केजरीवाल सरकार ने जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाने की अनुमति दे दी है। जबकि पहले सरकार ने इसकी अनुमति देने से इंकार कर दिया था।
बेगूसराय में बाहर से गए लोग यह देखकर लौट रहे हैं कि कन्हैया को उन्हीं का समर्थन नहीं मिले शायद जिन्हें पारंपरिक तौर पर अपना जन कहा जाता है। तो कन्हैया के जीतने की उम्मीद कितनी है?
बेगूसराय में मुक़ाबला बेहद रोचक है। कन्हैया कुमार, तनवीर हसन और गिरिराज सिंह के बीच हो रहे इस जोरदार मुक़ाबले में दिनकर के द्वंदगीतों की गूंज सुनाई दी।
सारे देश की नज़रें बेगूसराय सीट पर टिकी हुई हैं। कहा जा रहा है कि अगर कन्हैया कुमार मुसलिम मतों के विभाजन में सफल हो गए तो वह गिरिराज सिंह की जीत सुनिश्चित कर देंगे।
जातीयता, साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता, ग़रीबी, बेरोज़गारी आदि मुद्दों के बीच कौन जीतकर निकलेगा, यह बेगूसराय के लिए ही नहीं पूरे भारत के वैचारिक विमर्श का दिशा सूचक होगा।
बेगूसराय अब मार्क्स और लेनिन में नहीं, महादेव और शैलपुत्री में ज़्यादा विश्वास करता है। बेगूसराय के चुनाव में वामपंथी और भूमिहार समाज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है।
कन्हैया के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही कन्हैया के ख़िलाफ़ घृणा अभियान शुरू हो गया है। यह राष्ट्रवादियों की ओर से नहीं, ख़ुद को वामपंथी कहनेवाले और दलित या पिछड़े सामाजिक समुदायों की ओर से है। ऐसा क्यों?
यह माना जा रहा था कि राष्ट्रीय जनता दल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के लिए बेगूसराय की सीट सीपीआई के दे देगा, पर ऐसा नहीं हुआ।