loader

क्या है मायावती का फिर से मुख्यमंत्री बनने का फ़ॉर्मूला?

अगर अन्य पिछड़ी जातियों को भी मायावती अपने साथ जोड़ पाती हैं, तो एक नया फ़ॉर्मूला यूपी की राजनीति में दिखाई देगा। यह नया फ़ॉर्मूला क्या नई 'सोशल इंजीनियरिंग' होगी? या किसी राजनीतिक दल के साथ उनकी गठजोड़ की रणनीति होगी? मायावती के लिए क्या यह राह आसान होगी और क्या वह ऐसा करने में कामयाब होंगी?
रविकान्त

क्या है मायावती की बदली हुई राजनीति? लंबे समय तक लगभग अज्ञातवास में रहने के बाद मायावती इधर फिर सक्रिय हुई हैं। सक्रिय होने से मुराद, प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से है। आंदोलन करना और कार्यकर्ताओं के बीच जाना तो उन्होंने बहुत पहले त्याग दिया है। अब कूटनीति के ज़रिए ही वह यूपी की राजनीति में ख़ुद को प्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिल रही है।

मायावती जिस तरह से संगठन चलाती हैं और चुनाव में टिकट वितरण करती हैं, उससे राजनीतिक विश्लेषक उन्हें हर चुनाव से पहले चुका हुआ मान लेते हैं। उनकी पारी की समाप्ति की घोषणा होने लगती है। लेकिन वह हर बार बाधा पार करते हुए कुशल तैराक की तरह बहाव के विपरीत देर-सबेर किनारे पहुँच ही जाती हैं। इसके लिए उन्होंने कांशीराम के मिशन से लेकर अपनी वैचारिकी तक से समझौता किया है। धुर विरोधियों से हाथ भी मिलाया। कभी पर्दे के पीछे सौदेबाज़ी या समझौते किए।

ख़ास ख़बरें

बीजेपी के सहयोग, साथ और समर्थन से तीन बार मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती ने जब चाहा बीजेपी से पीछा छुड़ा लिया। 2003 में उन्होंने गुजरात जाकर नरेन्द्र मोदी का प्रचार किया। बाद में बीजेपी को सांप्रदायिक कहकर खारिज कर दिया। 2019 में ढाई दशक की प्रतिद्वंद्विता ही नहीं बल्कि एक तरह की दुश्मनी भूलकर उन्होंने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया। लोकसभा चुनाव में सपा की पाँच सीटों के बरक्स उन्होंने दस सीटें जीतीं। कुछ समय बाद  सपा का वोट ट्रांसफ़र ना होने का आरोप लगाकर गठबंधन तोड़ मायावती आगे बढ़ गईं।

पिछले महीने राज्यसभा चुनाव के लिए उन्होंने पर्याप्त विधायकों की संख्या नहीं होने के बावजूद अपने प्रत्याशी का नामांकन कराया। ज़ाहिर है इसके लिए उन्होंने बीजेपी से समझौता किया होगा क्योंकि बीजेपी के सहयोग के बिना उनके प्रत्याशी का राज्यसभा के लिए चुना जाना नामुमकिन था। इसके जवाब में सपा ने एक निर्दलीय प्रत्याशी का नामांकन करवाया। सपा के क़दम से नाराज़ होकर मायावती ने अखिलेश यादव पर एक दलित को राज्यसभा जाने से रोकने का आरोप लगाया।
प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने एलान कर दिया कि विधान परिषद चुनाव में सपा प्रत्याशियों को रोकने के लिए अगर उन्हें बीजेपी के साथ जाना पड़ा तो वह गुरेज नहीं करेंगी।

विदित है कि उस समय बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। मायावती, असदुद्दीन ओवैसी और ओमप्रकाश राजभर का गठबंधन चुनाव मैदान में था। ज़ाहिर है कि मायावती के इस बयान से आठ दलों के इस गठबंधन को नुक़सान हो सकता था। इसलिए उन्होंने दूसरे दिन ही एक वीडियो जारी करके अपना स्पष्टीकरण दिया। उन्होंने कहा कि वह मरते दम तक बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं कर सकतीं। यह बयान मुसलमानों के भरोसे को वापस लाने के लिए था।

