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अमरिंदर को क्यों 'कप्तानी' छोड़नी पड़ी, कांग्रेस पर उठते सवाल?

पंजाब विधानसभा चुनाव के कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री का इस्तीफ़ा और उनका यह कहना कि उन्हें काफी अपमानित किया गया, कई सवाल खड़े करता है।

एक ऐसा मुख्यमंत्री जिसके बल बूते कांग्रेस ने चुनाव उस समय जीता जब वह पूरे देश में बुरी तरह हार रही थी यदि यह कहता है कि उसे बेआबरू होकर निकलना पड़ा तो कांग्रेस नेतृत्व के सामने गंभीर सवाल खड़ा होता है।

और उसे उस व्यक्ति के कारण पद से हटना पड़े जो कुछ साल पहले तक कांग्रेस की विरोधी बीजेपी में था तो निश्चित तौर पर यह गंभीर बात है।

सवाल उठता है कि अमरिंदर सिंह से क्या और कहां चूक हुई कि उन्हें पद से हटना पड़ा? आखिर 'कैप्टन' की टीम में क्या गड़बड़ी थी कि उन्हें अपने ही लोगों के हाथों 'अपमानित' होना पड़ा, जैसाकि वे दावा कर रहे हैं?

ग्रंथ साहिब के अपमान का मुद्दा

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में पंजाब कांग्रेस ने गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान का मुद्दा ज़ोर शोर से उठाया था। 

राज्य के बरगरी इलाक़े में अक्टूबर 2015 में सिखों के पवित्र धर्म ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के कुछ पन्ने फटे हुए पाए गए थे। इस पर काफी बावेला मचा था। 

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इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर तत्कालीन प्रकाश सिंह बादल सरकार की पुलिस ने कोटकपुरा में गोलियाँ चलाई थीं। लेकिन पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट ने प्रकाश सिंह बादल की सरकार को क्लीन चिट दे दी थी। इस पर लोगों में काफी असंतोष था। 
नवजोत सिंह सिद्धू ने इस भावनात्मक मुद्दे को जोर शोर से उठाया और अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री को घेरा। अमरिंदर सिंह के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा उठा, यह संदेश गया कि वे इस पर नरम रुख रहे हैं और चुनाव पूर्व आश्वासन को पूरा नहीं कर रहे हैं।

अकाली के प्रति नरम?

कांग्रेस के इस पूर्व मुख्यमंत्री पर यह आरोप भी लगा कि वे विपक्षी दल अकाली के प्रति काफी नरम हैं। 

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने खुद 2017 में डेरा सच्चा सौदा के मामले में जस्टिस रणजीत सिंह आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने डेरा सच्चा सौदा को प्रश्रय देने के लिए बादल को ज़िम्मेदार ठहराया था। लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। 

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प्रकाश सिंह बादल व सुखबीर सिह बादल

लोगों से दूर मुख्यमंत्री

अमरिंदर सिंह पर यह आरोप लगा कि वे आम जनता तो क्या अपने विधायकों के लिए भी आसानी से उपलब्ध नहीं होते। उन पर यह आरोप लगा कि वे अपने कुछ विश्वस्तों से घिरे रहते हैं, उन्ही के फ़ैसले होतें हैं जिन्हें वे लागू करते हैं।

मुख्यमंत्री ने जब बाद में मुख्यमंत्री आवास छोड़ दिया और चंडीगढ़ के बाहर एक फॉर्म हाउस में रहने लगे तो यह आरोप और गंभीर हो गया। 

इससे वे आम जनता ही नहीं, अपने विधायकों के बीच भी अलोकप्रिय हो गए। 

नौकरशाही पर निर्भर सरकार

कैप्टन पर यह आरोप लगा कि उनके तमाम निर्णय कुछ नौकरशाह लेते हैं और वे उनसे ही संचालित होते हैं। 

उन्होंने आईएएस अफ़सर सुरेश कुमार को प्रधान मुख्य सचिव बना दिया, जिनका पद केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव के बराबर था। 

हाई कोर्ट ने इस नियुक्ति को खारिज कर दिया और सुरेश कुमार ने इस्तीफ़ा भी दे दिया। पर मुख्यमंत्री अड़े रहे, उन्होंने इस्तीफ़ा स्वीकार नहीं किया और अदालत में अपील की।

असंतोष रोकने में नाकाम

अमरिंदर सिंह अपने ख़िलाफ़ असंतोष को संभालने में नाकाम रहे। नवजोत सिंह सिद्धू से उनकी कभी नहीं बनी। सिद्धू ने उनका लगातार विरोध किया, उन पर तंज कसे और ऐसी बातें कहीं, जिन्हें अपमानित करने वाला कहा जा सकता है। 

क्रिकेटर से राजनेता बने सिद्धू ने कैप्टन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। उन्होंने तीन मंत्रियों रजिंदर सिंह बाजवा, सुखबिंदर सरकारिया और सुखजिंदर रंधावा के साथ मिल कर गुट बनाया और कई विधायकों को अपनी ओर लाने में कामयाब रहे।

यह बात बढ़ती चली गई और एक-एक कर विधायक मुख्यमंत्री से दूर होते गए। 

अंत में 40 विधायकों ने मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ चिट्ठी लिख दी और कैप्टन को कप्तानी छोड़नी पड़ी।  

लेकिन एक बड़ा सवाल तो यह है कि जैसा कि अमरिंदर ने कहा है कि वे आगे की रणनीति अपने समर्थकों से मिल कर तय करेंगे, यदि उन्होंने बग़ावत कर दी तो क्या पार्टी उसे संभाल पाएगी?

कैप्टन यदि अगली पारी के लिए टीम तोड़ने पर आ जाएं तो खुद भले ही न जीतें, पर कांग्रेस को तो हरवा सकते हैं। 

दूसरी ओर कांग्रेस के सामने नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेता हैं, जिन्हें गंभीर राजनेता नहीं माना जाता है। वे टीम के ऐसे खिलाड़ी के रूप में स्थापित हो चुके हैं, जो अपनी ही टीम के ख़िलाफ़ गोल दागता रहता है। 

और यह सब चुनाव के ठीक पहले हो रहा है। अमरिंदर का चाहे जो हो, पर कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को निश्चित तौर पर आत्मविश्लेषण की ज़रूरत है। 
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क़मर वहीद नक़वी

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