देश की सर्वोच्च जाँच एजेंसी केंद्रीय जाँच ब्यूरो यानि सीबीआई को हमेशा से राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने की बात कही जाती रही है। अक्सर यह आरोप विपक्षी पार्टी, चाहे वो जो हो, लगाती रही है। दबी ज़ुबान से एजेंसी के पूर्व निदेशक भी इस बात को अनौपचारिक तौर पर ही सही, पर कहते रहे हैं। लेकिन इस बार जो हुआ वैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ था।
एजेंसी के साथ-साथ सरकार की जो फ़जीहत हुई है उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। विशेषज्ञ इसका एक ही कारण मानते हैं और वो है बेपरवाह सरकारी हस्तक्षेप। केवल सीबीआई ही नहीं, इस बेपरवाह हस्तक्षेप का शिकार प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी भी हुआ है।
दो साल पहले सीबीआई
याद कीजिए 2 दिसंबर 2016 का वह दिन। तत्कालीन सीबीआई निदेशक अनिल सिन्हा उस दिन रिटायर हुए थे। सीबीआई के इतिहास में ऐसा कम से कम दस साल में पहली बार हुआ था कि मौजूदा निदेशक के रिटायर होने तक सीबीआई का नया निदेशक चुना नहीं गया था। परंपरागत तौर पर सीबीआई के विशेष निदेशक का दावा निदेशक की कुर्सी पर सबसे मजबूत होता है। ख़ुद अनिल सिन्हा भी विशेष निदेशक के पद से सीबीआई चीफ़ बने थे। मगर अनिल सिन्हा के रिटायर होने के समय तक सीबीआई के तत्कालीन विशेष निदेशक 1981 बैच कर्नाटक कैडर के आईपीएस अफसर आर के दत्ता को सीबीआई से गृह मंत्रालय भेजा जा चुका था। जानते हैं क्यों? सीबीआई के जानकारों की मानें तो दत्ता पश्चिम बंगाल के कुछ नेताओं के करीबी थे और मौजूदा सरकार को एक ऐसा निदेशक चाहिए था जो राजनीतिक वैतरणी में लहरों का रुख सरकारी इशारे पर तय कर सके। इसीलिए यह भी पहली बार हुआ जब सीबीआई का निदेशक पद खाली था। निदेशक रिटायर हो गए थे। विशेष निदेशक का तबादला हो गया था। आखिरकार ग़ैर परंपरागत तरीके से सीबीआई में नंबर 3 पर तैनात तत्कालीन अफसर 1984 बैच के आईपीएस राकेश अस्थाना को निदेशक का अतिरिक्त कार्यभार सौपा गया। ग़ौर फ़रमाइए, आर के दत्ता को बिना किसी कारण सीबीआई से बाहर करने के आरोप सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे थे।आलोक वर्मा की नियुक्ति
इसके बाद यानी दिसंबर से निदेशक की तलाश शुरु हुई और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केहर सिंह की सेवानवृति तक नियुक्ति नहीं हुई। लेकिन दिल्ली के तत्कालीन पुलिस आयुक्त 1979 बैच के अफसर आलोक वर्मा को निदेशक बनाने का फ़ैसला हो चुका था। जरा सोचिए, तब तक आम तौर पर सीबीआई का निदेशक उसे ही बनाया जाता था जिसके पास सीबीआई में काम करने का अनुभव हो। आलोक वर्मा सीबीआई में कभी नहीं रहे, मगर उनको निदेशक बनाने का निर्णय किया गया।
बताया जाता है कि वर्मा को सीबीआई का निदेशक बनाने के पीछे सतारूढ़ पार्टी में उनके संबंध तो थे ही, इसके पीछे सोच ये थी कि आलोक वर्मा डमी निदेशक रहेंगे और सरकार के बेहद क़रीब राकेश अस्थाना सक्रिय निदेशक के तौर पर काम करते रहेंगे।
शुरूआत में हुआ भी यही। राकेश अस्थाना ने जमकर पॉवर एंज्वॉय किया।
झगड़े की शुरूआत-अस्थाना और मजबूत
