बज़ट 2021 भी आ गया और क्रेडिट पॉलिसी भी। चारों तरफ धूम मची है कि वित्त मंत्री ने हिम्मत दिखाई, पॉपुलिस्ट या लोक लुभावन एलान करने के बजाय बड़े सुधारों पर ज़ोर दिया। आगे चलकर इससे आर्थिक तरक्क़ी रफ़्तार पकड़ेगी और तब नौजवानों को रोज़गार भी मिलेंगे और बाकी देश को फ़ायदे भी।
रिजर्व बैंक ने भी इसी नीति पर मुहर लगा दी है और साथ में यह एलान भी किया कि महंगाई फिलहाल काबू में है और आगे भी काबू में रहनेवाली है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है?
महँगाई कम
रिज़र्व बैंक की क्रेडिट पॉलिसी में कहा गया कि नवंबर में जो खुदरा महँगाई का आँकड़ा 6.9% पर था, वह दिसंबर में गिरकर 4.59% पर आ चुका था। इसमें बड़ी भूमिका रही खाने पीने की चीज़ों यानी फूड बास्केट की महँगाई में आई कमी की।
यह आँकड़ा नवंबर के 9.5 प्रतिशत से गिरकर दिसंबर में 3.41% पर पहुँच चुका था। इसकी सबसे बड़ी वजह मौसम है यानी सब्जियों के दाम में आई गिरावट। हम सब जानते हैं कि किस मौसम में सब्ज़ी आसमान पर पहुँच जाती है और कब वह ज़मीन पर उतर आती है।
ब्याज दरों में और कटौती?
फिर भी रिज़र्व बैंक का अनुमान है कि जनवरी से मार्च तक महंगाई दर 5.4% पर रहेगी, अप्रैल से सितंबर तक यह 5.2% से 5% के बीच होगी और सितंबर के बाद यानी अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर में घटकर 4.3% ही रह जाएगी। इसी भरोसे रिज़र्व बैंक को लगता है कि ब्याज दरों में और कटौती की ज़रूरत भी नहीं है और वह बैंकों को नकदी रखने में दी गई छूट भी धीरे धीरे वापस ले सकता है।
लेकिन रिजर्व बैंक ने ही इस पॉलिसी के पहले देश के अलग अलग हिस्सों में जो सर्वे किया है उसमें शामिल परिवारों को महँगाई बढ़ने का डर सता रहा है। खासकर सर्विसेज़ यानी सेवाओं के मामले में। रिजर्व बैंक अब हर दो महीने में ऐसा एक सर्वे करता है।
महँगाई बढ़ने का डर
इसमें यही पता लगाने की कोशिश होती है कि परिवार की शॉपिंग लिस्ट को देखते हुए इन परिवारों की महँगाई के बारे में क्या उम्मीदें या आशंकाएँ हैं। इस बार के सर्वे में पिछले ऐसे सर्वेक्षणों के मुक़ाबले लोगों के मन में अनिश्चितता ज्यादा दिखाई पड़ी। और ज्यादातर लोगों को तीन महीने में महंगाई बढ़ने का जितना डर है उससे कहीं ज्यादा डर है कि साल भर में महँगाई बढ़ेगी।
अर्थनीति के तमाम विद्वान भी बजट को देखने के बाद कह चुके हैं कि अब हमें महंगाई के एक तगड़े झटके के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन उस तर्क पर जाने से पहले किसी भी आम आदमी के दिमाग में आने वाला सबसे बड़ा सवाल है पेट्रोल और डीज़ल के दाम।
आज़ादी के बाद कई दशक तक सरकार डीज़ल पर भारी सब्सिडी देती रही, क्योंकि यह माना जाता है कि डीजल का दाम बढ़ने से महंगाई बढ़ने का सीधा रास्ता है। खेतों में सिंचाई के लिए, ट्रैक्टर से जुताई के लिए, सड़कों पर ट्रकों से माल ढुलाई के लिए, बसों से आनेजाने के लिए और काफी वक्त तक ट्रेनें चलाने और बिजली बनाने के लिए भी डीज़ल का इस्तेमाल होता था।
तेल का खेल!
