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मोदी जी, 2014 के आपके वादे, नारे, सब हवा हो गए?

‘मित्रों, एक रुपये के सिक्के का कमाल देखा आपने, मैंने रतन टाटा को फ़ोन लगाया और 1500 करोड़ का नैनो कार का प्लांट पश्चिम बंगाल के सिंगरुर से गुजरात के साणंद में आ गया।’ ‘मित्रों ये जो स्विस बैंकों में कालाधन पड़ा है, वह आ गया तो हर आदमी के खाते में कम से कम 15 लाख रुपये तो आ ही जाएँगे।’ ‘2 G, 3 G और जीजाजी, ‘मुझे तो माँ गंगा ने बुलाया है और फिर अच्छे दिन आएँगे...ये वे वादे हैं जो 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग हर मंच पर और लगभग हर सभा में बोलते थे। लेकिन क्या वे नारे, वे वादे हवा हो गए?
आज देश में फिर से चुनाव हैं तो सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री क्या 2014 में किए गए वादों और नारों का हिसाब देंगे या नए नारे गढ़ेंगे? यह सवाल हर देशवासी के ज़ेहन में है।
2014 में दिए गए नारे आज नहीं सुनाई दे रहे हैं और न ही इसका जवाब मिल रहा है कि 5 साल में सरकार ने इन नारों पर क्या किया। हाँ, 5 साल में सरकार ने कुछ नए नारे ज़रूर गढ़े और देश के मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के समक्ष उछालते रही। 
मोदी सरकार में देश की जीडीपी से लेकर सैनिकों का शौर्य तक नारा बन गया। आँकड़ों से विकास निकालने की कोशिश में सरकार ख़ुद ही उनमें उलझ गई।

खोखला निकला गुजरात मॉडल 

मोदी सरकार को सत्ता में आए 5 साल पूरे हो गए, क्या अब वह अपने कामकाज का हिसाब देगी या हिसाब के जवाब में फिर से नारेबाज़ी ही सुनने को मिलेगी? इस सवाल के जवाब का आंकलन साल 2017 में हुए गुजरात चुनाव प्रचार से आप लगा सकते हैं। जिस गुजरात मॉडल को मीडिया के माध्यम से देश की जनता के सामने परोसकर वाहवाही लूटी गई, उस गुजरात मॉडल को लेकर एक लाइन भी विधानसभा चुनाव में प्रचार अभियान में नहीं बोली गई। गुजरात में मोदी को मणिशंकर अय्यर की टिप्पणी और मनमोहन सिंह की पाकिस्तानी अधिकारियों से बैठक का सहारा लेना पड़ा। 

फिर लिया इंदिरा, नेहरू का सहारा

गुजरात में मोदी ने चुनाव के दौरान ना टाटा के नैनो की बात की, ना ही अडानी की पावर और अंबानी के तेल की। वहाँ उन्हें मोरबी में माछु बाँध टूटने पर राहत कार्य देखने आईं इंदिरा गांधी ने रुमाल से मुंह क्यों ढका था? के झूठ का सहारा लेना पड़ा।  वहाँ उन्हें नेहरू याद आए कि कैसे उन्होंने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में रोड़े अटकाए थे? 13 साल तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के बाद गुजरात में उनके चुनावी भाषणों को देखकर बहुत कुछ स्पष्ट होता है कि मोदी आने वाले चुनावों में प्रचार सभाओं में क्या बोलने वाले हैं। 

पिछले एक महीने के प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों से अब स्पष्ट भी होने लगा है कि चुनाव के दौरान न तो कालेधन पर चर्चा होगी और ना ही रोज़गार पर? क्योंकि सत्ता की कुर्सी मिलते ही 2014 के चुनावी नारे हवा हो गए।

हर काम को नारे से जोड़ा

सबसे पहले 15 लाख का जुमला बोलकर हवा किया गया। लेकिन अच्छे दिन की उम्मीद लगाए बैठी जनता को कुछ तो देना ही था। लिहाजा सरकार का हर काम नारे से जोड़ा जाने लगा। सड़क पर झाड़ू लगानी है तो स्वच्छ भारत बोला जाने लगा, स्विस बैंक में रखा कालाधन तो नहीं आया लेकिन लोगों के घरों में ज़रूरी खर्चों या हर रोज की ज़रूरतों के लिए रखे गए नोट कतार लगा कर बैंक में पहुँचने लगे। 

जनता को स्वप्न दिखाया गया कि ये कालाधन और आतंकवाद को ख़त्म करने की मुहिम का हिस्सा है। फिर से भाषण दिया गया - ‘भाइयों बहनों, मैंने सिर्फ़ देश से 50 दिन माँगे हैं, 50 दिन, 30 दिसंबर तक मुझे मौक़ा दीजिए मेरे भाइयों-बहनों। अगर 30 दिसंबर के बाद कोई कमी रह जाए, कोई मेरी ग़लती निकल जाए, कोई मेरा ग़लत इरादा निकल जाए, आप जिस चौराहे पर मुझे खड़ा करेंगे, मैं खड़ा होकर, देश जो सज़ा करेगा वह सज़ा भुगतने को तैयार हूँ।’ 

