क्या थी याचिका?
समलैंगिकता के पक्षधर एलजीबीटीक्यू समुदाय के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल करते हुए दलील दी कि कई लेस्बियन, गे, बाईसेक्यूअल, ट्रांसजेंटर जोड़े ने शादी करने के बाद शादी के रजिस्ट्रेशन की इजाज़त मांगी। लेकिन राजधानी समेत देश के कई राज्यों में अधिकारियों ने यह कहकर रजिस्ट्रेशन से इनकार कर दिया कि समान लिंग में शादी के रजिस्ट्रेशन का कोई क़ानून नहीं है।
समलैंगिकों से भेदभाव
अगर किसी लड़की को उसकी मर्जी के ख़िलाफ़ शादी करने से रोका जाता है तो विभिन्न तरीके के क़ानून मदद करते हैं, लेकिन जहां बात एलजीबीटी समुदाय की आती है, हमें दुनिया भर में अपनाये गये मानवाधिकार सिद्धान्तों के ख़िलाफ़ जाकर शादी की इजाज़त नहीं दी जाती। साथ ही दुनिया के तमाम बड़े और विकासशील देशों ने अपने देश में एलजीबीटी समुदाय के लिए शादी की इजाज़त को क़ानूनी दर्जा दिया हुआ है।एलजीबीटी समुदाय में एक दूसरे के शादी करना एक जटिल प्रक्रिया नहीं है, जब हमें साथ रहने, सेक्स करने और मर्जी से अपना समान लिंग चुनने की अनुमति है तो हमारी शादी को वैधानिक दर्जा क्यों नहीं मिलना चाहिए?
याचिका कहा गया कि इसके लिए किसी विशेष कानून की मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि हिन्दू मैरिज एक्ट में पहले से ही मौजूद प्रावधानों को एलजीबीटी समुदाय के लोग अपने अधिकार की तरह प्रयोग कर सकें, इसकी माँग कर रहे हैं।
केन्द्र ने किया विरोध
केन्द्र सरकार की तरफ से पेश सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने दिल्ली हाईकोर्ट से कहा, 'समलैंगिकता के मामले में सुप्रीम कोर्ट का 2018 का आदेश केवल उनके संबंध बनाने को क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी के संबंध में ही था। लेकिन समान लिंग में शादी भारतीय सभ्यता और कानून के ख़िलाफ़ है।'
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'जब तक मौजूद कई क़ानूनों में बदलाव नहीं किया जाता है, जो कि अदालत की शक्ति के बाहर की बात है, समान लिंग में विवाह का रजिस्ट्रेशन होना संभव नहीं है।'
तुषार मेहता, सॉलीसिटर जनरल
'दुनिया बदल रही है'
याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. एन. पटेल और जस्टिस प्रतीक जलान ने केन्द्र सरकार से कहा कि 'केन्द्र सरकार को याचिका में रखी गयी माँग को खुले दिमाग से विचार करने की आवश्यकता है, हम मानते हैं कि इसे लागू करने में कानूनी अड़चनें आयेंगी, लेकिन दुनिया में बदलाव हो रहे हैं।'
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के बाद भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को ग़ैरकानूनी, ग़ैरसंवैधानिक करार देते हुए एक ही लिंग में सहमति से बनाये गये शारीरिक संबंधों को अपराध से बाहर कर दिया था। हालांकि याचिका के शुरुआती दौर में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने भी इसका विरोध किया था, लेकिन कोर्ट में लंबी चली बहस के बाद इसे अपराध से बाहर निकालने का सुप्रीम कोर्ट ने रास्ता खोजा। समलैंगिकता के मामले में सुप्रीम कोर्ट से पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने सहमति से बयान गये यौन संबंधों को इजाज़त दे दी थी।
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