तो डीजल का दाम बढ़ने का सीधा मतलब होता था यह सारी चीजें महंगी हो जाना। आज की तारीख में बस और ट्रेन डीज़ल से चलना काफी कम हो चुका है। लेकिन ट्रक और ट्रैक्टर आज भी इसके भरोसे हैं। इसलिए महंगाई बढ़ाने में इसकी भूमिका अब भी काफी महत्वपूर्ण है।
आश्चर्य की बात यह है कि पिछले दिनों पेट्रोल और डीज़ल के दाम रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँचने के बावजूद इसपर कोई हो हल्ला क्या सुगबुगाहट तक सुनाई नहीं पड़ती। पिछले शुक्रवार को ही पेट्रोल का भाव दिल्ली में 86.95 रुपए और मुंबई में 93.44 रुपए पर पहुंच चुका था।
राजस्थान के श्रीगंगानगर में तो प्रीमियम पेट्रोल 100 रुपए का आँकड़ा पार कर चुका है और सामान्य पेट्रोल भी सेंचुरी मारने के नज़दीक ही है। और ऐसा कब? जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के भाव करीब 55 डॉलर प्रति बैरल पर हैं। जून 2008 में यही भाव 166 डॉलर तक चढ़ा था और उसके बाद भी कई साल 100 से 120 डॉलर के बीच झूलता रहा।
जून 2014 में यह 115 डॉलर के करीब था और तब से इसमें लगातार गिरावट देखी गई। यह 37 डॉलर तक गिरने के बाद यह 76 डॉलर तक चढ़ा और फिर गिरते हुए लॉकडाउन के वक़्त यानी पिछले मार्च अप्रैल में 19-20 डॉलर तक गिरने के बाद पचपन डॉलर के आसपास चल रहा है।
भारत के बाज़ार में क्या हुआ?
2014 में जब दुनिया के बाज़ारों में कच्चा तेल गिरने लगा, तब से ही यह उम्मीद की जा रही थी कि सरकारी तेल कंपनियाँ अब इसका फायदा ग्राहकों तक पहुँचाएंगी और यहाँ भी पेट्रोल डीज़ल सस्ता मिलेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
सरकार ने तय किया कि दाम गिरने के साथ साथ वो इन चीजों पर एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाती चलेगी। मतलब दाम जितना कम हुआ उसका फायदा सरकार की झोली में चला गया।
इसके हिसाब से 1 फरवरी को कंपनी दिल्ली में 86 रुपए 30 पैसे का एक लीटर पेट्रोल बेच रही थी। इसमें से कंपनी का दाम और भाड़ा जोड़कर डीलर तक यह 29.71 रुपए में पहुँचा। 32.98 एक्साइज़ ड्यूटी और डीलर का कमीशन 3.69 रुपए। अब इसपर वैट लगा 19 रुपए 92 पैसे जो राज्य सरकार को मिलता है। यानी तीस रुपए से कम के पेट्रोल पर केंद्र सरकार करीब तैंतीस रुपए और राज्य सरकार करीब बीस रुपए टैक्स वसूल रही हैं।
क्या कहना है सरकार का?
