तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में कब्जा करने के बाद पहली बार संकेत दिया है कि वह भारत अफ़ग़ानिस्तान संबंध बरकरार रखना चाहता है। कतर में तालिबान नेतृत्व के एक सदस्य ने कहा है कि भारत 'इस उपमहाद्वीप के लिए बेहद महत्वपूर्ण' है। इसने यह भी कहा है कि उसका समूह भारत के साथ पहले की तरह ही अफ़ग़ानिस्तान के 'सांस्कृतिक', 'आर्थिक', 'राजनीतिक' और 'व्यापारिक संबंध' को जारी रखना चाहता है।
तालिबान की तरफ़ से यह संकेत काफ़ी अहम है। ऐसा इसलिए कि तालिबान और पाकिस्तान के संबंध जगजाहिर हैं। तालिबान और पाकिस्तान दोनों अफ़ग़ानिस्तान की पूर्ववर्ती सरकार के साथ भारत के संबंधों को लेकर असहज रहे थे। जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया तो चीन ने भी तालिबान के क़रीब जाने की कोशिश की। पाकिस्तान, तालिबान और चीन की तिकड़ी को भारत के लिए अच्छा संदेश नहीं कहा गया। यह सवाल उठ रहे थे कि कहीं अफ़ग़ानिस्तान में भारत अलग-थलग तो नहीं पड़ता जा रहा है? वह भी तब जब भारत अफ़ग़ानिस्तान में अब तक क़रीब 3 अरब डॉलर का निवेश कर चुका है। इसी बीच अब तालिबान के ये संकेत भारत के लिए काफ़ी मायने रखते हैं। लेकिन ये मायने क्या हैं?
तालिबान ने संबंध सुधारने के ये संकेत क्यों दिए हैं और उसकी मजबूरी क्या है? तालिबान को इस बात का एहसास है कि सरकार बनाने के बाद उन्हें आर्थिक मदद की ज़रूरत होगी और भारत पश्चिमी देशों और दान देने वाले संगठनों से मदद दिलाने वाली कड़ी का काम कर सकता है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और वह ख़ुद बदनाम है इसलिए यह भूमिका अदा नहीं कर सकता। लेकिन चीन भारत की इस भूमिका की सबसे बड़ी रुकावट बन सकता है और पाकिस्तान पूरी कोशिश करेगा कि चीन यह काम करे।
भारत की तुलना में आर्थिक रूप से संपन्न होने के बावजूद चीन अभी तक अफ़ग़ानिस्तान में निवेश के मामले में भारत से पीछे रहा है, लेकिन यह स्थिति बदलने में देर नहीं लगेगी। आर्थिक सहायत के मामले में चीन के साथ भारत नहीं जीत सकता लेकिन बरसों के काम से बनी अपनी साख और अफ़ग़ान लोगों के विश्वास के ज़रिए अपने निवेश और प्रभाव को बचाने की कोशिश कर सकता है। इस सब के अलावा तालिबान भी पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर रहने के बजाय भारत को वैकल्पिक दोस्त बनाना चाहेंगे। और अब जो तालिबान के संकेत आए हैं उसे इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
भारत को लेकर यह बयान दोहा में तालिबान के कार्यालय के उप प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकज़ाई द्वारा दिया गया है।
स्टेनकज़ाई 1980 के दशक में भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में अफ़ग़ान सेना के कैडेटों के प्रशिक्षण के हिस्से के रूप में शामिल थे। 1996 में तालिबान के काबुल के पहले अधिग्रहण के बाद जब वह एक कार्यवाहक शासन के उप विदेश मंत्री थे तब उन्होंने भारत के लिए इसी तरह का प्रस्ताव दिया था।
स्टेनकज़ाई का ताज़ा बयान तालिबान के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और अफ़ग़ानिस्तान के मिल्ली टेलीविजन पर शनिवार को पश्तो में प्रसारित किया गया। 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, स्टेनकज़ाई ने बयान में कहा, 'हम भारत के साथ अपने राजनीतिक, आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को उचित महत्व देते हैं और हम चाहते हैं कि ये संबंध जारी रहें। हम इस संबंध में भारत के साथ काम करने को लेकर आशान्वित हैं।' उन्होंने आगे कहा, 'पाकिस्तान के माध्यम से भारत के साथ व्यापार हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के साथ, हवाई गलियारों के माध्यम से व्यापार भी खुला रहेगा।' यह काफी अहम इसलिए है कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच व्यापार को पाकिस्तान ने अक्सर बाधित किया है।
इसके साथ ही तालिबान ने तुर्कमेनिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन और भारत द्वारा विकसित चाबहार पोर्ट का भी ज़िक्र किया।
तो सवाल है कि क्या भारत अब इस पर प्रतिक्रिया देगा? अभी तक तो इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। बहरहाल, भारत की भूमिका अफ़ग़ानिस्तान में काफ़ी अहम होगी। ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं कि भारत अफ़ग़ानिस्तान का पड़ोसी है बल्कि इसलिए भी कि भारत अमेरिका के बाद अफ़ग़ानिस्तान को सबसे बड़ी सहायता देने वाली क्षेत्रीय ताक़त है। भारत को अपने निवेश के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में चल रही परियोजनाओं की भी चिंता होगी।
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार तो अब मौजूदा परिस्थितियों में भारत को तालिबान के साथ सीधे संबन्ध बनाना ज़रूरी मानते हैं। इसी साल जून में सूत्रों के हवाले से ख़बर आई थी कि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान से मुलाक़ात की थी, लेकिन सरकार की ओर से इस ख़बर का खंडन किया गया था। तो क्या सरकार अब कोई साफ़ नीति अपनाएगी?
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