बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने कल एक बहुत अच्छी बात कही (पढ़ें)। वह गुवाहाटी में थे और उन्होंने कहा कि पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न झेल रहे अल्पसंख्यकों की मदद करना भारत का कर्तव्य है। सही है, कोई भी सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति, समाज और देश अपने पड़ोस में हो रहे अत्याचार को देखकर चुप नहीं रह सकता और अपने से जो भी बन सके, वह करता है। यूरोप और अमेरिका के कई देश यही नीति अपनाते हैं और दुनिया में कहीं भी किसी भी व्यक्ति के साथ धार्मिक, जातीय, नस्लीय, राजनीतिक या व्यक्तिगत कारणों से अत्याचार हो रहा होता है तो वे उसे अपने देश में शरण देने और नागरिकता का अधिकार देने को तत्पर रहते हैं।
भारत सरकार दुनिया भर के तो नहीं, लेकिन पड़ोसी देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों को ऐसी सुविधा देने के लिए देश के नागरिकता क़ानून 1955 में परिवर्तन करने जा रही है। इस संबंध में एक विधेयक नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 लोकसभा में पास हो गया है और राज्यसभा में यह पेश होना बाक़ी है। इस बिल पर पूरे उत्तर-पूर्व में हंगामा मचा हुआ है और कुछ सहयोगी जैसे एजीपी इसी मुद्दे पर एनडीए से अलग हो गए हैं, कुछ और सहयोगी अलग होने का सोच रहे हैं। ख़ुद बीजेपी में भी इस बिल पर असंतोष फैल गया है और उसके अपने कुछ एमएलए इसके ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं। लेकिन मैं यहाँ उसकी चर्चा नहीं करूँगा। वह राजनीतिक मसला है। मैं यहाँ एक दूसरा मामला उठा रहा हूँ और वह है इस बिल की वैधता का।
पहले समझते हैं कि मामला क्या है और यह बिल मौजूदा क़ानून में क्या और कैसा बदलाव लाना चाहता है।
- मामला है आव्रजकों (जो भारत के नागरिक नहीं हैं लेकिन अवैध तरीक़े से भारत में सालों से रह रहे हैं) को भारत की नागरिकता देने का। अभी का जो नागरिकता क़ानून, 1955 है, उसके तहत कोई भी आव्रजक जो पिछले 14 में से 12 सालों तक भारत में रह चुका है, वह भारत की नागरिकता पाने का अधिकारी है। लेकिन यह जो संशोधन विधेयक है, वह उसे 12 से घटाकर 6 साल करने जा रहा है मगर सभी के लिए नहीं, केवल कुछ चुनिंदा लोगों के लिए।
अल्पसंख्यक क्या सिर्फ़ हिंदू?
कौन हैं ये चुनिंदा लोग? ये हैं भारत के तीन पड़ोसी देशों - पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान या बांग्लादेश - में रहनेवाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई। ध्यान दीजिए, इसमें मुसलमान नहीं हैं। कोई कह सकता है कि चूँकि इन तीनों देशों में मुसलमान ही बहुसंख्यक हैं और यह बिल केवल अल्पसंख्यकों के बारे में है, इसलिए मुसलमानों का इसमें न होना स्वाभाविक है। लेकिन पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमान भी हैं जिनके साथ बहुत ही भेदभाव बरता जाता है और वे उत्पीड़न के शिकार होते हैं। इसके अलावा वहाँ यहूदी भी हैं।
यदि भारत की चिंता अपने सभी पड़ोसी देशों में रह रहे सभी अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे अत्याचारों को लेकर है जैसा कि राम माधव कहते हैं, तो बिल में ऐसे पड़ोसी देशों की संख्या तीन ही क्यों हैं और अल्पसंख्यकों में यहूदी और मुसलमान क्यों नहीं हैं?
- क्या देश के चारों तरफ़ और पड़ोसी देश नहीं हैं? क्या वहाँ के अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार नहीं होता? क्या भारत की संवेदनशीलता केवल इन तीन देशों में उत्पीड़न झेल रहे अल्पसंख्यकों के लिए ही जागती है और बाक़ी के लिए मर जाती है?
पाँच पड़ोसी देशों की चिंता क्यों नहीं?
- 8 पड़ोसी देशों में से केवल 3 को चुनना और अल्पसंख्यकों की सूची में मुसलमानों को नहीं रखना यह स्पष्ट करता है कि भारत की एनडीए सरकार की संवेदनशीलता ‘पड़ोसी देशों में उत्पीड़न झेल रहे धार्मिक अल्पसंख्यकों’ के प्रति नहीं है, उसकी संवेदनशीलता ‘कुछ ख़ास देशों में कुछ ख़ास धर्म के लोगों’ के प्रति है और उसनें मुसलमानों का नाम नहीं है।
धर्म के आधार पर भेदभाव क्यों?
भारत के पड़ोसी देशों में पाँच देश ऐसे हैं जहाँ बहुसंख्यक तबक़ा बौद्ध या हिंदू है और वहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। इन देशों में मुसलमानों की आबादी इस प्रकार है - नेपाल (4-5%), म्यांमार (4%), चीन (1-2%), श्रीलंका (10%) और भूटान (0.2%)। बाक़ी देशों का छोड़ भी दें तो चीन और म्यांमार से धार्मिक अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों की हत्या, बलात्कार और क़त्लेआम जैसे घोर उत्पीड़न की ख़बरें आती रहती हैं। फिर भी भारत सरकार की करुणा इन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों के प्रति क्यों नहीं जागी? आख़िर भारत सरकार किस संवैधानिक अधिकार से धर्म के आधार पर अपनी करुणा में भेदभाव कर रही है?
भारत हिंदू राष्ट्र नहीं है और हमारे संविधान के अनुसार यहाँ धर्म के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। तो जब यह देश या सरकार आज के नागरिकों के साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं कर सकती तो कल बननेवाले नागरिकों के साथ वह आज किस तरह भेदभाव कर सकती है?
मुझे यह बिल पहली ही नज़र में असंवैधानिक लगता है। लेकिन कोई इसपर सुप्रीम कोर्ट में नहीं जा सकता क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय नीति के तहत किसी बिल पर सुनवाई नहीं करता, वह क़ानून बनने के बाद ही उसपर विचार करता है। मेरी समझ है कि लोकसभा में पास होने के बाद यदि यह राज्यसभा में भी पास हो गया और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के बाद क़ानून बन गया तो उसको सुप्रीम कोर्ट में अवश्य चुनौती मिलेगी और वहाँ इसका रद्द होना तय है।
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