शुरू में केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि पिछले वर्षों में सरकार ने काफी सब्सिडी दी है और यह डर भी है कि आगे कच्चे तेल का दाम फिर बढ़ सकता है, इसीलिए सरकार दाम कम करने के बजाय टैक्स लगाकर एक रिजर्व फंड बना रही है ताकि आगे चलकर दाम बढ़े तो कंज्यूमर पर बोझ न पड़े।
लेकिन अब जब कोरोना से मार खाए कंज्यूमर को राहत की ज़रूरत है तो सरकार का हाल यह है कि एक्साइज ड्यूटी के खाते में कुल तीन 3,35,000 करोड़ रुपए की कमाई में से 2,80,000 करोड़ से ज़्यादा की रकम पेट्रोल डीज़ल के खाते ही चढ़ी हुई है।
यानी जब तक कमाई के दूसरे रास्ते सुधरते नहीं तब तक यहाँ राहत की गुंजाइश कम ही है। डीजल और पेट्रोल पर नया सेस लगने से भी लोग आशंकित हैं। हालांकि सरकार ने कहा है कि इसका असर खरीदारों पर नहीं पड़ेगा। लेकिन कब तक नहीं पड़ेगा, यह सवाल लोगों के मन में बना हुआ है।
सेवाएं भी होंगी महंगी
डीजल और पेट्रोल से महंगाई बढ़ने के साथ साथ आर्थिक विशेषज्ञों को दूसरी चिंताएं भी सता रही हैं। एक तो है सर्विसेज के दाम बढ़ने का डर।
आरबीआई के सर्वे में शामिल परिवारों ने भी यह चिंता जताई है और बाज़ार पर नज़र रखनेवाले अर्थशास्त्रियों का भी कहना है कि अब जैसे जैसे बाज़ार में माँग बढ़ेगी, तरह तरह के ऑपरेटरों में अपनी फीस या रेट बढ़ाने की हिम्मत आएगी।
आइएचएस- मार्किट के पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स सर्वे के मुताबिक लगातार सात महीने से ऐसी कंपनियों की लागत यानी खर्च तो बढ़ रहा है, लेकिन दाम बढ़ाने के हालात बन नहीं रहे थे। अब भी भारती एयरटेल जैसी कंपनी का बयान आ चुका है कि टेलिकॉम में रेट बढ़ाने की शुरुआत वे नहीं करेंगी। लेकिन हर जगह टेलिकॉम जैसा गलाकाट मुकाबला तो है नहीं। इसलिए जो बढ़ा पाएगा, वो दाम बढ़ाएगा।
सरकार का दाँव
दूसरा डर पैदा हो रहा है सरकारी खर्च और कर्ज में आनेवाली बढ़ोतरी से। शेयर बाज़ार के दिग्गज और मार्सेलस फंड मैनेजर्स के सीआईओ सौरभ मुखर्जी का कहना है कि सरकार ने इस बजट में एक बड़ा दाँव लगाया है, जिसके लिए बहुत पैसे की ज़रूरत है। सरकार यह रकम बाज़ार से उठाएगी तो कर्ज महंगा होना यानी उसपर ब्याज बढ़ने का डर है। दूसरी तरफ अमेरिका जमकर नोट छाप रहा है। इसलिए महंगाई एक बड़ी मुसीबत बन सकती है।
कुछ ही समय पहले जर्मनी में ब्याज दरें शून्य के नीचे जा चुकी हैं और अब बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी बैंकों को ऐसे हालात के लिए तैयार रहने को कहा है। यानी बैंक में पैसा रखने पर ब्याज मिलने के बजाय फीस चुकानी पड़ेगी। ज़ाहिर है, तब दुनिया भर से बहुत सा पैसा भारत जैसे देशों में आ सकता है।
इससे कर्ज महंगा होने का डर भले ही खत्म हो जाए, लेकिन बाज़ार में पैसा ज़्यादा हो जाने का असर महंगाई बढ़ना भी होता है। पहले ही दुनिया भर में इस्पात का दाम बढ़ रहा है। भारत में भी इस्पात और सीमेंट की कीमतें बढ़नी शुरू हो चुकी हैं।
ऐसे में सरकार के सामने बड़ा सवाल यह है कि क्या वह देश की तरक्क़ी को बहुत तेज़ी से इतना बढ़ा सकती है कि लोगों को काम मिल जाए, उनकी आमदनी बढ़ जाए और वो थोड़ी बहुत महंगाई बढ़ने की फिक्र से मुतमईन रहें। या फिर कुछ ही समय बाद लोग ग्रोथ की चिंता छोड़कर 'हाय महँगाई' का नारा लगाते नज़र आएंगे?
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