भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर और उसके ख़िलाफ़ चले आंदोलन की पीठ पर सवार होकर केंद्र की सत्ता हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी ने साढ़े चार साल की चुप्पी के बाद आख़िरकार लोकपाल नियुक्त कर तो दिया, पर इससे जितने सवालों के उत्तर मिल रहे हैं, उससे ज़्यादा सवाल खड़े हो रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या इससे वाकई भ्रष्टाचार ख़त्म करने में मदद मिलेगी? लेकिन मौलिक सवाल तो यह है कि लोकपाल आख़िर क्या कर लेगा?
क्या हैं लोकपाल के अधिकार?
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 के अनुसार, लोकपाल को सीबीआई समेत तमाम जाँच एजेन्सियों की निगरानी करने का ह़क है।
- लोकपाल जिन मामलों की जाँच की अनुशंसा सीबीआई से करेगा, उससे जुड़े अफ़सरों का तबादला बग़ैर लोकपाल की पूर्व अनुमति के सीबीआई नहीं कर सकता है।
- लोकपाल को भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति को जब्त करने का हक़ होगा, भले ही उस मामले पर अंतिम फै़सला होना बाकी हो।
- लोकपाल क़ानून में यह कहा गया है कि भ्रष्टाचार के मामलोें में प्रारंभिक पूछताछ, जाँच और मुक़दमे का समय तय होगा, यानी इसमें बेवजह देरी नहीं का जा सकेगी या मामले को राजनीतिक कारणों से लटकाया नहीं जा सकेगा।
- लोकपाल को यह हक़ होगा कि वह पब्लिक सर्वेंट्स पर मुक़दमा चलाने की अनुमति दे सकेंगे।
- सीबीआई को वकीलों के लिए सरकार पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं होगी, वह लोकपाल की सलाह पर वकीलों की नियुक्ति कर सकता है।
ख़ामियाँ
- लेकिन इस लोकपाल क़ानून की सबसे बड़े ख़ामी यह है कि इसके तहत प्रधानमंत्री को कई मामलों में छूट दी गई है।
- दूसरी बात यह है कि 'मशहूर न्यायविद' या 'पर्सन ऑफ़ इंटीग्रिटी' की परिभाषा तय नहीं की गई है। कोई कैसे तय कर सकता है कि कौन इस पर खरा उतरता है। सरकार जिसे चाहे चुन ले या न चुने, उस पर अंकुश कैसे लगेगा क्योंकि कोई नहीं जानता कि कौन 'पर्सन ऑफ़ इंटीग्रिटी' है, कौन नहीं।
- गोपनीय जानकारी देने वाले ह्विसलब्लोअर की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं है। ऐसे में कोई ख़तरा उठा कर जानकारी क्यों देगा, सवाल यह है।
नीयत पर सवाल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं और ऐसा होना स्वाभाविक है। इसकी वजहें हैं। यह क़ानून 2013 में ही पारित हो गया। यानी मोदी की सरकार बनने के पहले ही यह क़ानून था, लेकिन सरकार पूरे कार्यकाल इस पर चुप्पी साधे बैठी रही। इस बीच कई राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति हुई, कई बार यह माँग उठाई गई कि केंद्र सरकार लोकपाल की नियुक्ति कर दे, पर मोदी इस पर टाल मटोल करते रहे।प्रधानमंत्री ने लोकपाल की नियुक्ति में काफी हीला हवाला किया और बहानेबाज़ी करते हुए लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने दी। अन्ना हज़ारे के अनशन शुरू करने के बाद सरकार ने कहा कि वह लोकपाल की नियुक्ति करेगी और किया भी। यह वही हज़ारे हैं, जिन्होंने कांग्रेस शासनकाल में लोकपाल के मुद्दे पर बड़ा आंदोलन खड़ा किया था। उस आंदोलन की कोख से आम आदमी पार्टी निकली और उस आंदोलन को बीजेपी ने ज़ोरदार तरीके से भुनाया। नरेंद्र मोदी ने 2014 के लगभग हर चुनावी सभा में इसे मुद्दे बनाया। पर सत्ता में आने के बाद वह पाँच साल चुपचाप बैठे रहे।
लोकपाल के चयन के लिए बनी समिति में प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के अलावा मुख्य विपक्षी दल का नेता भी होता है। तकनीकी रूप से इस बार कोई मुख्य विपक्षी दल नहीं था क्योंकि इसके लिए ज़रूरी 10 प्रतिशत सीटें विपक्ष में किसी को नहीं मिली थी, सबसे बड़े दल कांग्रेस को भी नहीं। सरकार इसे ढाल बना कर मामले को टालती रही।
इसे इस तरह समझा जा सकता है कि सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में भी यह प्रावधान है, लेकिन सरकार ने बाद में लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को इसके लिए बुलाया और वे गये भी। लेकिन लोकपाल की नियुक्ति के मामले में सरकार इसी बहाने मामले को टालती रही। जब उसे इस पर नियुक्ति करने की इच्छा हुई तो उसने मल्लिकार्जुन खड़गे को विशिष्ट आमंत्रित अतिथि के रूप में बुलाया, लेकिन वह यह कह कर नहीं गये इसकी कोई व्यवस्था क़ानून में नहीं है। ख़ैर, लोकपाल की नियुक्ति हुई।
लोकायुक्त से क्या हुआ?
लोकायुक्त से जुड़े विधेेयक पारित कराने वाला पहला राज्य महाराष्ट्र था। लेकिन बाद में बिहार, उत्तर प्रदेश, ओड़ीशा, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल, आंध प्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा, दिल्ली में भी लोकायुक्त से जुड़े विधेयक पारित कर दिए गए और ज़्यादातर राज्यों में उनकी नियुक्ति भी हुई। लेकिन यह कहना ज़्यादती होगी कि इन राज्यों में भ्रष्टाचार पर रोक लग गई है। इन राज्यों में भ्रष्टाचार से जुड़ी लड़ाई में लोकायुक्त की बहुत अधिक भूमिका नहीं दिखती या कम से कम उसकी चर्चा नहीं होती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि लोकपाल की नियुक्ति से क्या फ़र्क पड़ेगा।लोकपाल क़ानून 2014 के मुताबिक़, लोकपाल के तहत प्रधानमंत्री को लाया गया, पर वह उनसे आंतरिक व बाहरी सुरक्षा, लोक प्रशासन, परमाणु और अंतरिक्षा मामलों में पूछताछ नहीं कर सकता है। यह कहा जा सकता है कि इन मामलों में प्रधानमंत्री को सुरक्षा दी जानी चाहिए, यह देश हित में है। पर बाहरी और आंतरिक सुरक्षा की परिधि बहुत ही बड़ी है और इन मामलों में प्रधानमंत्री को छूट मिलने से इसकी धार कम हो जाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिन राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति हुई है, वहाँ भ्रष्टाचार के ख़त्म होने का दावा कोई नहीं कर सकता है। फिर इसका क्या मतलब है, यह सवाल उठना लाज़िमी है।
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