पहले पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक, उसके बाद इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फ़ाइनेंशियल सर्विसेज (आईएल एंड एफ़एस) और उसके बाद अब यस बैंक। छह महीने में तीन बैंक या वित्तीय कंपनियों का भट्ठा बैठ चुका है। यह उस बैंकिंग व्यवस्था में हुआ है, जहां नीरव मोदी, विजय माल्या और मेहुल चोक्सी जैसे लोग पहले ही अरबों रुपये का चूना लगा कर रफूचक्कर हो चुके हैं।
इसके बावजूद डूब चुके पैसे वाली अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की कोई योजना केंद्र सरकार के पास नहीं है। सरकार ने अब तक कोई योजना नहीं पेश की है, जिससे यह आश्वासन मिले कि भविष्य में इस तरह की घटना नहीं होगी, जमाकर्ताओं के पैसा नहीं डूबेंगे, करदाताओं को चूना नहीं लगाया जाएगा।
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यस बैंक से महीने भर में 50 हज़ार रुपए निकालने की सीमा का एलान रिज़र्व बैंक ने किया, उसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह कह कर लोगों को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि जमाकर्ताओं के पैसे नहीं डूबेंगे। लेकिन न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न ही वित्त मंत्री ने असली समस्या पर एक शब्द कहा और वह असली समस्या है बैंकों के डूबे हुए क़र्ज़।
बैंको के डूबे क़र्ज़ और एनपीए के रूप में फंसे पैसे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे नासूर बन चुके हैं, जिन्हें ठीक करने का उपाय न पहले की सरकारों के पास था, न मौजूदा सरकार के पास है।
यस बैंक का संकट
रिज़र्व बैंक ने अपनी जाँच में पाया है कि वित्तीय वर्ष 2018-2019 में यस बैंक के 3,299 करोड़ रुपए के क़र्ज़ ऐसे थे, जिन पर उसे कोई ब्याज़ नहीं मिल रहा था या पैसे डूब चुके थे। इसके पास पहले से ही 1,259 करोड़ रुपए के वैसे कर्ज थे, जिन पर इसे कम से कम तीन किश्त नहीं मिले थे। ऐसे क़र्ज़ को नन परफॉर्मिंग असेट यानी एनपीए कहते हैं।लेकिन इसके बाद भी बैंक ने 2,100 करोड़ रुपए के क़र्ज़ दे दिए, जो जल्द ही एनपीए बन गए। यानी बैंक ने खराब स्थिति से शिक्षा लेने के बजाय ऐसे क़र्ज़ दे दिए, जिस पर इसे ब्याज नहीं मिले। सवाल यह उठता है कि यस बैंक ने बढ़ते एनपीए के बावजूद क़र्ज देने की नीति की समीक्षा क्यों नहीं की, एनपीए वसूलने की कोशिश क्यों नहीं की। क्या यह भूल से हुई या जान बूझ कर ऐसा किया गया, यह सवाल भी लाज़िमी है।
लेकिन मामला यस बैंक तक ही सीमित नहीं है। इंडियन बैंक, यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया, बैंक ऑफ़ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया और लक्ष्मी विलास बैंक ने भी एनपीए की बात कही थी। यानी इन्होंने साफ़ तौर पर कहा है कि उनके कर्ज़ पर उन्हें ब्याज नहीं मिल रहे हैं।
छोटों पर मार, बड़ों को पुचकार!
सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के बैंकिंग उद्योग में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि डूबे हुए पैसे की सही उगाही हो जाए। इसका दुखद पहलू यह भी है कि छोटे कर्जदाताओं से पैसे वसूल लिए जाते हैं, पर अरबों रुपए डकार लेने वाले पैसे वापस लेना मुश्किल होता है।नीरव मोदी, विजय माल्या और मेहुल चोक्सी पर जितना बकाया है, उनकी पूरी संपत्तियों को बेच कर भी उतने पैसे नहीं मिल सकते। मुमकिन है कि इस डूबी रकम का बड़ा हिस्सा बट्टे खाते में डाल दिया जाए।
खरबों रुपए डूब गए
भारतीय रिज़र्व बैंक के मुताबिक़, साल 2014-2018 के दौरान सरकारी बैंकों ने 3,16,500 करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाल दिया। पर इस दौरान उसे महज़ 44,900 करोड़ रुपए के डूबे हुए कर्ज़ वापस मिले।क्या है सरकार की योजना?
यह रोग पुराना है, उसका निदान ढूंढने की कोशिश भी पुरानी है, पर नतीजा सिफ़र है। नब्बे के दशक में आर्थिक सुधार शुरू होते समय ही बैंकिंग क्षेत्र के सुधार के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री ने नरसिम्हन कमिटी का गठन किया था। रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर एम नरसिम्हन ने अपनी पहली रिपोर्ट 1991 में और दूसरी 1998 में सौंपी थी। बैंकिंग क्षेत्र में सुधार हुआ।नरसिम्हन कमिटी की सिफ़ारिशों के आधार पर बैंकों का बड़े पैमाने पर कंप्यूटरीकरण, निजीकरण, विलय, छंटनी वगैरह का काम किया गया। पर एनपीए की समस्या का समाधान नहीं निकला।
मोदी सरकार ने एक्सिस बैंक के पूर्व अध्यक्ष पीजे नायक की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया। कमिटी ने सिफ़ारिश की है कि सरकार एक होल्डिंग कंपनी बनाए, जो तमाम सरकारी बैंकों का कामकाज देखे। इस कंपनी में सरकार की दख़लअंदाज़ी न हो।
लेकिन बात घूम कर वहीं पहुँचती है, एनपीए का क्या होगा? सरकार इस संकट से उबरने के लिए क्या कर रही है? डूबे पैसे बट्टे खाते में डाल देना सबसे सहज उपाय है, पर यह पैसा आम करदाताओं का है। दूसरी बात, इससे तो पैसे लेकर नहीं चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी।
इस पर सरकार चुप है। कहीं से कोई जवाब नहीं आया है। न वित्त मंत्री ने कुछ कहा है, न 'सब चंगा सी' का उद्गोष करने वाले प्रधानमंत्री ने ही कोई घोषणा की है। क्या हमें एक और बैंक के डूबने का इंतजार है?
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