जानकारों के मुताबिक़, सीबीआई में काम करने के अनुभवी दिल्ली के कुछ अफ़सरों को सीबीआई में जाना था। मगर राकेश अस्थाना ने अडंगा डालकर इनकी नियुक्ति नहीं होने दी। इस बात से नौकरशाही में बहुत ग़लत संदेश गया। इसी बीच कई मामलों में राकेश अस्थाना की बेपरवाह कार्यशैली से निदेशक आलोक वर्मा नाखुश थे ।उनके साथ-साथ गुजरात कैडर के आईपीएस अफसर ए के शर्मा भी अस्थाना की कार्यशैली को पसंद नहीं कर थे। आख़िरकार निदेशक के निर्देश पर अस्थाना के ख़िलाफृ़ सीबीआई की करीब पांच अंदरूनी जाँच शुरू हो गई। उधर सीवीसी ने 1984 बैच के आईपीएस अफ़सरों की प्रोन्नति प्रक्रिया शरू कर दी। प्रोन्नति पाने वालों में राकेश अस्थाना का भी नाम था। निदेशक आलोक वर्मा ने सीवीसी में अंदरूनी जाँचों का हवाला देकर अस्थाना की प्रोन्नति का विरोध किया। लेकिन सीवीसी ने प्रोन्नति दे दी। इसके बाद इसी 16 अगस्त के आसपास एक और अहम घटना हुई। सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा एजेंसी के कार्य से विदेश दौरे पर थे। उसी समय सीबीआई में प्रतिनियुक्ति पर आने वाले कुछ अफ़सरों के लिए मीटिंग बुला ली गई। परंपरागत तौर पर निदेशक ही इस मीटिंग में जाया करते हैं। जानकारों के मुताबिक. यह अफ़सर रकेश अस्थाना के करीबी थे। शायद इसीलिए आनन-फानन में मीटिंग बुलाई गई थी। लेकिन इस बात की ख़बर विदेश में बैठे आलोक वर्मा को लग गई औऱ उनके निर्देश पर संयुक्त निदेशक ए केशर्मा ने तत्काल औपचारिक पत्र सीवीसी को भेजा और मीटिंग का विरेध किया। इसी के साथ इस झगड़े की शुरूआत हो गई।अस्थाना का पत्र
माना जाता है कि अब राकेश अस्थाना को चौतरफा घिर जाने का अहसास हो चुका था। इसीलिए आलोक वर्मा की घेराबंदी शुरू हुई और सतीश सना के फ़र्जी हस्ताक्षर से एक बयान दर्ज किया गया कि मोईन कुरैशी से आलोक वर्मा ने करोड़ों रूपये की की रिश्वत ली। इस बयान के साथ आलोक वर्मा के ख़िलाफ़ कैबिनेट सचिव को ख़त लिखा गया। वर्मा का जवाब-रफ़ाल नहीं कोयला
लेकिन आलोक वर्मा को इस बात की भनक लग गई और आख़िरकार जाँच कर उन्होंने अस्थाना के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज करवा दिया। इसी बात को लेकर उन्हें पीएमओ तलब भी किया गया। लेकिन तब तक आलोक वर्मा ने आक्रामक रुख अपना लिया था। उन्होंने कोयला घोटाले में कुछ ऐसे लोगों की जांच करने का फैसला कर लिया था जो केंद्रीय सत्ता के काफ़ी क़रीब थे। सरकार के पास उन्हें हटाने के सिवा कोई चारा नहीं था। इसीलिए उन्हें सीबीआई से दूर करने की कार्रवाई आधी रात को की गई क्योंकि दूसरे दिन बहुत कुछ हो सकता था।अंत अभी बाकी है
सरकारी हस्तक्षेप के बेपरवाह अंदाज ने आख़िरकार मामले को सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा दिया। कोर्ट में पहुँचने पर ऐसा लग रहा था केंद्रीय जाँच एजेंसी, सीबीआई का झगड़ा अब सुलझ जाएगा। अदालती प्रक्रिया की वजह से ऐसा माना जा रहा था। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की प्रारंभिक जांच करके एक मिली जुली रिपोर्ट दी थी। जिसमें कुछ अच्छी बातें थीं और कुछ उनके प्रतिकूल थीं।
अपनी राय बतायें