ईरानी कमान्डर कासिम सुलेमानी की अमेरिकी ड्रोन हमले में मौत से पहले से बदहाल भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक और चोट पड़ेगी, यह तय है। कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमतों से भारत पर अरबों रुपये का अतिरिक्त बोझ तो पड़ेगा ही, यह तेल किससे और कितना खरीदेगा, उसे इस पर भी विचार करना होगा। भारत को कच्चे तेल खरीद की अपनी रणनीति बदलनी होगी ताकि बढ़ी हुई कीमत पर ही सही, उसे कच्चा तेल लगातार मिलता रहे।
यह तो साफ़ है कि खाड़ी संकट से तेल का बाज़ार बुरी तरह प्रभावित होगा। सुलेमानी की हत्या की ख़बर फैलते ही कच्चे तेल की कीमतें बढ़ीं। न्यूयॉर्क मेटल एक्सचेंज में ब्रेन्ट कच्चे तेल की कीमत 4 प्रतिशत बढ़ कर 66.25 डॉलर प्रति बैरल से 69.16 डॉलर प्रति बैरल हो गई।
उच्च-स्तरीय बैठक
इंडियन एक्सप्रेस ने ख़बर दी है कि इसके तुरन्त बाद वित्त मंत्रालय में एक उच्च स्तरीय बैठक हुई। इसमें पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़े आला अधिकारी भी मौजूद थे। इस बैठक में इस पर विचार किया गया कि आने वाले तेल संकट से कैसे निपटा जाए।इस बैठक में यह फ़ैसला लिया गया कि भारत तेल खरीद के मामले में अपने पारंपरिक स्रोतों से बाहर का रुख करे। वह सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और खाड़ी के दूसरे देशों से बाहर निकल कर उन देशों की ओर ध्यान दे, जिन पर मध्य-पूर्व संकट का असर कम हो।
कनाडा, मेक्सिको से लेगा तेल?
भारत अमेरिकी दबाव में पहले ही ईरान से तेल लेना बंद कर चुका है। अब उसकी कोशिश यह होगी कि वह कनाडा, मेक्सिको और रूस से कच्चा तेल खरीदना शुरू करे। कच्चे तेल के दो बड़े स्रोत वेनेज़ुएला और ब्राज़ील भी हैं। भारत वेनेज़ुएला से तेल लेता रहा है, पर उस पर भी अमेरिकी प्रतिबंध है और भारत ईरान की तरह उससे भी तेल नहीं ले सकता। इसी तरह वह ब्राज़ील से भी तेल नहीं खरीद सकता है, हालांकि ब्राजील पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं है।भारत ने वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान वेनेज़ुएला से 8 मीट्रिक टन, रूस से 1.5 और अमेरिका से 5.4 मीट्रिक टन कच्चा तेल खरीदा।
अमेरिका के पास शेल की फ्रेकिंग यानी ख़ास किस्म के चट्टानों को तोड़ कर कच्चा तेल निकालने की तकनीक ईजाद होने के बाद अतिरिक्त तेल है। अमेरिका की दिलचस्प वही तेल भारत को बेचने की है।
तेल संकट
लेकिन भारत के लिए कच्चे तेल का सबसे बड़ा स्रोत इराक़ है। उसने बीते साल इराक़ से 26 मीट्रिक टन तो सऊदी अरब से 20 मीट्रिक टन तेल खरीदा था। भारत अपनी ज़रूरत का 85 प्रतिशत तेल आयात करता है और उसका बड़ा हिस्सा यानी लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा खाड़ी के देशों से लेता है।यदि मध्य-पूर्व संकट बढ़ा तो ईरान फ़ारस की खाड़ी और ख़ास कर होरमुज़ स्ट्रेट को बंद कर सकता है। उसने बंद नहीं भी किया तो उस रास्ते से तेल टैंकरों का आना बेहद जोखिम भरा होगा। ऐसे में भारत को कनाडा और मेक्सिको जैसे देशों की ओर ध्यान करना ही होगा।
रूस से मिलेगा तेल?
रूस के पास जो अतिरिक्त तेल है, वह उसे पूर्वी यूरोप और दूसरे देशों को देता है। पड़ोसी देश लातविया और दूसरे बाल्टिक देशों से लेकर यूक्रेन तक उसे तेल देना होता है, वह गैस तो खैर देता ही है। रूस भारत को तेल देना भी चाहे तो जाड़े के बाद गर्मियों में ही दे सकता है। पेट्रोलियम मंत्रालय इन तमाम विकल्पों पर विचार कर सकता है।लेकिन, भारत के साथ जो बड़ा संकट है, वह भुगतान संकट का है। कच्चे तेल की कीमत 69 डॉलर प्रति बैरल तो पहले ही दिन हो गई, समझा जाता है कि यह 75 डॉलर तक जा सकती है।
भुगतान संकट
पिछले सितंबर में जब सऊदी अरब पर ईरानी ड्रोन हमले से तेल की कीमतें बढ़ी थीं, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि भारत को 60 डॉलर प्रति बैरल की कीमत तक चिंता करने की ज़रूरत नहीं होगी। लेकिन यदि 75 डॉलर की कीमत चुकानी पड़ी तो क्या होगा, इसे समझा जा सकता है। ये सारे भुगतान डॉलर में ही करने होंगे, रूस को भी इसी में पैसे देने होंगे। सोवियत संघ का ज़माना गया जब भारत-रूस में रूपया-रूबल में व्यापार होता था।लेकिन बड़ी चिंता की बात तो यह है कि यह अतिरिक्त बोझ उस समय उठाना होगा जब भारत का निर्यात बुरी तरह गिरा है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत गिरने के तुरन्त बाद भारत में पेट्रोल की कीमत 10-15 पैसे प्रति लीटर बढ़ा दी गई। पर इससे कुछ नहीं होगा। भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत बेतहाशा बढ़ेगी।
पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत बढ़ने का सीधा असर यह होगा कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भी बढेगा। दूसरे सभी क्षेत्रों पर इसका असर होगा और दूसरी चीजों की कीमतें बढ़ेंगी। महंगाई बढ़ेगी।
रुपये का अवमूल्यन होगा क्योंकि तेल कंपनियों को डॉलर खरीदना होगा। खर्च बढ़ने से सरकार का राजस्व घाटा बढ़ेगा। सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि यह सारा संकट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के लिए बजट तैयार करते समय ही आएगा। मार्च के पहले हफ़्ते में वह बजट पेश करेंगी, जिसकी तैयारियाँ शुरू हो चुकी है।
अब तक यह माना जाता था कि मध्यवर्ग को खुश करने के लिए सरकार आयकर में कुछ छूट दे सकती है, लेकिन अब वह शायद ऐसा नहीं कर पाएगी।
सरकार ने कॉरपोरेट जगत को खुश करने के लिए 1.50 लाख करोड़ रुपये की सालाना छूट का एलान इसी वित्तीय वर्ष में किया है, जिसका कोई फ़ायदा किसी को नहीं दिख रहा है। उस छूट के बाद से ही सरकार पर मध्यवर्ग को कुछ देने का दबाव बन रहा था।
लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करना सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। नागरिकता संशोधन क़ानून, एनआरसी, नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर में उलझे देश में न तो सरकार और न ही आम जनता को इससे कोई ख़ास परेशानी होती है। असली चिंता की बात यह है कि सरकार इसे ठीक करने की दिशा में कुछ करेगी, ऐसा लगता नहीं है।
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