता वह अमरेंद्र की कोहनी से उपर बाँह में कोई सुई जैसी चीज़ चुभो के भीड़ में ही गायब हो गया।

अमरेंद्र ने आस्तीन उपर चढ़ाकर देखा तो सुई चुभने का निशान था, उसमें से पनीला सा एक द्रव निकल रहा था, जिसके निशान उसके कुर्ते पर पड़ गए थे। सब डर गए। अमरेंद्र से कहा गया कि वह यात्रा टाल दे और डाॅक्टर के पास चले। अमरेंद्र को लगा कि समस्या बहुत बड़ी नहीं है इसलिए पाकुड़ जाकर ही डाॅक्टर को दिखाना ठीक रहेगा, वर्ना वहाँ जो ज़रूरी काम है वह भी रह जाएगा। 

लेकिन पाकुड़ पहुँचते-पहुँचते अमरेंद्र की तबीयत अचानक बिगड़ने लगी। वहाँ डाॅक्टरों ने अपनी तरह से कोशिश की लेकिन जब बात नहीं बनी तो उसे कोलकाता (उस समय का कलकत्ता) भेज दिया गया। तब तक अमरेंद्र का शरीर 105 डिग्री के बुखार में तपने लगा था और जिस बाँह में कुछ चुभा था वह पूरी तरह सूज गई थी।
कोलकाता में जब प्रसिद्ध चिकित्सक डाॅ. नलिनी रंजन सेनगुप्ता ने बुखार के लक्षणों को देखा तो उन्हें एकबारगी झटका लगा। आगे खून की जाँच हुई तो साफ हो गया कि यह प्लेग है।

कोलकाता कैसे पहुँचा प्लेग?

प्लेग के एक मरीज का पता लगना उस समय पूरे कोलकाता के लिए बड़ी खबर थी। तब तक प्लेग मुंबई समेत देश के कई हिस्सों में तो मौजूद था, लेकिन कोलकाता उससे पूरी तरह मुक्त हो चुका था। फिर अचानक ही प्लेग की वापसी और वह भी एक जमींदार परिवार के लड़के में उसके कीटाणु का पाया जाना स्थानीय अख़बारों के लिए चर्चा का एक बड़ा विषय बन गया। 

डाॅक्टरों ने अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश की, लेकिन वे अमरेंद्र को नहीं बचा सके। 3 दिसंबर को अमरेंद्र का निधन हो गया। प्लेग से मृत्यु को प्राकृतिक मौत माना जाता है इसलिए पोस्टमार्टम का सवाल ही नहीं था। जल्द ही अंतिम क्रिया भी कर दी गई। 

हत्या का मामला दर्ज

लेकिन अमरेंद्र के दोस्तों और परिवार के कुछ सदस्यों को लगा कि बात इतनी सरल नहीं है। उन्होंने थाने में जाकर हत्या का मामला दर्ज कराने का फ़ैसला किया। यह केस पहले से ही चर्चा में था और बंगाल के एक अमीर परिवार से जुड़ा हुआ था, इसलिए पुलिस पर भी जाँच का दबाव बन गया। जाँच शुरू हुई तो रहस्य की पर्तें एक-एक करके खुलने लगीं।
देश का वह पहला, और शायद अभी तक एकमात्र, ऐसा मामला सामने आया जिसमें महामारी के कीटाणु का इस्तेमाल हथियार के रूप में किया गया। इस पाकुड़ हत्याकांड की गिनती दुनिया के चुनिंदा बाॅयोक्राइम में होती है।

टिटेनस से हत्या की कोशिश?

