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बंदूक की गोली से लिंचिंग रुकेगी या और लाशें गिरेंगी?

क्या लिंचिंग का जवाब बंदूक की गोली हो सकती है? क्या हथियार रखने से अल्पसंख्यकों और दलितों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा रुक जाएगी? लेकिन लगता है, सुप्रीम कोर्ट के वकील महमूद पराचा और लखनऊ में शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद तो कम से कम ऐसा ही मानते हैं। उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर एससी-एसटी और अल्पसंख्यकों को हथियार ख़रीदने के लिए लाइसेंस देने की वकालत की है। इसके लिए बाकायदा लखनऊ में 26 जुलाई को एक कैंप भी लगाया जाएगा जिसमें लोगों को हथियार ख़रीदने के तरीक़े के बारे में बताया जाएगा। मौलाना कल्बे जव्वाद ने सफ़ाई दी है कि 26 तारीख़ को जो कैंप लगेगा उसमें लोगों के हथियार चलाने की कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाएगी। हालाँकि, दोनों ने इस पर कुछ नहीं बताया कि जब लोगों के हाथों में बंदूकें होंगी तो गोलियाँ भी चलेंगी और लोगों की जानें भी जाएँगी। इसकी क्या गारंटी है कि मामूली कहासुनी पर भी लोग गोली नहीं चला दें! 

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क्या बंदूक की गोली किसी समस्या का समाधान हो सकती है? दुनिया के किसी भी कोने में बंदूक की नोक पर शांति नहीं लाई जा सकी है। चाहे आत्म-सुरक्षा के नाम पर ही क्यों न हो, बंदूकें तनाव को बढ़ाती हैं और आख़िरकर हिंसा को भी। महात्मा गाँधी ने कहा है, ‘आँख के बदले आँख’ से तो पूरी दुनिया ही अंधी हो जाएगी।’ क्या लिंचिंग के जवाब में बंदूक चलाना कुछ वैसा ही नहीं होगा? आम नागरिकों के हथियार रखने के क्या परिणाम हो सकते हैं, इस पर अमेरिका का उदाहरण हमारे सामने है। वहाँ जब तब मास शूटिंग की ख़बरें आती रहती हैं। कभी स्कूल में तो कभी होटल या अन्य सार्वजनिक जगहों पर। 

‘इंडिपेंडेंट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में पिछले दो साल में (1 जून 2017 से लेकर 1 जून 2019 तक) 568 मास शूटिंग की घटनाएँ हुई हैं। इसमें कम से कम 802 लोग मारे गए। 

जून 2019 में अमेरिका के वर्जीनिया बीच में मास शूटिंग हुई थी। इस घटना में 12 लोगों की मौत हो गई थी और कई घायल हो गए थे। इससे कुछ दिनों पहले ही डेंवर के एक स्कूल में फायरिंग में 1 बच्ची की मौत और 7 घायल हो गए थे। इससे पहले लॉस एंजेलिस में शूटिंग की एक घटना हुई थी, जिसमें एक रैपर निप्से हसल की मौत हो गई थी। 2018 में फ़्लोरिडा के पार्कलैंड के मारजरी स्टोनमैन डगलस हाई स्कूल में अंधाधूँध गोलीबारी में 17 लोग मारे गए थे और और कई अन्य घायल हुए थे। इस घटना के बाद अमेरिकी राज्य फ्लोरिडा में एक ऐसा क़ानून पास किया गया है जो टीचरों को क्लास में बंदूक ले जाने की अनुमति देता है। 

अमेरिका में हथियार ख़रीदना आसान

यह इसलिए है कि वहाँ पर हथियार रखना और इसका लाइसेंस लेना अपेक्षाकृत आसान है। यही कारण है कि दुनिया भर में अमेरिका के आम नागरिक सबसे ज़्यादा हथियार रखते हैं। ‘डीडब्ल्यू’ की 2018 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जेनेवा के ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट के सर्वे के मुताबिक 2006 में दुनिया भर में आम नागरिकों के पास 65 करोड़ बंदूकें थीं जबकि 2017 में यह संख्या बढ़कर 85.7 करोड़ हो गई। अमेरिका में इस दौरान आम नागरिकों के पास 39.3 करोड़ बंदूकें थीं। दुनिया भर में जितनी बंदूकें हैं, उनका 40 फ़ीसदी हिस्सा अमेरिकी नागरिकों के पास है। 

