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झारखंड का जादू : लोकप्रियता बीजेपी की बढ़ी, सरकार विपक्ष की बनी

झारखंड में बीजेपी को पहले से 12 सीटें कम मिली हैं लेकिन उसका वोट शेयर 2% बढ़ गया है यानी पहले से उसकी लोकप्रियता बढ़ी है। ज़्यादा वोट मिलने के बाद भी वह इसलिए हारी कि उसने और उसके सहयोगी आजसू ने यह चुनाव मिलकर नहीं लड़ा। यदि लड़ा होता तो वे 40 सीटों पर विजयी रहते और रविवार को हेमंत सोरेन की जगह बीजेपी के ही किसी नेता ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली होती।
नीरेंद्र नागर

झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन ने रविवार को राज्य के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इसके लिए उन्हें अपनी क़िस्मत के साथ-साथ बीजेपी के नेताओं को भी धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने अपने सहयोगी दल आजसू के साथ सीटों का तालमेल करते समय लचीला रुख नहीं अपनाया और इस भरोसे रहे कि वे अपने दम पर बहुमत जुटा लेंगे।

उनका सोचना बहुत ग़लत भी नहीं था अगर हम इन चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन पर ग़ौर करें। बीजेपी की हार और उसकी सीटों में हुई कमी (37 के मुक़ाबले 25) से लगता है कि मुख्यमंत्री रघुबर दास की कार्यप्रणाली के कारण ही पार्टी वहाँ अलोकप्रिय हुई है। लेकिन सच्चाई यह नहीं है। सच्चाई यह है कि राज्य में बीजेपी की लोकप्रियता 2014 के मुक़ाबले 2% बढ़ी है यानी 31.3% से बढ़कर 33.4% हुई है। दूसरे शब्दों में 2014 में राज्य के जितने लोग बीजेपी को पसंद करते थे, 2019 में उससे ज़्यादा लोग उसे पसंद कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह बीजेपी सरकार के काम की वजह से ही हुआ होगा।

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लेकिन इसके साथ-साथ एक दिलचस्प तथ्य यह भी है संयुक्त विपक्ष की लोकप्रियता भी पहले से बढ़ी है लेकिन केवल 1.3%। कांग्रेस का वोट शेयर 3% बढ़ा है जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा का वोट शेयर क़रीब 2% घटा है।

अब अगला और महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि जब बीजेपी की लोकप्रियता 2% बढ़ी है और विपक्ष की 1% तो ऐसा कैसे हुआ कि विपक्ष की सीटें इतनी बढ़ गईं और बीजेपी की कम हो गईं?

इसका कारण सिर्फ़ यह है कि 2014 में बीजेपी ने अपने सहयोगी दल ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन पार्टी (आजसू) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। इस बार उनके बीच सीटों का तालमेल नहीं हो पाया क्योंकि आजसू 17 सीटें माँग रहा था और बीजेपी इतनी ज़्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थी। 2014 में आजसू ने 8 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उस हिसाब से वह पहले से दुगुनी सीटें माँग रही था। कोई भी पार्टी इसके लिए तैयार नहीं होगी।

नतीजा यह हुआ कि नाराज़ आजसू ने 81 में से 53 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। इन उम्मीदवारों ने इन 53 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवारों को मिलने वाले वे वोट काट लिए जो पिछली बार तालमेल के कारण उन्हें मिले थे। आजसू को भी इससे कोई लाभ नहीं मिला। 

पिछली बार बीजेपी के साथ मिलकर लड़ने पर आजसू को 8 में से 5 सीटें मिली थीं लेकिन इस बार 53 सीटों पर लड़ने के बाद उसे केवल 2 सीटों पर जीत मिली। यानी उसने बीजेपी का खेल बिगाड़ने के चक्कर में अपनी ही नाक काट ली।

बीजेपी गठबंधन में चुनाव लड़ती तो?

झारखंड के 81 चुनाव क्षेत्रों में पड़े वोटों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यदि बीजेपी और आजसू के उम्मीदवारों के मिले वोटों को जोड़ दिया जाए तो 40 सीटों पर उनके मिलेजुले वोट विपक्षी उम्मीदवार से ज़्यादा हो जाते हैं। कहने का अर्थ यह कि यदि ये दोनों पार्टियाँ मिलकर लड़ी होतीं तो 40 सीटों पर इन्हें निश्चित जीत मिली होती और हेमंत सोरेन की जगह रविवार को बीजेपी के ही किसी नेता ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली होती। 2014 में भी बीजेपी और आजसू को कुल 42 सीटें ही मिली थीं। इस हिसाब से उनको केवल 2 सीटों का नुक़सान होता जो बहुत बड़ा नुक़सान नहीं कहा जा सकता। इस कमी की भरपाई बाबूलाल मरांडी की पार्टी के विधायकों को जोड़कर या तोड़कर की जा सकती थी। पिछली बार भी बीजेपी ने विधानसभा में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए मरांडी की पार्टी के 6 विधायकों को तोड़ लिया था।

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निष्कर्ष यह कि भले ही बीजेपी झारखंड की सत्ता से बाहर हो गई हो लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि बीजेपी के समर्थक अपनी सरकार के काम से नाराज़ हो गए और उन्होंने इस बार उसे वोट नहीं दिया। यदि ऐसा होता तो पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ने के बजाय घटा होता।

पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास की हार के आधार पर भी यह निष्कर्ष निकालना ग़लत है कि बीजेपी वहाँ अलोकप्रिय हुई है क्योंकि जमशेदपुर (पूर्व) में भी विपक्ष नहीं जीता है, विजेता बीजेपी का ही बाग़ी उम्मीदवार था। विजेता सरयू राय बीजेपी और संघ के एक बहुत ही पुराने और सम्माननीय नेता रहे हैं। उन्हें विपक्ष के हिस्से के वोट भी मिले हैं।

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कुछ लोग पूछ सकते हैं कि यदि ऐसा है तो तमाम अपिनियन पोलों में बीजेपी सरकार के प्रति नाराज़गी क्यों झलक रही थी। इसका जवाब यह है कि बीजेपी सरकार को 2014 में भी 31% वोटरों का समर्थन प्राप्त था। यदि आजसू के तब के 4% वोटर जोड़ लें, तब भी उसके समर्थकों का वोट प्रतिशत 35% ही ठहरता है। ऐसे में कोई भी अपिनियन पोल होता तो 65% वोटर उसके ख़िलाफ़ ही नज़र आते। वही इन पोलों में हुआ है। 
अपिनियन पोल अपनी जगह हैं और उनके नतीजों से इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु उनसे यह तथ्य तो झूठा नहीं हो जाता कि बीजेपी को इस बार पहले से ज़्यादा वोट मिले हैं। और यदि वोट बढ़े हैं तो इसका मतलब यही है कि पिछले पाँच सालों में बीजेपी की लोकप्रियता भी - 2% ही सही - बढ़ी है। यह अलग बात है  कि लोकप्रियता उसकी बढ़ी, सरकार विपक्ष की बनी। ऐसा क्यों हुआ, इसपर हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं।
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