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आंबेडकर और परशुराम के बीच क्यों झूल रहे हैं अखिलेश

मजबूत संगठन और जुझारू कार्यकर्ताओं वाली समाजवादी पार्टी (एसपी) आज वैचारिक स्तर पर जूझ रही है। पार्टी के एजेंडे में अनवरत होने वाले परिवर्तन इसकी गवाही देते हैं। पार्टी में कभी बाबा साहब आंबेडकर की जयंती मनाई जाती है और कभी परशुराम की मूर्तियां लगाने की बात होती है। क्या हिन्दुत्व और बहुजनवाद का एजेंडा एक साथ चल सकता है? दूसरे शब्दों में पूछा जा सकता है, क्या बामसेफ़ और ब्राह्मणवाद एसपी में एक साथ चल सकते हैं? 

पिछले एक साल में एसपी के भीतर एजेंडा सैटिंग को लेकर संघर्ष हुआ है। एसपी के भीतर मौजूद दो खेमे शह और मात का खेल लगातार खेल रहे हैं। इन खेमों को ही बामसेफ़ और ब्राह्मणवाद के रूप में यहां रेखांकित किया जा रहा है। 

बामसेफ़ और ब्राह्मणवाद में टकराव के बीच सबसे मौजूं सवाल यह है कि एसपी में डॉ. राम मनोहर लोहिया का कोई नामलेवा बचा भी है या नहीं?

मायावती की वादाख़िलाफ़ी

मायावती से गठबंधन टूटने के बाद एसपी में दो खेमों का उभार हुआ। इसके बाद टकराव की शुरुआत हुई। दरअसल, ढाई दशक बाद एसपी और बीएसपी पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले एक साथ आए। 12 जनवरी, 2019 को दोनों पार्टियों के प्रमुखों ने गठबंधन करने का एलान किया। लेकिन लोकसभा चुनाव में असफलता के बाद 23 जून, 2019 को मायावती ने वोट ट्रांसफर नहीं होने का आरोप लगाकर एसपी से गठबंधन तोड़ दिया। 

इस मौक़े पर अखिलेश यादव ने बहुत संयम दिखाया। इसका उन्हें फायदा भी मिला। मायावती की वादाख़िलाफ़ी से नाराज़ दलित-पिछड़े समाज की सहानुभूति अखिलेश यादव के साथ रही। 

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डॉ. आंबेडकर का प्रभाव

बीएसपी और बामसेफ़ के बहुत लोग अखिलेश यादव से जुड़े। अखिलेश यादव ने भी बाबा साहब आंबेडकर के विचारों और बामसेफ़ के एजेंडे पर आगे बढ़ने का संकेत दिया। पहली बार एसपी कार्यालय में डॉ. आंबेडकर का चित्र लगाया गया। बाबा साहब की जयंती मनाई गई। इससे प्रभावित होकर बीएसपी से निराश तमाम नेता, कार्यकर्ता और दलित बुद्धिजीवी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से एसपी के साथ आ गए। 

लेकिन यहीं समस्या भी पैदा हुई। ठाकुर और ब्राह्मण रसूखदार नेताओं को लगने लगा कि उनकी हैसियत कमजोर हो रही है और बहुजन वैचारिकी वाले दलित और पिछड़े नेताओं का कद बढ़ रहा है।

सवर्ण नेताओं में बेचैनी

सवर्ण नेताओं के आपसी संवाद में पार्टी के बामसेफ़ बनने और उनका रसूख कम होने की बेचैनी साफ देखी जा सकती थी। दरअसल, इन सवर्ण नेताओं की न तो कोई विचारधारा है और न कोई खास जनाधार। लेकिन इनका वजूद पार्टी में सर्वव्यापी है। यही नेता अखिलेश यादव को चुनावी गणित समझाते हैं और रणनीति तैयार करते हैं। लेकिन सबसे मजेदार बात यह है कि पार्टी की हार के लिए वे कभी जिम्मेदार नहीं माने जाते। हार का ठीकरा अक़सर यादवों और मुसलमानों के सिर फूटता है, क्योंकि यही एसपी का कोर वोटर है।

Samajwadi party brahmin politics in Uttar Pradesh - Satya Hindi
पिता के साथ अखिलेश यादव।

योगी आदित्यनाथ ने दिया मौक़ा

ब्राह्मणवाद को पोषित करने वाले एसपी के सवर्ण नेता सिर्फ टीवी बहसों, पार्टी के दरबार और अपने एसी कमरों में बैठकर राजनीति करते हैं। बहुजन वैचारिकी और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों के एसपी से जुड़ने पर वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी नेताओं और चुनावी प्रबंधकों को तकलीफ होना स्वाभाविक है। लेकिन उनका धैर्य काबिले-तारीफ है। वे एक ऐसे मौक़े की तलाश में थे, जब वे अखिलेश यादव को सवर्ण वोटों का सब्जबाग दिखाकर अपनी प्रासंगिकता साबित कर सकते थे और उन्हें यह मौक़ा दिया मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ठाकुरवादी राजनीति ने। 

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ब्राह्मण राजनीति 

ब्राह्मणों पर बढ़ते अत्याचार का मुद्दा लपकने के लिए एसपी के ब्राह्मण नेता सक्रिय हो गए। ब्राह्मणों की चिंता दर्शाने वाले इन ब्राह्मण नेताओं को दरअसल अपनी चिंता सता रही थी। इसलिए उन्होंने आगे बढ़कर परशुराम की मूर्तियां लगाने, सवर्ण आयोग बनाने और ग़रीब ब्राह्मण लड़कियों की शादी कराने का वादा किया। ब्राह्मण राजनीति के प्रवाह में बहुजन वैचारिकी और सामाजिक न्याय के संकल्प को हाशिए पर धकेल दिया गया। 

