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क्या नागरिकता संशोधन बिल राज्यसभा में भी पारित हो जाएगा?

क्या सरकार नागरिकता संशोधन विधेयक (सिटीज़नशिप अमेंडमेंट बिल यानी सीएबी) राज्यसभा से पारित करवा लेगी, यह सवाल विपक्षी दल ही नहीं ख़ुद सत्तारूढ़ दल के अंदर भी पूछा जा रहा है। बीजेपी ने पिछले लोकसभा में भी यह विधेयक संसद में पेश किया था, लोकसभा से पारित भी करवा लिया था, पर राज्यसभा में यह मामला लटक गया। उसके बाद संसद का कार्यकाल ही ख़त्म हो गया। लोकसभा से पारित विधेयक इसके साथ ही निरस्त हो गया। 

बीजेपी ने एक बार फिर यह विधेयक पेश करने की योजना बना ली है। इसकी पूरी संभावना है कि यह विधेयक 9 दिसंबर को संसद में पेश किए जाने की संभावना है। कैबिनेट ने इसकी मंज़ूरी दे दी है। यह विधेयक लोकसभा में कोई मुद्दा नहीं बनेगा क्योंकि वहाँ सत्तारूढ़ दल के पास पर्याप्त संख्या में सांसद हैं। 

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पर राज्यसभा में अभी भी बीजेपी के पास किसी भी विधेयक को पारित कराने लायक पर्याप्त संख्या में सांसद नहीं हैं। फ़िलहाल राज्यसभा में 238 सदस्य हैं, यानी सरकार को यह विधेयक पारित कराने के लिए कम से कम 120 सदस्य चाहिए। सत्तारूढ़ बीजेपी के पास 83 सदस्य हैं, पर गठबंधन यानी एनडीए के पास 118 सदस्य हैं।
यदि एनडीए ने पूरा एकजुट होकर मतदान किया तो सरकार को सिर्फ़ दो सांसद विपक्ष से तोड़ने होंगे। कुछ सदस्यों के मतदान के दौरान ग़ैरहाज़िर होने से भी यह काम हो जाएगा। पर क्या बीजेपी ऐसा कर पाएगी, सवाल यह है। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल तो यह भी है कि क्या विपक्ष पूरी तरह एकजुट होकर विधेयक के ख़िलाफ़ मतदान करेगा?

जनता दल (युनाइटेड)

पिछली बार जब बीजेपी ने यह विधेयक लोकसभा में पेश किया था, जनता दल (युनाइटेड) ने मतदान का बॉयकॉट किया था। इतना ही नहीं, उसने इस बिल का ज़ोरदार विरोध किया था और इसके ख़िलाफ़ मुहिम चलाई थी। पार्टी के प्रतिनिधि पूर्वोत्तर गए, वहाँ के ग़ैरसरकारी संगठनों और राजनीतिक दलों से मुलाक़ात कर उनकी राय ली थी और एलान किया था कि वह हर हाल में इसका विरोध करेगी। 

पर इस बार जनता दल युनाइटेड का रवैया बदला हुआ है। वह इसका विरोध नहीं कर रहा है। राज्यसभा में इसके 6 सदस्य हैं। 

बीजू जनता दल

बीजू जनता दल ने भी इसका विरोध किया था। बीजेपी सदस्य राजेंद्र अग्रवाल की अगुआई वाली संयुक्त संसदीय समिति ने जब अपनी रिपोर्ट दी थी और उसे संसद में पेश करने की सिफ़ारिश की थी, बीजेडी के भतृहरि मेहताब ने इसका विरोध किया था और एक ‘डिसेन्ट नोट’ (असमति का नोट) दिया था। उन्होंने कहा था कि यह असम समझौते के ख़िलाफ़ है।
बीजेडी का तर्क था कि असम समझौते के तहत जो लोग 25 मार्च, 1971 तक भारत आ गए थे, उन्हें नागरिकता मिल सकती है, उसके बाद के लोगों को नहीं। पर नागरिकता संशोधन विधेयक में यह तारीख़ 31 दिसंबर, 2014 कर दी गई, यानी उस तारीख़ तक आए लोगों को नागरिकता दी जा सकती है।
अब बीजेडी का भी रुख बदला हुआ है, क्योंकि सरकार इस विधेयक से आदिवासी इलाक़ों को बाहर करने पर राज़ी हो गई है। राज्यसभा में इस पार्टी के 7 सदस्य हैं।

क्यों हो रहा है विरोध?

नागरिकता संशोधन विधेयक में यह प्रावधान है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान से शरणार्थी के रूप में भारत आए हिन्दू, बौद्ध, सिख, ईसाई, पारसी और जैन समुदाय के लोगों को नागरिकता दी जा सकती है। पर इसमें मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया है। 
दूसरे धर्मों के शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता मिल जाएगी, पर मुसलमानों को नहीं। सारा विरोध इसी मुद्दे पर हो रहा है कि धर्म के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जा सकता, यह संविधान की मूल अवधारणा के ख़िलाफ़ है।

पूर्वोत्तर की स्थिति?