मायावती और ओवैसी वाले गठबंधन को मुसलमानों के समर्थन से अप्रत्यक्ष तौर पर बीजेपी को फ़ायदा मिलना था। महागठबंधन को इससे नुक़सान होना था। जो हुआ भी। माना जाता है कि मायावती ने यह बयान बीजेपी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए दिया था। बीजेपी को ख़ुश रखने का एक तरीक़ा यह भी है। इसका परिणाम भी सामने है। बिहार के सीमांचल इलाक़े में ओवैसी को पाँच सीटों पर जीत मिली। महागठबंधन को सीमांचल में आशानुरूप सफलता नहीं मिली।

mayawati brahmin card of social engineering to reclaim up cm post - Satya Hindi

आपसी समझदारी की अनकही दास्तान

मायावती को बीजेपी से फ़ायदा मिला। यह आपसी समझदारी की अनकही दास्तान है। यूपी विधानसभा उपचुनाव की सात सीटों में से छह पर बीजेपी की जीत भी इस ओर इशारा करती है। ग़ौरतलब है कि किसी उपचुनाव में पहली बार मायावती ने अपने प्रत्याशी उतारे। ऐसा लगता है कि मायावती ने उपचुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि राज्यसभा की सीट हासिल करने के लिए यह क़दम उठाया था। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मायावती ने इस चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया। प्रत्याशी उतारने से संभव है उन्हें राज्यसभा सीट के लिए सौदेबाज़ी करने का मौक़ा मिल गया।

अब मायावती अपने पुराने अंदाज़ में लौट आई हैं। यानी दुश्मन के साथ समझौता और फ़ायदा प्राप्त होने के बाद उससे सीधे मुक़ाबले के लिए तैयार होना। इसके लिए पहला परिवर्तन करते हुए मायावती ने मुनकाद अली को हटाकर अति पिछड़ा जाति से आने वाले भीम राजभर को बसपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है।

यह संकेत है कि मायावती दलित और पिछड़े समाज को जोड़कर चुनाव मैदान में जाना चाहती हैं। दरअसल, यही कांशीराम का रास्ता था। हालाँकि यूपी विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ सवा साल बाक़ी है। इतने कम समय में बिना किसी मज़बूत एजेंडे और प्रयत्न के दलित और पिछड़ों को एक साथ लाना आसान नहीं है। साथ ही एक सवाल यह भी है कि बीजेपी के साथ जुड़ा यह ग़ैर-जाटव दलित और ग़ैर-यादव पिछड़ा समाज मायावती के साथ क्योंकर जाएगा? 

निश्चित तौर पर बीजेपी में इस समाज को भागीदारी के नाम पर सिर्फ़ मुखौटे मिले हैं लेकिन मायावती और अखिलेश यादव ने तो मुखौटे भी नहीं दिए। इसलिए बीजेपी से तमाम नाराज़गी के बावजूद बिना संगठनात्मक ढाँचे में बदलाव और भरोसे के इस समाज को अपने साथ जोड़ पाना नामुमकिन है।

लेकिन यह क़दम सिर्फ़ इतना भर नहीं है। इसका निशाना कहीं और भी है। यूपी में योगी सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली से प्रदेश की आवाम हलकान है। क़ानून-व्यवस्था की स्थिति बेहद ख़राब है। महिलाओं पर दर्जनों अत्याचार की ख़बरें रोज़ आती हैं। अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार अपने पक्षपाती रवैये को लेकर घिरती जा रही है। हालाँकि सत्ता में आते ही योगी आदित्यनाथ ने अपराधियों को प्रदेश छोड़ने की हिदायत देते हुए पुलिस प्रशासन को 'ठोकने' की खुली छूट दे रखी थी। इसके चलते बहुत से ऐसे नौजवानों के  एनकाउंटर हुए जो किसी छोटे-मोटे अपराध में अभियुक्त थे या सिर्फ़ आरोपी थे।

योगी और ब्राह्मण 

योगी की 'ठोको नीति' के सबसे ज़्यादा शिकार मुसलिम, यादव और दलित हुए। लेकिन इस साल अचानक ब्राह्मण निशाने पर आ गए। आरोप यह भी है कि अपराधियों के साथ उठने बैठने वाले ऐसे नौजवानों को भी एनकाउंटर में मार दिया गया जिन पर कोई भी मुक़दमा दर्ज नहीं था। राजनीतिक गलियारों में इस कार्रवाई को पूर्वांचल में चल रहे ब्राह्मण बनाम ठाकुर वर्चस्ववाद के रूप में देखा गया। परिणामस्वरूप प्रदेश का ब्राह्मण योगी सरकार से नाराज़ हो गया। इस नाराज़गी को भुनाने के लिए कांग्रेस, सपा और बसपा सभी दलों ने ब्राह्मणों की नुमाइंदगी की नुमाइश की। इसके लिए परशुराम की मूर्तियाँ लगाने से लेकर इतिहास तक की दुहाई दी गई। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या नाराज़ ब्राह्मण बीजेपी से दूरी बनाएगा? अगर दूरी बनाएगा तो किस पार्टी के साथ जाएगा?