जाँच में यह भी पता पड़ा कि इससे पहले एक बार जब अमरेंद्र देवघर में था तो बिनोयेंद्र ने उसकी हत्या टिटेनस से करने की कोशिश की थी। तब अमरेंद्र की तबीयत बिगड़ने पर बिनोयेंद्र से कहा गया कि वह कोलकाता से फैमली डाॅक्टर को लेकर आए।
लेकिन उसके बजाए वह अपने साथ डाॅक्टर तारानाथ भट्टाचार्य को लेकर गया, हालांकि तब तक स्थानीय डाॅक्टरों ने अमरेंद्र को बचा लिया था।

हत्या का षडयंत्र

बिनोयेंद्र का यह दोस्त तारानाथ इस पूरे षड़यंत्र का एक अहम हिस्सा था। तारानाथ अपने नाम के आगे डाॅक्टर लगाता था और खुद को बैक्टीरियोलाॅजिस्ट कहता था, जबकि हकीक़त में उसके पास ऐसी कोई डिग्री नहीं थी, वह महज एक दवा कंपनी में लैब असिस्टेंट का काम करता था। 

अमरेंद्र की हत्या की योजना बिनोयेंद्र ने उसी दिन बनानी शुरू कर दी थी जब उसने संपत्ति में अपना हिस्सा पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। वह इस काम को इस तरह अंजाम देना चाहता था कि हत्या की गई है, यह किसी तरह से लगे ही न। पहले टिटेनस और फिर प्लेग से हत्या का आईडिया उसे तारानाथ से मिला। 

प्लेग कीटाणु हासिल करने की साजिश

कोलकाता से प्लेग का सफ़ाया हो चुका था और तारानाथ को यह पता था कि इसका कीटाणु मुंबई की हाॅफ़किन्स इंस्टीट्यूट से ही मिल सकता है। उसने हाॅफ़किन्स इंस्टीट्यूट को इसके लिए चिट्ठी लिखी कि एक दवा पर शोध के लिए उसे प्लेग के कीटाणु की ज़रूरत है।
वहाँ से जवाब आया कि यह उसी सूरत में मिल सकता जब इसके लिए कोलकाता के सर्जन जर्नल सिफारिश करें। बिनोयेंद्र तारानाथ के लैटरहैड पर उसकी एक चिट्ठी लेकर मुंबई चला गया, लेकिन उसकी तमाम कोशिशों के बाद हाॅफ़किन्स इंस्टीट्यूट के लोग टस से मस नहीं हुए। 

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कैसे मिले कीटाणु?

अगली बार बिनोयेंद्र और तारानाथ दोनों पूरी तैयारी से मुंबई पहुँचे और सी-व्यू होटल में ठहरे। उनकी कोशिश थी कि अगर घूस भी देनी पड़े तो भी उससे कीटाणु हासिल कर लिए जाएँ।
लेकिन हाॅफ़किन्स इंस्टीट्यूट में उनकी दाल तो नहीं गली, हाँ यह जानकारी ज़रूर मिल गई कि कीटाणु आर्थर रोड के अस्पताल से मिल सकता है। वहाँ भी प्लेग पर शोध चल रहा था और प्लेग के दिनों में इस अस्पताल को बॉम्बे प्लेग हाॅस्पिटल का नाम दे दिया गया था।
थोड़ी कोशिशों के बाद इस अस्पताल में पैसे ने कमाल दिखा दिया और सात जुलाई को तारानाथ को प्लेग कीटाणु की छह वाइल मिल गईं।

चूहे पर प्रयोग

लेकिन मुंबई छोड़ने से पहले आश्वस्त होना ज़रूरी था कि जिसके लिए पैसे खर्च किए गए हैं वह प्लेग का असल कीटाणु ही है। इसके लिए एक सफेद चूहे को खरीदा गया, तारानाथ ने पिंजड़े में बंद इस चूहे को प्लेग कीटाणु का इंजैक्शन लगाया।
कुछ ही दिन में जब चूहे की प्लेग से मौत हो गई तो कोई शक नहीं रह गया था और दोनों कोलकाता के लिए रवाना हो गए। हालांकि वहाँ पहुँच कर उपयुक्त मौके लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। 

कोलकाता पुलिस ने हाॅफ़किन्स इंस्टीट्यूट को लिखी गई तारानाथ की चिट्ठियाँ और होटल में उनके ठहरने वगैरह के पूरे ब्योरे हासिल किए तो कोई शक ही नहीं बचा।
मुक़दमा चला तो निचली अदालत ने दोनों को मृत्युदंड दिया, जिसे ऊपरी अदालत ने आजीवन कारावास में बदल कर दोनों को कालेपानी के लिए अंडमान भेजने का फ़ैसला सुनाया।

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हरजिंदर

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