कोरोना संकट के दरम्यान देखा गया कि अखिलेश यादव सिर्फ सवर्ण और खासकर ब्राह्मण नेताओं और प्रतिनिधियों से मुलाकात कर रहे थे। जबकि आंबेडकरवादी दलित-पिछड़े नेता और बुद्धिजीवी बेबस और लाचार नज़र आ रहे थे। वैचारिकी की जगह वोट जुगाड़ू राजनीति प्राथमिक हो गई थी। इससे निश्चित तौर पर हाशिए के समाज से निकले सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों को बहुत निराशा हुई।

यूपी में योगी सरकार हर मोर्चे पर असफल है। भय, नफरत और आर्थिक दोहन का कोई अवसर नहीं छोड़ने वाली बीजेपी में भी ‘योगी बनाम मोदी’ को लेकर लड़ाई जारी है। दोनों नेताओं के बीच हिन्दुत्व का सबसे बड़े झंडाबरदार होने की प्रतियोगिता चल रही है।

राज्यसभा चुनाव में मिलीभगत

इस बीच बीजेपी और बीएसपी की नजदीकी भी सुर्खियों में है। दलितों पर बढ़ते अत्याचार और अधिकारों के लगातार हनन के बावजूद मायावती बीजेपी के बजाय कांग्रेस और एसपी पर ज्यादा हमलावर हैं। हाल ही में राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन में बीजेपी और मायावती के बीच अंदरूनी सांठगांठ उजागर हो गई है। बीजेपी ने आठ नामांकन किए और उसने एक सीट छोड़ दी। इस सीट के लिए मायावती ने अपना प्रत्याशी उतारा। 

इसी बीच, अखिलेश यादव ने आनन-फानन में एक निर्दलीय को मैदान में उतार दिया। इसे अखिलेश यादव की बड़ी रणनीतिक कामयाबी के तौर पर पेश किया गया। मायावती के सात विधायक टूटकर अखिलेश यादव के साथ आ गए। हालांकि अब एसपी समर्थित निर्दलीय का पर्चा खारिज हो चुका है और बिना चुनाव के बीएसपी के उम्मीदवार का राज्यसभा जाना तय हो गया है।

माया पर हमलावर अखिलेश 

बीजेपी से मिलीभगत का पर्दाफाश होने से बौखलाई मायावती ने अखिलेश यादव पर हमला बोला। उन्होंने अपने विधायकों को तोड़ने का आरोप लगाते हुए विक्टिम कार्ड खेला। इस पूरे घटनाक्रम को दलित अस्मिता के साथ जोड़ते हुए मायावती ने 1995 के गेस्ट हाउस कांड का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि गेस्ट हाउस कांड के आरोप को वापस लेना उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी।

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सवालों के घेरे में हैैं मायावती।

मायावती ने एक तीर से दो निशाने साधे। एक तरफ वे एसपी को दलित विरोधी बता रही हैं और दूसरी तरफ बीजेपी से अपनी नज़दीकी को न्यायसंगत साबित कर रही हैं। गौरतलब है कि गेस्ट हाउस कांड में एसपी के नेताओं द्वारा मायावती पर जानलेवा हमला किया गया था। तब बीजेपी के नेताओं ने मायावती को बचाया था। 

बीजेपी-बीएसपी में खिलते गुलों के बीच असली सवाल एसपी में आए बीएसपी विधायकों और एसपी की अंदरूनी राजनीति का है। बीएसपी से टूटकर आए ज्यादातर विधायक कांशीराम के मिशन और बामसेफ़ से जुड़े रहे हैं। 

बीएसपी से आने वाले विधायक क्या एसपी के सवर्ण नेताओं के पिछलग्गू बनकर रह सकते हैं? अगर ये नेता अखिलेश यादव के ज्यादा नज़दीक पहुंचते हैं तो एसपी में फिर से ब्राह्मणवाद और बामसेफ़ के बीच संघर्ष हो सकता है।

क्या अखिलेश यादव परशुराम आधारित ब्राह्मण राजनीति और बहुजनवादी सामाजिक न्याय की राजनीति में से चुनाव नहीं कर पा रहे हैं? 

योगी सरकार और बीएसपी से नाराज़ हर जाति और तबके के नेताओं को अखिलेश यादव एसपी के साथ जोड़ रहे हैं। यह नितांत सत्तापरक राजनीति है। लेकिन सवाल यह है कि वैचारिक आधार के बिना क्या सत्ता हासिल की जा सकती है?

आज यूपी की राजनीति में अखिलेश यादव मुख्य विपक्षी नेता हैं। लेकिन सवाल यह है कि जाति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का अखिलेश यादव कैसे मुकाबला करेंगे? बीजेपी और संघ की रणनीति और बूथ प्रबंधन के बरक्स अखिलेश यादव की तैयारी क्या है? क्या वे केवल योगी सरकार से नाराजगी के मुद्दे पर ही चुनाव जीतना चाहते हैं? 

जाहिर है कि इतनी आसानी से चुनाव नहीं जीते जाते। संगठन को सक्रिय करना और बूथ प्रबंधन मजबूत करना लाजिमी है। इसके साथ लाख टके का सवाल यह है कि एसपी की कोई वैचारिकी होगी या नहीं? ब्राह्मणवाद और बामसेफ़ जैसे दो छोर डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों से संतुलित किए जा सकते हैं। लेकिन एसपी में लोहिया और उनकी विचारधारा का क्या कोई मोल बचा है?

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रविकान्त

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