पहली बात तो यह है कि ब्राह्मणों की नाराज़गी योगी आदित्यनाथ से है, बीजेपी से नहीं। अगर आगामी चुनाव में बीजेपी योगी से किनारा करने का संदेश देती है तो ब्राह्मण अपनी मूल पार्टी बीजेपी को छोड़कर कहीं नहीं जाएगा। हालाँकि योगी को हटाना बीजेपी आलाकमान के लिए इतना आसान नहीं है। माना जाता है कि उन पर नागपुर का वरदहस्त है। तब ब्राह्मण कहाँ जाएँगे? यूपी का राजनीतिक इतिहास देखें तो ब्राह्मण पहले कांग्रेस में नेतृत्वकारी भूमिका में रहा है। सबसे ज़्यादा ब्राह्मण मुख्यमंत्री कांग्रेस ने दिए। मंदिर आंदोलन के समय वह बीजेपी से जुड़ गया। यहाँ भी उसकी केंद्रीय भूमिका रही है, लेकिन यूपी में बीजेपी ने ब्राह्मण को कभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया।

पिछले दो दशक में अधिकांश समय यूपी की राजनीति मुलायम सिंह और मायावती के इर्द-गिर्द घूमती रही है। इस दरम्यान पहली बार 2007 में ब्राह्मण बसपा के साथ आया। 2006 में कांशीराम  के निधन के बाद बसपा में हुआ यह आमूलचूल परिवर्तन था। अब पार्टी ने बहुजन से सर्वजन की ओर क़दम बढ़ाया। इसका उसे फ़ायदा भी मिला। 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है' और 'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा' जैसे नारे गूँजने लगे। यह बसपा और ब्राह्मण दोनों में बदलाव का संकेत था। नतीजे में, 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को पूर्ण बहुमत मिला। 403 सीटों वाली विधान सभा में बसपा को 206 सीटें प्राप्त हुईं। मायावती ने कई ब्राह्मण नेताओं को मंत्री बनाया। हालाँकि इन मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के बहुत आरोप लगे। इससे मायावती सरकार की छवि ख़राब हुई। इसका नुक़सान उन्हें 2012 के विधान सभा चुनाव में उठाना पड़ा। इस बार उन्हें सिर्फ़ 80   सीटें मिली और उनकी प्रतिद्वंद्वी सपा ने 224 सीटें जीतकर सम्मानजनक बहुमत हासिल किया।

mayawati brahmin card of social engineering to reclaim up cm post - Satya Hindi

यूपी में कांग्रेस भी ब्राह्मणों को जोड़ने का प्रयास कर रही है। चूँकि कांग्रेसी अभी मज़बूत नहीं है, इसलिए ब्राह्मणों का वहाँ जाना मुश्किल है। सपा की छवि यादव और मुसलिम गठजोड़ वाली है। सशक्त यादवों के साथ ब्राह्मणों को तालमेल बैठाने में मुश्किल होती है। एक अन्य कारण भी है। बीजेपी की हिन्दुत्व आधारित राजनीति ने मुसलमानों को बिल्कुल अलग-थलग कर दिया है। अन्य जातियों की तुलना में ब्राह्मण, मुसलमानों से कुछ ज़्यादा दूरी बनाता है। इसके पीछे धार्मिक पूर्वाग्रह और राजनीतिक दुराग्रह ज़्यादा हैं। मायावती ने ज़मीन की इस सच्चाई को परखकर ही संकेत दिया है कि उन्हें मुसलमानों की खास परवाह नहीं है। 

हालाँकि ऐसा नहीं है कि मायावती मुसलमानों को बिल्कुल महत्ता नहीं देंगी। मायावती मुसलमानों को टिकट भी देंगी लेकिन ज़्यादातर सपा के मज़बूत उम्मीदवारों के ख़िलाफ़। इससे सपा के बड़े नेता परेशान होंगे। वे अपने चुनाव क्षेत्र में फँसे रहेंगे और बसपा के लिए दूसरी सीटों पर मुक़ाबला आसान होगा।

सपा की मज़बूत सीटों पर त्रिकोणीय मुक़ाबला बनाकर वह बीजेपी को फ़ायदा पहुँचाना चाहेंगी। मायावती के लिए सपा दुश्मन नंबर एक है। उनकी पूरी रणनीति सपा के ख़िलाफ़ होगी। सपा की पराजय से ही उनका रास्ता साफ़ होगा। इन समीकरणों से मायावती ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने में कामयाब हो सकती हैं। 

अगर अन्य पिछड़ी जातियों को भी मायावती अपने साथ जोड़ पाती हैं, तो एक नया फ़ॉर्मूला यूपी की राजनीति में दिखाई देगा। ऐसा लग रहा है कि जाटव, ब्राह्मण और अति पिछड़ी जातियों के समर्थन से मायावती सत्ता में पहुँचने की योजना बना रही हैं। इसके साथ एक और योजना जुड़ी हुई है। अगर किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो मायावती बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश रखती हैं। इस तालमेल से बीजेपी का समर्थन पाने में उन्हें दिक्कत भी नहीं होगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या मायावती ऐसा करने में कामयाब होंगी?

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
रविकान्त

अपनी राय बतायें

राजनीति से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें