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फ़ाइल फ़ोटो

रेप केस: सरकार के फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के दावे हैं तो लंबित मामले 353% तक कैसे बढ़े?

ऐसी रिपोर्टें रही हैं कि किसी अपराध के मामले में जितनी जल्दी न्याय मिलता है उतनी ही अपराध की वारदातें कम होती हैं। लेकिन रेप के मामलों में हाल के जो आँकड़े आए हैं वे बेहद निराश करने वाले हैं। अदालतों में रेप से जुड़े लंबित मामलों की संख्या 2018 के बाद बेतहाशा बढ़ी है। एक राज्य में तो 353 फ़ीसदी तक। यानी रेप के मामलों के निपटारे में देरी हुई है। यह तब है जब अदालतों ने ज़बरदस्त संवेदनशीलता दिखाई है और वे इस पर सख्त निर्देश देती रही हैं। और यह तब है जब क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद बार-बार कहते रहे हैं कि ऐसे मामलों का निपटारा त्वरित रूप से होना चाहिए। जब 2012 में निर्भया कांड हुआ था तब भी इस पर ज़ोर-शोर से आवाज़ उठी थी और 2019 में जब हैदराबाद में डॉक्टर व उन्नाव की रेप पीड़िता को ज़िंदा जलाया गया तब भी। ऐसे मामलों में तुरंत फाँसी देने के लिए उबल पड़ने वाले देश में ऐसी हालत क्यों है कि रेप से जुड़े लंबित मामलों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है?

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रेप के लंबित मामलों के जो आँकड़े आए हैं वे पूरी व्यवस्था को सचेत करने वाले हैं। केंद्रीय क़ानून मंत्रालय ने देश भर की अलग-अलग अदालतों में लंबित रेप मामलों के आँकड़े जुटाए हैं। इन मामलों में यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा क़ानून यानी पॉक्सो के तहत बच्चों के ख़िलाफ़ हुए यौन उत्पीड़न के मामले भी शामिल हैं। मार्च 2018 से दिसंबर 2019 तक देश भर में ऐसे लंबित मामलों की संख्या 77000 यानी क़रीब 46 फ़ीसदी बढ़ गई है। पहले जहाँ ऐसे लंबित मामले क़रीब 1 लाख 66 हज़ार थे, वे अब बढ़कर 2 लाख 44 हज़ार से ज़्यादा हो गए हैं। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की रिपोर्ट के अनुसार, सबसे ज़्यादा बढ़ोतरी उत्तर प्रदेश में हुई है और यह 36000 से 67000 पर पहुँच गई है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ऐसे लंबित मामलों में 80 फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है जबकि दिल्ली में 353 फ़ीसदी। 

इसका साफ़ मतलब यह है कि रेप के ख़िलाफ़ बने क़ानून और पॉक्सो केसों की सुनवाई में तेज़ी लाने में विफल रहे हैं। नियम के अनुसार तो पॉक्सो के तहत एफ़आईआर दर्ज होने के दो महीने के अंदर जाँच पूरी होनी चाहिए और छह महीने में ट्रायल भी। हालाँकि क़ानून मंत्रालय ने जो आँकड़े जुटाए हैं इसमें यह नहीं बताया गया है कि ये मामले कब से लंबित हैं।

भले ही यह नहीं बताया गया है कि ये मामले कब से लंबित हैं, लेकिन इन मामलों में सरकार का जिस तरह का रवैया रहा है वह उत्साहजनक नहीं है। हाल ही में हैदराबाद में एक डॉक्टर और उन्नाव में बलात्कार पीड़िता को ज़िंदा जलाए जाने की वारदात के बाद क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि ऐसे मामलों की जाँच दो महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए और इस बारे में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखा जाएगा। लेकिन इस मामले में सरकार ने क्या किया, यह साफ़ नहीं है। 

हक़ीक़त यह है कि 2018 में क़ानून में संशोधन के माध्यम से पहले ही यह प्रावधान किया जा चुका है कि बलात्कार की घटनाओं की जाँच का काम दो महीने के भीतर पूरा करना होगा। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? और यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो फिर गड़बड़ी कहाँ है?