बता दें कि अमेरिका के गन कंट्रोल एक्ट 1968 के मुताबिक़ संघीय स्तर पर यहाँ रहने वाले नागरिकों और क़ानूनी तौर पर रह रहे 18 साल के लोग शॉटगन, राइफ़ल और गोला-बारूद ख़रीद सकते हैं। अमेरिका के 50 राज्यों में से महज एक दर्जन राज्यों में ही हैंडगन ख़रीदने के लिए परमिट ज़रूरी है। फ़ेडरल क़ानून के तहत मानसिक रूप से बीमार और ऐसे भगोड़े लोग जो समाज के लिए ख़तरा साबित हो सकते हैं, सजा पा चुके अपराधी, ग़ैर-कानूनी पदार्थों को रखने में दोषी पाये गये लोग, आदि को ही हथियार ख़रीदने पर पाबंदी है।

बता दें कि अमेरिका में अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखने का मौलिक हथियार है। यह इंग्लैंड के 1689 इंग्लिश बिल ऑफ़ राइट्स से प्रभावित है जो व्यक्तिगत सुरक्षा के बारे में है।
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तो अमेरिका जैसी हो जाएगी स्थिति...

अब यदि अमेरिका की तरह ही भारत में भी आम लोग हथियार रखने लगें तो क्या शूटिंग या मास शूटिंग की घटनाएँ काफ़ी ज़्यादा नहीं बढ़ जाएँगी? यदि अमेरिका की तरह लाइसेंस और हथियार चलाने की ट्रेनिंग लोगों को मिल जाए तो स्थिति क्या होगी इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है। हालाँकि भारत में नियम-क़ायदे इतने आसान नहीं हैं कि लोगों को आसानी से हथियार रखने की इजाज़त मिल जाए।

शस्त्र नियम, 2016 के अनुसार किसी शस्त्र लाइसेंस के लिए आवेदन करने वाले को शस्त्र एवं गोलाबारूद सुरक्षा प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा करना होगा। परीक्षा भी देनी होगी। एक व्यक्ति को एक लाइसेंस और इस पर अधिकतम तीन हथियार ही जारी होते हैं। लाइसेंस के लिए उचित कारण भी देना होता है। जिनके पूर्वजों का ट्रैक रिकॉर्ड ठीक नहीं उन्हें नहीं मिलेगा लाइसेंस। आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी देनी होती है। आवेदक को मुख्य चिकित्साधिकारी से फिटनेस सर्टिफिकेट प्राप्त करना होता है। आवेदक के फ़ॉर्म पर लेखपाल, कानूनगो, तहसीलदार और एसडीएम की रिपोर्ट ली जाती है। ज़िले के एसडीएम और एसपी से होते हुए फ़ाइल जिलाधिकारी के पास जाती है। इसके बाद भी जिलाधिकारी अपने विवेकानुसार शस्त्र लाइसेंस जारी करते हैं।

बंदूक से आएगी शांति या क़ानून से?

भारत में लाइसेंस लेना इतना आसान नहीं है, इसके बावजूद जिस तरह वकील महमूद पराचा और शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद हथियार देने की बात कर रहे हैं क्या उससे स्थिति ठीक होगी या बिगड़ेगी? फिर सवाल वहीं आन खड़ा होता है कि क्या लिंचिंग सख्त क़ानून से रुकेगी या बंदूक की गोली से? यदि सबके हाथ में बंदूकें दे दें तो गोलियों से सैकड़ों जानें जाएँगी उसका क्या? क्या इसके बाद स्थिति संभल पाएगी? हिंसा से सिर्फ़ हिंसा बढ़ती है। किसी व्यक्ति विशेष की बात को छोड़िए, अमेरिका जैसे देश भी अफ़ग़ानिस्तान, ईराक जैसे देशों में बंदूक की नोक पर शांति नहीं ला सके हैं। अब अमेरिका में भी हथियारों के लिए लाइसेंस देने पर नियम सख्त करने के लिए ज़ोरदार बहस चल रही है। मास शूटिंग की घटनाओं के बाद तो बंदूक रखने के ख़िलाफ़ अब प्रदर्शन होने लगे हैं। 17 लोगों के मारे जाने के बाद छात्रों ने बड़े स्तर पर 'मार्च फॉर आवर लाइव्स' निकाला था। ऐसे में भारत में आत्म-सुरक्षा के नाम पर हथियारों की ट्रेनिंग देने, हथियार ख़रीदने और लाइसेंस रखने की वकालत क्यों की जा रही है?

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अमित कुमार सिंह

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