सुशांत सिंह राजपूत की मौत मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा है कि रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ की रिपोर्टिंग एक नज़र में अवमानना वाली है। हालाँकि, कोर्ट ने इसके लिए कोई सज़ा नहीं सुनाई, लेकिन अदालत की यह टिप्पणी इन दोनों न्यूज़ चैनलों के साथ-साथ दूसरे ऐसे चैनलों के लिए सबक़ या चेतावनी के तौर पर ज़रूर है। अदालत ने साफ़ तौर पर कहा भी है कि जब तक कोई नयी गाइडलाइंस तय नहीं हो जाती है तब तक आत्महत्या के मामलों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के दिशा-निर्देश माने।
कोर्ट की यह टिप्पणी काफ़ी अहम इसलिए है कि जब सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामला आया था तो कुछ चैनलों ने इसे हत्या क़रार देना शुरू किया। चैनलों के इस रवैये पर सवाल इसलिए उठे कि इसके लिए उनके पास कोई सबूत नहीं थे। फिर भी चैनलों ने पुलिस की जाँच पूरे होने से पहले ही फ़ैसले भी देने शुरू कर दिए। जब इस मामले में रिया चक्रवर्ती का नाम आया तो कुछ चैनल उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गए। खुलेआम अनाप-शनाप आरोप लगाए जाने लगे और इन चैनलों ने जैसे फ़ैसले सुनाने शुरू कर दिए। ड्रग्स एंगल जब जुड़ा तो इन्हीं चैनलों ने पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री को ड्रग्स की ‘इंडस्ट्री’ के तौर पर पेश करने का काम किया। लेकिन कोर्ट में क्या हुआ। कोई भी आरोप टिकते नहीं दिखे। बिना किसी सबूत के सभी मामलों में उन टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग बिना आधार की साबित हुईं।
तभी अक्टूबर महीने में सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाई कोर्ट ने इन चैनलों की रिपोर्टिंग के बारे में सख़्त टिप्पणी की थी। इसने कहा था- जाँच भी आप करो, आरोप भी आप लगाओ और फ़ैसला भी आप ही सुनाओ! तो अदालतें किसलिए बनी हैं?’ तब बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा था, ‘सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की या उसकी हत्या हुई, इस मामले की जाँच जब चल रही थी तो आप अपने चैनल पर चिल्ला-चिल्लाकर उसे हत्या कैसे क़रार दे रहे थे। किसकी गिरफ्तारी होनी चाहिए और किसकी नहीं, इस बात को लेकर आप लोगों से राय या जनमत कैसे माँग रहे थे? क्या यह सब आपके अधिकार क्षेत्र की बात है?’
बॉम्बे हाई कोर्ट ने अब सोमवार को भी वैसी ही टिप्पणी की है। मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जीएस कुलकर्णी की अध्यक्षता वाली बॉम्बे हाई कोर्ट की बेंच सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में मीडिया ट्रायल के नियमन की माँग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
हाई कोर्ट ने कहा कि मीडिया ट्रायल पुलिस की आपराधिक जाँच में हस्तक्षेप करता है और मीडिया ट्रायल केबल टीवी अधिनियम के तहत बनाए गए प्रोग्राम कोड के विरोध में चलता है।
अदालत ने टिप्पणी की, 'हमने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए मौत और आत्महत्या के मामलों की रिपोर्टिंग के बारे में दिशा-निर्देश जारी किए हैं। हमने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दिशा-निर्देशों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भी लागू किया है।'
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, हाई कोर्ट ने यह भी देखा कि सुशांत मामले में मुंबई पुलिस के ख़िलाफ़ रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ की कुछ रिपोर्टिंग 'एक नज़र में अवमानना' है, लेकिन इसने दोनों चैनलों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने से परहेज किया।
