महाराष्ट्र में धुले के क़रीब सोनगीर तांबे और पीतल के बर्तनों के लिए देश भर में जाना जाता है। कोरोना संक्रमण के कारण सख़्त लॉकडाउन और मंदी के कारण यहाँ पिछले चार महीनों से काम बंद है। वहीं, बरसात के दिनों में तांबा काला पड़ने से कारीगरों द्वारा बर्तन बनाने का काम रोक दिया जाता है। ऐसे में यहाँ बर्तन कारीगरों और व्यवसायियों के सामने आजीविका का संकट गहरा गया है। हालात इतने ख़राब हैं कि इस क्षेत्र से जुड़े अधिकतर परिवार अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ने के लिए मजबूर हैं। ये लोग अब दो जून की रोटी के लिए नए काम ढूंढ रहे हैं।
सोनगीर में तांबा-पीतल बर्तनों के व्यवसाय से जुड़े अविनाश कासर कहते हैं, ‘यहाँ कारीगरों की माली हालत कोई ख़ास अच्छी नहीं है। वे साल के सात से आठ महीने खाली नहीं बैठ सकते हैं। आजकल तांबे और पीतल के बर्तनों की माँग न होने से पूरा क़ारोबार मंद पड़ गया है।’
अविनाश बताते हैं कि इस बार करोड़ों रुपए का नुक़सान उठाना पड़ेगा। सोनगीर के सैकड़ों कारीगरों को अपनी घर-गृहस्थी बचाने के लिए काम की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन, इस आपदा में नया काम मिलना आसान नहीं रह गया है।
दूसरी तरफ़, सोनगीर से तांबे और पीतल के बर्तन राज्य से बाहर भी जाते हैं। लेकिन, लॉकडाउन के कारण उपजे वित्तीय संकट में माल की आवाजाही संबंधी गतिविधियाँ भी ठप रही हैं। लिहाज़ा, कुशल श्रमिकों की आजीविका पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। सोनगीर में तांबे और पीतल के बर्तन बनाने के व्यवसाय से सीधे तौर पर पाँच सौ से अधिक कारीगर परिवार हैं। इसके अलावा, लगभग ढाई सौ छोटे व्यापारी और बर्तन की दुकान के कर्मचारी जुड़े हुए हैं। कई कारीगर बताते हैं कि उन्होंने बर्तन बनाने की कला के अलावा कोई दूसरा काम नहीं किया है। लेकिन, अब वे जीविका चलाने के लिए मज़दूरी करने को तैयार हैं।
सतीश कासर बताते हैं कि यहाँ तांबे-पीतल के बर्तन बनाने और बेचने वाले कारीगर तांबट, बागडी और गुजराती कसार समुदाय के हैं और यह उनका पारंपरिक व्यवसाय माना जाता है। हालाँकि, पिछले कुछ समय से अन्य समुदाय से जुड़े परिवार भी इस काम में सक्रिय हुए हैं। लिहाज़ा, इस धंधे में बहुत अधिक प्रतिस्पर्धा आ गई है। इसलिए, बर्तन बनाने से लेकर उनकी उचित क़ीमत पाने तक अब बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ रहा है और उन्हें पहले की तरह मुनाफ़ा नहीं मिल पा रहा है।
स्टील के बर्तनों के आने और मशीनरी के अत्यधिक प्रयोग के कारण इस क्षेत्र से जुड़े कारीगर और व्यवसायियों की आर्थिक स्थिति पहले से ही ख़राब चल रही थी। ऐसे में लॉकडाउन के कारण उत्पादन और व्यवसाय चार महीने तक बंद रहा। इसके चलते बाज़ार में मंदी छाई हुई है।
लेकिन, मुसीबत यहीं समाप्त नहीं हुई। लॉकडाउन और मंदी के बाद बरसात शुरू हो गई। इस मौसम में तांबे के बर्तन काले हो जाते हैं। इसलिए उन्हें बनाने का काम रोक दिया जाता है। स्पष्ट है कि दिवाली तक काम बंद रहेगा। यही वजह है कि तांबे और बर्तन बनाने वाले कारीगर के सामने जीने का संकट और अधिक गहरा गया है। ऐसी स्थिति में उनके सामने सवाल है कि वे कहाँ जाएँगे और क्या करेंगे। इस बुरे दौर में उनके लिए उनके परिवार को सुरक्षित रखना और संभालना सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।
बता दें कि इस क्षेत्र के कई व्यापारी लंबे समय से सोनगीर के कारीगरों से थोक में बर्तन खरीदकर देश की दूसरी जगहों पर बेचते रहे हैं। यहाँ पहले सिर्फ़ बर्तन के कारीगर होते थे। बाद में कई कारीगर व्यापारी भी हो गए। बर्तनों के लिए आवश्यक कच्चा माल पुणे, भंडारा, इंदौर और उज्जैन से मंगाया जाता है।
इस क्षेत्र से जुड़े लोग बताते हैं कि सोनगीर के बर्तनों की अच्छी माँग के पीछे वजह यह है कि यहाँ तैयार बर्तन टिकाऊ, मज़बूत और आकर्षक होते हैं। शादियों में इन बर्तनों की माँग सबसे ज़्यादा होती है। इसके अलावा, दिवाली-दशहरा में भी खासी माँग होती है। राज्य के खानदेश अंचल में भी बर्तनों से जुड़े सबसे अधिक कारीगर और व्यापारी सोनगीर से ही हैं। रोज़गार की तलाश में कई कारीगर दूर-दराज़ की जगहों पर जाकर बस गए और जहाँ-तहाँ अपनी आजीविका चला रहे हैं।
अपनी राय बतायें