महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार का कोई सानी नहीं है। उनके राजनीतिक दाँव-पेचों की वजह से कोई उन्हें तेल लगाया हुआ पहलवान कहता है, मतलब ऐसा पहलवान जो आसानी से किसी के हाथ नहीं आता तो कोई उन्हें चाणक्य कहता है। अपने एक दाँव से पवार ने साल 2014 में शिवसेना को सत्ता के हाशिये पर पहुंचा दिया था और आज उसी दाँव से उसको सत्ता के केंद्र में खड़ा कर दिया है।
मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा, यह दावा भले ही शिवसेना बरसों से कर रही है लेकिन आज उसके इस ख़्वाब को साकार कराने में शरद पवार की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। दरअसल, इस ख़्वाब की शुरुआत साल 2014 के विधानसभा चुनावों के दौरान एनसीपी प्रमुख शरद पवार के एक निर्णय से हुई थी, जिसमें उन्होंने सरकार का गठन करने के लिए भारतीय जनता पार्टी को बिना शर्त समर्थन देने की बात कही थी। शरद पवार के इस दाँव ने प्रदेश में बीजेपी की सरकार तो बना दी थी लेकिन शिवसेना सत्ता के हाशिए पर पहुंच गई थी।
पवार के इस दाँव से शिवसेना कमजोर तो हो गयी थी लेकिन इससे नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीतिक फ़िलॉसफ़ी को बल मिला। और उस बल का परिणाम यह हुआ कि उसकी चपेट में शरद पवार भी आ गए और सरकारी मशीनरी का दबाव ईडी के नोटिस के रूप में उन तक पहुंच गया।
पवार को इस बात का एहसास हो गया था कि मोदी-शाह के दौर में क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व को ख़तरा है। और इसी अस्तित्व को बचाने के लिए उन्होंने चुनाव परिणाम आते ही वह दाँव चला जिसके बल पर शिवसेना आज भारतीय जनता पार्टी को ललकार रही है।
शरद पवार ने चुनाव परिणामों के कुछ घंटे बाद ही सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि ‘शिवसेना को अब इज्जत के साथ गठबंधन करना चाहिए।’ लेकिन उन्होंने शिवसेना नेताओं को यह सन्देश भी भिजवा दिया कि यदि वे बीजेपी का साथ छोड़कर आते हैं तो मुख्यमंत्री का उनका सपना पूरा होगा? इस एक सन्देश से शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व का सवाल जुड़ा हुआ है।
दोनों दल जानते हैं कि यदि बीजेपी को सत्ता से दूर नहीं किया जाएगा तो वह आने वाले चुनावों में साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर दोनों के राजनीतिक अस्तित्व को समाप्त करने की हरसंभव कोशिश करेगी। एनसीपी ने विधानसभा चुनाव के दौरान दल-बदल को सबसे ज़्यादा झेला है। शिवसेना ने इसे टिकट के बंटवारे और कौन सी सीट पर किस पार्टी का प्रत्याशी लड़ेगा, यह तय करने के दौरान महसूस किया।
50:50 के फ़ॉर्मूले का वादा कर बीजेपी ने खुद 164 सीटों पर चुनाव लड़ा और शिवसेना को महज 124 सीटों पर समेट दिया। बीजेपी ने बहुत सी ऐसी सीटें शिवसेना से ले ली, जहां पर जीत आसान थी। आज इसी के दम पर फडणवीस कहते हैं कि उनकी पार्टी का जीत का औसत सर्वाधिक है इसलिए जनता को उनके साथ माना जाये। लेकिन शरद पवार के एक दाँव ने जहां साल 2014 में बीजेपी की नैया पार कर दी थी वहीं इस बार उसे सरकार बनाने से इनकार करने पर मजबूर कर दिया।
पवार के इस दाँव ने मोदी-शाह की विस्तारवादी चालों को भी फ़ेल कर दिया। पवार के एक दाँव ने शिवसेना में आस जगा दी कि उनका मुख्यमंत्री हो सकता है। लिहाजा उद्धव ठाकरे अपने पिता बाला साहेब ठाकरे को दिए गए वचन को बार-बार दोहराने लगे हैं कि ‘एक ना एक दिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मैं किसी शिवसैनिक को बिठाऊंगा।’
पवार के इस दाँव से कांग्रेस में भी नयी उम्मीद जगी है कि सत्ता में उनकी भी कुछ भागीदारी रहेगी। लिहाजा जयपुर में सुरक्षित बैठे पार्टी के 44 में से 38 विधायक एक मत से शिवसेना के हाथों में सत्ता की कमान देने या शिवसेना-एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन की सत्ता के पक्ष में पैरवी कर रहे हैं।
एनसीपी के विधायकों को इस बात की आस है कि प्रदेश में बनने वाली सरकार में पवार किंग मेकर की भूमिका में रहने वाले हैं। लिहाजा, इन तीनों दलों में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ है और यही बीजेपी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन गया।
प्रदेश में शिवसेना के 56, कांग्रेस-एनसीपी तथा अन्य छोटी पार्टियों के गठबंधन के कुल 112 विधायक हैं। 12 निर्दलीय विधायक जीते हैं जिनमें से 8 शिवसेना के विधायकों के साथ होटल में हैं। इन 176 विधायकों के अलावा शेष बीजेपी के पास हैं। फडणवीस ने सरकार बनाने के कई बार दावे किये लेकिन अंत में उन्हें हार माननी पड़ी।
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