शब्दों के जादूगर उदय प्रकाश की एक कविता चर्चा में है। इसका शीर्षक है ‘क’। वही 'क', जिसे हिंदी पट्टी में पढ़ाई की शुरुआत करने वाला और अपने पैरों पर संभलकर चलने वाला बच्चा सबसे पहले पढ़ना, लिखना और बोलना सीखता है। उसे नहीं पता होता है कि इस टेढ़े मेढ़े आकार ‘क’ का मतलब क्या होता है। उसे सिखाया जाता है। यह हिंदी भाषियों के पाठ और पढ़ाई का पहला शब्द होता है।
वह जब कभी बचपन था
वह जब कभी काठ की पाटी सरकण्डे या करील की
चाक़ू से छील-कांछ कर बनायी गयी क़लम थी
वह जब एक सोंधी पकी हुई मिट्टी की चुकड़िया थी
जिसमें दूध जैसी छुई मिट्टी का गाढ़ा घोल था।
कविता धीरे धीरे बड़ी होती है। उन दिनों की यादों को ताजा करते हुए, जब मिट्टी की भुरकी में खड़िया का गाढ़ा घोल और उसमें नरकट या सरकंडे की छीली हुई कलम से एक नन्हा सा गांव का बच्चा गांव के बढ़ई की गढ़ी सुंदर चिकनी कालिख से रंगी और खाली शीशी से घोटकर चमकाई गई तख्ती पर क लिखना शुरू करता है। उस समय की सारी यादें जुटाते हुए कविता आगे बढ़ती है। कागज और फाउंटेनपेन याद की जाती हैं, जो गाँवों में छठी कक्षा से बच्चों को मिलनी शुरू होती थीं। कविता मम्मा, दाऊ, बुआ, फुआ-फूफा जैसे रिश्तों को याद दिलाती है। सरौतियाँ, पान की पतौखियाँ, मुँडेर के कौवे, आँगन की गौरैया भी आती हैं। कवि इन यादों के सहारे आगे बढ़ता है। वह याद करता है कि किस तरह से क से कबूतर सिखाया जाता था।
यहाँ से कवि विभिन्न विंबों में गुजरता है। शायद उसे नज़र आता है नेहरू का वह दौर, जब वे शांति के संदेश के रूप में सफेद रंग के कबूतर उड़ाया करते थे। वह कबूतर अब कवि को लहूलुहान नजर आता है। वह खूनी हाथों में है, जो शांति संदेश भूल चुका है। शायद कबूतर पकड़े शासक को अब युद्ध, उन्माद, पाकिस्तान, एयरस्ट्राइक नजर आता है। वह उस कबूतर का पंख नुच जाता है।
‘क’
लिखे को सपने में देखता रहा
तभी मैंने देखा
एक बहुत बीमार-सा, किसी तपेदिक में कांपता, एक बूढ़ा कबूतर
जिसका रंग था दूध जैसा सफ़ेद जिसके पंख थे टूटे हुए
धीरे-धीरे किसी तरह रेंगता
नींद की ड्यौढी और जागने की चौखट के पार चला गया
अचानक किसी धमाके या किसी अजीब-सी चीख़ के बीच
टूट गयी मेरी नींद
सोने और जागने के अनगिनत वर्षों से लगातार लिखी जा रही
कविता में से चला गया था वह पंख टूटा सफ़ेद बूढ़ा कबूतर
धमाकों और चीख़ की दिशा में
नींद की ड्यौढी और जागरण के चौखट के पार।
अब 'क' सीखने वाले कवि को याद आता है कि उसका वह 'क' छिन गया है, जो आगे बढ़ते, पढ़ाई करते, लिखते हुए तमाम सपनीली दुनिया दिखाता है। कवि को यह भी याद आता है कि बचपन में 'क' माने कलम भी सिखाया गया था। कवि देखता है कि किस तरह से इस 'क' के साथ कलम को भी रौंद डाला गया है।
संभवतः कवि की कल्पना में सत्ता के प्रशंसक और पैरोकार नज़र आते हैं और स्वतंत्र कलम खत्म कर दी गई दिखती है, जिसने 'क' लिखना सिखाया था। कवि को नज़र आता है जातियों और वर्णों में विभाजित समाज। वह समाज जो एक दूसरे को मार और काट डालने को तैयार है। वह समाज जो अपने ही लोगों को नीची जाति मानकर उसका शोषण करता है।
उसे संभवतः सत्ता का पूरा पदानुक्रम नज़र आता है कि समाज को जातियों और धर्मों में बाँटकर हर जाति और धर्म का शासक उस 'क' को मार देना चाहता है, जिससे बनी है कलम।
वह स्वतंत्र कलम, जो वंचितों पीड़ितों के हक़ में बनी है. कवि कहता है:
मैं डरा हुआ काल के कानों में बहुत धीरे से कहना चाहता हूँ
किसी भी वर्ण-विभाजित बर्बर समाज या समुदाय की भाषा की वर्णमाला के
पहले ही वर्ग का सबसे पहला व्यंजन
जब रटाया जायेगा
किसी प्राथमिक पाठशाला की पहली ही कक्षा के बच्चों को :
बोलो ‘क’ माने ‘कमल’
‘क’ माने ‘क़लम’
‘क’ माने ‘कबूतर’
बच्चे तो वही रटते और दोहराते हैं
जो सिखाता-पढ़ाता है उन्हें वेतन-भोगी शिक्षक।
कविता यहीं नहीं ठहरती। वह सत्ता के खूनी पंजों को आगे बढ़ाती है। वह सत्ता, जिसने 'क' माने कबूतर के सफेद पंख नोच डाले हैं। वह सत्ता, जिसने 'क' माने कलम को खत्म कर दिया है।
वह सत्ता, जिसने 'क' को मार डाला है। वह सत्ता कश्मीर तक पहुंच गई है और कश्मीर भी उसी 'क' से बना हुआ है, जिसे इस समय किसी मध्य काल की किसी जीती गई रिसासत की तरह रौंदा जा रहा है।
और कवि कहता है :
लेकिन अगर कोई सुन सके
संसार भर और ब्रह्मांड भर के बच्चों की नींद
या स्वप्न या अंतरात्मा की आवाज़
तो सुनाई देगी एक अजीब सी गूँज
दसों दिशाओं में गूँजतीं उस गूँज की अनगिनत प्रतिध्वनियाँ
‘क’
माने
‘कश्मीर’।
'क' से कमल ने 'क' से कलम को तोड़कर 'क' से कबूतर के सफेद पंख नोच डाले हैं और 'क' माने कश्मीर लहूलुहान है।
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