हाई कोर्ट ने कहा कि प्रेस या मीडिया को आपराधिक जाँच से संबंधित चर्चा, बहस से बचना चाहिए और सार्वजनिक हित में ऐसे मामलों में केवल सूचनात्मक रिपोर्टों तक ही सीमित रहना चाहिए। इसने कहा कि क्राइम सीन यानी अपराध के दृश्य को फिर से बनाना या किसी भी संवेदनशील जानकारी को लीक करने से बचना चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा कि हमें लगता है कि मीडिया को चल रही जाँच पर चर्चा के बारे में संयम बरतना चाहिए ताकि आरोपी और गवाह के अधिकारों के प्रति पूर्वाग्रह न हो। बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि कथित तौर पर अभियुक्त द्वारा स्वीकार किए गए एक बयान को इस तरह प्रकाशित करना जैसे कि यह एक स्वीकार्य सबूत है, बिना जनता को यह बताए कि यह कोर्ट में मंजूर नहीं है, इससे बचना चाहिए। बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि आत्महत्या की रिपोर्ट करते समय यह कहने से बचना चाहिए कि व्यक्ति ख़राब चरित्र का था।
केंद्र सरकार के वकील अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह ने दलीलें दीं कि किसी भी समाचार सामग्री को छापने या प्रसारण करने के लिए टीवी समाचार चैनलों सहित मीडिया के लिए पर्याप्त वैधानिक और सेल्फ़ रेगुलेशन मेकनिज़्म यानी स्व-नियामक तंत्र मौजूद है।
इस मामले में पक्षकार निजी टीवी समाचार चैनलों ने भी तर्क दिया था कि स्व-नियामक तंत्र पर्याप्त था और मीडिया को नियंत्रित करने के लिए किसी नए वैधानिक तंत्र या दिशा-निर्देशों की ज़रूरत नहीं है।
हालाँकि, आरोप यह लगाया जाता है कि सेल्फ़ रेगुलेशन मेकनिज़्म की आड़ में न्यूज़ चैनल मनमानी पर उतर आते हैं। जब उनके लिए दिशा-निर्देश बनाने की बात आती है तो मीडिया की आज़ादी पर इसे पाबंदी के रूप में देखा जाता है। टीवी न्यूज़ चैनलों की संस्था कहती रही है कि बाहरी नियमन उसे मंजूर नहीं है और वह पर्याप्त रूपस कार्रवाई करती रही है। बता दें कि एनबीए टेलीविज़न चैनलों के मालिकों की एक संस्था है और न्यूज़ ब्राडकॉस्टिंग स्टैंडर्स अथॉरिटी यानी एनबीएसए प्रसारण में आचार संहिता और दिशा-निर्देशों को लागू कराता है। ये दिशा-निर्देश उन चैनल के लिए होते हैं जो इसके सदस्य होते हैं।
अक्टूबर महीने में न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी यानी एनबीएसए ने सुशांत सिंह मामले में चार समाचार चैनलों को अपने दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने का दोषी पाते हुए उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की थी। एनबीएसए ने सुशांत सिंह के फ़ेक ट्वीट का इस्तेमाल करने के लिए आज तक पर एक लाख रुपए का ज़ुर्माना लगाया था तो ज़ी न्यूज़, न्यूज़ 24 और इंडिया टीवी से माफ़ी माँगने को कहा था। आज तक से भी माफ़ी मांगने को कहा गया। हालाँकि, ऐसी कार्रवाइयों को मामूली क़रार दिया जाता है और बड़े मामलों में ऐसा होता नहीं दिखता है। जो न्यूज़ चैनल एनबीएसए के सदस्य नहीं होते हैं वे इसके दायरे से बाहर हैं। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट भी इसकी आलोचना करता रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने 18 सितंबर को सुदर्शन टीवी के 'यूपीएससी जिहाद' कार्यक्रम को लेकर सुनवाई के दौरान एनबीए की ज़बर्दस्त आलोचना की थी। कोर्ट ने एनबीए यानी न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन की भी इसलिए आलोचना की कि वह देश भर में ऐसे उकसाने वाले कंटेंट को नियंत्रित करने में 'शक्तिहीन' साबित हुआ है।
इसी मामले में इससे तीन दिन पहले भी सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने एनबीए की तीखी आलोचना की थी। तब न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा था, ‘हमें आपसे यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या आपका (एनबीए) लेटर हेड से आगे बढ़कर भी कुछ अस्तित्व है। जब किसी आपराधिक मामले की सामानांतर जाँच या मीडिया ट्रायल चलता है और प्रतिष्ठा धूमिल की जाती है तो आप क्या करते हैं?’
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