कालाधन कितना मिला, उसका जवाब आज तक नहीं मिला? लेकिन जिन लोगों ने विदेशों में कालाधन छुपाकर रखा है, पनामा पेपर में उनके नाम सार्वजनिक हो जाने पर भी उनके ख़िलाफ़ कोई कारवाई नहीं हुई।

आतंकवाद की कमर कितनी टूटी इसका सबूत तो उरी, पठानकोट और पुलवामा से बड़ा क्या हो सकता है। पहले कुछ जवानों पर ही आतंकवादी हमले हुआ करते थे, वहीं अब सेना के कैम्प और काफ़िलों पर घात लगाई जा रही है। 

सरकार बनते ही सितंबर 2014 में 'मेक इन इंडिया' की शुरुआत की गई। नारा दिया गया कि 'मेक इन इंडिया' की मदद से साल 2025 तक अर्थव्यवस्था में मैन्युफ़ैक्चरिंग का योगदान बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाएगा। लेकिन विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित डेटा से पता चलता है कि कई सालों से देश की अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र के योगदान में  कोई ज़्यादा बदलाव नहीं आया है और यह 15 प्रतिशत के आसपास ही स्थिर है। यह आंकड़ा न सिर्फ़ लक्ष्य से दूर है बल्कि इसके लक्ष्य तक पहुँचने के आसार भी कम हैं। 

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सेवा क्षेत्र (सर्विसेज़) जैसे बैंकिंग, रीटेल आदि का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान 49 प्रतिशत है। एशिया में भारत के पास स्थित देशों को देखें तो चीन, कोरिया और जापान की अर्थव्यवस्था में मैन्युफ़ैक्चरिंग का योगदान भारत से ज़्यादा है। साल 2014 में बीजेपी केंद्र में सत्ता में आई। बीजेपी के सत्ता में आने के बाद के पहले साल में ही विदेशी निवेश में बढ़ोतरी दर्ज की गई। हाल में जो आंकड़े आ रहे हैं, वे बताते हैं कि इसमें भी धीमापन आया है। 
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, विदेशी निवेश का बड़ा हिस्सा सर्विसेज़ सेक्टर में ही जा रहा है उत्पादन क्षेत्र में नहीं। जबकि प्रधानमंत्री मेक इन इंडिया की बात करते-करते सरदार पटेल की मूर्ति तक चीन से बनवा लाए।

किसानों के दर्द को दूर करने के लिए उत्तर प्रदेश के बरेली में 'किसान स्वाभिमान रैली' को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने 28 फ़रवरी 2016 को कहा था, ‘2022 में जब देश आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहा होगा, उस वक़्त तक हम किसान की आय दोगुनी कर देंगे। यही मेरा सपना है।’ 

प्रधानमंत्री के इस वादे की भी हक़ीक़त जानने की कोशिश करते हैं। देश में आज भी कृषि क्षेत्र 40 फ़ीसदी लोगों को रोज़गार देता है। हालाँकि 2016 के बाद किसानों की आय में कितनी बढ़ोतरी हुई है, इसका कोई सरकारी आंकड़ा मौजूद नहीं है। नीति आयोग की मार्च 2017 की रिपोर्ट के मुतबिक़, सरकार को अगर किसानों की आय साल 2022 तक दोगुनी करनी है तो कृषि क्षेत्र का विकास 10.4 फ़ीसदी की दर से करना होगा। 

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2030 से पहले संभव नहीं 

जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी के मुताबिक़, ‘10.4 फ़ीसदी की कृषि विकास दर दो साल पहले चाहिए थी। सरकार के वादे के बाद दो साल का वक़्त बीत चुका है। आज की तारीख़ में 13 फ़ीसदी की कृषि विकास दर चाहिए। जो 2030 से पहले तो होता नहीं दिख रहा है।’ 

कृषि क्षेत्र की विकास दर पिछले तीन साल में यूपीए- 1 की सरकार से कम रही है। किसानों की आय दोगुनी नहीं हुई तो चुनाव से ठीक पहले सरकार उनके खाते में 2-2 हज़ार रुपये भेज कर अपने वादे की इतिश्री करती दिख रही है।

क्या काशी बन गई क्योटो?

‘गंगा मैया ने बुलाया है’ का नारा लगाकर बनारस के सहारे दिल्ली की सत्ता की सीढ़ी पर चढ़ने वाले मोदी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को साध लिया लेकिन गंगा की सफाई छोड़ काशी विश्वनाथ परिसर में ऐतिहासिक धरोहरों की सफ़ाई कर डाली। कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री ने काशी में घंटों भाषण दिया लेकिन तब उन्हें क्योटो की याद नहीं आई जिसका उन्होंने 2014 में काशी के लोगों के साथ वादा किया था। 

1,568 मील लंबी गंगा नदी को साल 2020 तक पूरी तरह साफ़ करने का दावा करते रहे लेकिन पिछले साल संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक़, 236 सफ़ाई परियोजनाओं में से महज 63 को ही पूरा किया गया था। 

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संजय राय

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