कैबिनेट ने जिस मसौदे को मंज़ूरी दी है, उसके अनुसार, इनर लाइन परमिट और छठी अनुसूची में शामिल इलाक़े इसके तहत नही लाए जाएंगे, यानी इन इलाक़ों में यह लागू नहीं होगा। अरुणाचल, मिज़ोरम और नागालैंड में इनर लाइन परमिट लागू होता है। छठी अनुसूची में असम, त्रिपुरा, मेघालय और मिज़ोरम हैं। यानी इन राज्यों में यह विधेयक लागू नहीं होगा। इस तरह मणिपुर को छोड़ कर पूरा पूर्वोत्तर नागरिकता संशोधन विधेयक से बाहर है। 

तृणमूल कांग्रेस

तृणमूल कांग्रेस ने पहले इसका मुखर विरोध किया था। पर वह इस पर चुप है। उसका मूल आधार पश्चिम बंगाल है, जहाँ बांग्लादेश से आए लोगों की तादाद एक अनुमान के मुताबिक एक तिहाई यानी लगभग 3 करोड़ है। ये अलग-अलग समय में अलग-अलग कारणों से आए हुए लोग हैं। इनमें बड़ी तादाद हिन्दुओं की है, मुसलमान कम हैं। पर यह मुद्दा मुसलमानों के लिए भावनात्मक रूप से महत्वपूर्ण है।
तृणमूल इस पर विचार कर रही है कि वह विधेयक का विरोध कर मुसलमानों के साथ खड़ी दिखे और उनका समर्थन हासिल करे। पर इसमें पेच यह है कि यदि बीजेपी ने इसे मसलिम तुष्टीकरण क़रार देकर उठा लिया तो पार्टी फँस सकती है।
मुसलिम तुष्टीकरण के नाम पर ही बीजेपी ने अपने को राज्य में खड़ा किया है और सत्तारूढ़ दल को चुनौती ही नहीं दे रही है, बल्कि कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को पीछे छोड़ते हुए मुख्य विपक्षी दल बनने की ओर तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में तृणमूल उसे कोई बहाना नहीं देना चाहती। वैसे भी, पश्चिम बंगाल में बहुत थोड़े लोग ही इसकी चपेट में आएंगे। 

वाईएसआर कांग्रेस

तेलंगाना की मुख्य पार्टी वाईएसआर कांग्रेस विधेयक के पक्ष में है। उसका तर्क है कि यदि बाहर से आए कुछ लोगों की मदद की जा रही है तो इसमें क्या दिक्क़त है। वह मुसलमानों के साथ भेदभाव के मुद्दे को नज़रअंदाज कर रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि तेलंगाना में ऐसे लोग नहीं के बराबर ही होंगे जो इस विधेयक से किसी रूप में प्रभावित होंगे। 

छोटे दल

बीजेपी का एक और सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल भी सरकार का विरोध नहीं करेगा, ऐसा लगता है। लोक जनशक्ति पार्टी, आम आदमी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, डीएमके भी सरकार के ख़िलाफ़ नहीं जाएंगे क्योंकि उनके राज्यों में इसका कोई प्रभाव नहीं है। 

सीपीआईएम

भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस विधेयक के एकदम ख़िलाफ़ है। पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने ज़ोर देकर कहा है कि इसे वापस लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि यह लागू हो गया तो भारतीय संविधान के चरित्र को बदल देगा।

कांग्रेस

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस अभी भी इस मुद्दे पर साफ़ नहीं है। पिछली बार इसने विरोध किया था। संयुक्त संसदीय समिति को कांग्रेस की सुष्मिता देव, प्रदीप भट्टाचार्य और भुवनेश्वर कलीता ने विरोध पत्र सौंपा था। 

कांग्रेस का तर्क है कि नागरिकता संशोधन विधेयक संविधान के ख़िलाफ़ है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 14 के मुताबिक़, धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। चूँकि इस विधेयक में दूसरे धर्मों के लोगों को छूट दी गई है, सिर्फ़ मुसलमानों को इसके तहत नागरिकता नहीं मिल सकती है, लिहाज़ा, यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव का मामला है।
ऐसा लगता है कि सरकार को राज्यसभा में पारित कराने में कोई ख़ास दिक्क़त नहीं होगी। इसे बस योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा, अपने सहयोगियों को संभाल कर रखना होगा और छोटी पार्टियों पर ध्यान देना होगा।

दूरगामी रणनीति

यदि बीजेपी इस विधेयक को संसद से पारित करवा लेगी तो उसे इसके कई फ़ायदे होंगे। वह यह साबित कर देगी कि राज्यसभा जहाँ उसका बहुमत नहीं है, वहाँ भी उसका विरोध नहीं है और वह अपनी बात मनवा लेती है। यह विपक्ष की हार ही तो है। दूसरे, उसे दूरगामी राजनीतिक फ़ायदे होंगे। वह यह दावा कर सकेगी कि उसने अपने चुनाव पूर्व वायदे निभाए हैं। वह जो कहती है, कर दिखाती है।
बीजेपी असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजेन्स (एनआरसी) के मुद्दे पर बुरी तरह फँसी हुई है, उसे राहत मिलेगी। उसने  असम में हिन्दू समुदाय को खुश करने के लिए मुसलमानों को निशाना बनाना चाहा, लेकिन जब अंतिम एनआरसी सूची तैयार हुई तो उसमें 19 लाख लोग बाहर छूट गए, जिनमें से 12 लाख तो हिन्दू हैं। उसी तरह पश्चिम बंगाल में वह चुप हो गई है, क्योंकि वहाँ तो बांग्लादेश से आए हुए लोगों की बहुत बड़ी तादाद है। लेकिन यदि नागरिकता विरोधी विधेयक पारित हो जाता है तो वह हिन्दुओं को और इस तरह बड़ी आबादी को आश्वस्त कर पाएगी। यह एक तरह से डैमेज कंट्रोल होगा। इससे एनआरसी के मुद्दे पर उसे शर्मिंदगी नहीं झेलनी होगी और नुक़सान भी नहीं होगा। 

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प्रमोद मल्लिक

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