अक्सर अदालतों में जजों के पद बढ़ाए जाने और फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जाता रहा है। लेकिन इसके साथ ही कई और काम किए जाने की ज़रूरत है। जब देश में ऐसे अपराधों की जाँच के लिए पर्याप्त संख्या में फ़ॉरेंसिक साइंस की प्रयोगशालाएँ और पर्याप्त संख्या में चिकित्सक तथा प्रशिक्षित कर्मचारी ही नहीं होंगे तो दो महीने के भीतर जाँच पूरी कैसे होगी?

पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो क़ानून के तहत मुक़दमों की सुनवाई में अनावश्यक विलंब पर चिंता व्यक्त की थी और फ़ॉरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ाने पर ज़ोर दिया था।

फ़िलहाल देश में सात केंद्रीय फ़ॉरेंसिक साइंस प्रयोगशालाएँ हैदराबाद, कोलकाता, चंडीगढ़, नई दिल्ली, गुवाहाटी, भोपाल और पुणे में हैं जबकि राज्य सरकारों के अंतर्गत करीब 30 फ़ॉरेंसिक साइंस प्रयोगशालाएँ हैं। इन प्रयोगशालाओं में भी कई पद रिक्त हैं। इन प्रयोगशालाओं में बड़ी संख्या में पद रिक्त होने को गंभीरता से लेते हुए पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने तो सात राज्यों पर 50-50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया था। जब ऐसे मामलों में सुनवाई में तेज़ी लाने की ज़रूरत हो तो ऐसे पद तो रिक्त नहीं ही होने चाहिए।

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पर्याप्त संख्या में फ़ॉरेंसिक साइंस प्रयोगशालाएँ नहीं होने की वजह से अपराधों से संबंधित जाँच रिपोर्ट सही समय पर नहीं मिलती है और इस वजह से भी अक्सर मुक़दमों की सुनवाई में विलंब होता है। निर्भया कांड के बाद क़ानून में प्रावधान किया गया था कि ऐसे मामलों में आरोप पत्र दाखिल होने के बाद मुक़दमों की सुनवाई दो महीने के भीतर पूरी करनी होगी। इसके लिए राज्यों में त्वरित अदालतें गठित करने का भी निर्णय लिया गया था।

क़ानून मंत्री ने कुछ महीने पहले ही कहा था कि इस तरह के मुक़दमों के तेज़ी से निपटारे के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कुल 1023 नई त्वरित अदालतों के गठन का प्रस्ताव रखा है। इनमें से 400 अदालतों के लिए सहमति बन चुकी है और 160 अदालतें शुरू हो गई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 704 त्वरित अदालतें पहले से ही काम कर रही हैं।

छह साल पहले 2013 में क़ानून में कठोर प्रावधान के बाद 2019 में अक्टूबर से 1023 विशेष त्वरित अदालतें स्थापित करने का काम शुरू किया गया। यानी त्वरित अदालतें गठित करने में भी काफ़ी देरी हुई है।

न्याय प्रक्रिया में ऐसी ही देरी के कारण कुछ हलकों में कहा जा रहा है कि बलात्कार के अभियुक्तों को तुरंत सज़ा मिलनी चाहिए या फिर उन्हें भीड़ के हवाले कर देना चाहिए और दिल्ली के निर्भया-कांड की तरह सज़ा के लिए कोर्ट-कचहरी का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। जब ऐसी नौबत आ जाए तो इसे क्या कहा जाएगा?

इस बीच दिसंबर महीने में ही क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसद को भरोसा दिया है कि एक साल के अंदर रेप के सभी लंबित मामले निपटा दिए जाएँगे। हालाँकि जल्द निपटारे के आश्वासन वह बार-बार देते रहे हैं, लेकिन इसमें सफलता तो नहीं मिल पाई है।

लंबित मामलों का निपटारा इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे अपराध पर लगाम लगेगा। कई देश इसके उदाहरण हैं। अगर यूरोप और एशिया के कई मुल्कों में आज अपराध कम हैं तो इसलिए कि वहाँ पारदर्शी और अपेक्षाकृत सुसंगत न्याय-व्यवस्था है।

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क़मर वहीद नक़वी

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