उन्हें कट्टर हिंदू माना जाता है और इस कट्टरता की कोई सीमा भी नहीं है। पर वे संन्यासी हैं और संन्यासी की तरह ही जीते हैं। वे मुख्यमंत्री भी हैं। इस संन्यासी मुख्यमंत्री की दिनचर्या रोज सुबह तीन बजे शुरू होती है। नित्य कर्म के बाद पूजा-पाठ, ध्यान आदि करते हैं। फिर वे सुबह-सुबह ही करीब नौ बजे तक अफसरों से संपर्क करते हैं। उसके बाद दस बजे से बैठकों का सिलसिला। दौरा हुआ तो दस-ग्यारह बजे तक निकल जाते हैं।
यह दिनचर्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की है। जो हिंदुत्व की सिर्फ बात नहीं करते बल्कि हिंदुत्व को जीते हैं। उनका हिंदुत्व कैसा है और उससे कौन सहमत है या असहमत है, यह अलग मुद्दा है। पर उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश इस समय हिंदुत्व की धारा को तेज धार दे रहा है। मध्य प्रदेश, हरियाणा जैसे बीजेपी शासित राज्य उसकी नक़ल कर रहे हैं।
सीएए आंदोलन से निपटने में उनकी पुलिस ने बहुत बेरहमी दिखाई इसमें कोई शक नहीं। इसकी खूब आलोचना भी हुई। पर इससे उनका राजनीतिक एजेंडा और मजबूत हुआ। यह एक और कटु सत्य है।
दूसरा मुद्दा तो लव जिहाद का ही है। अदालत में भले सरकार की न चले पर हिंदू समाज का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश सरकार के साथ खड़ा नजर आता है। यह समाज भी तो बदला है। जो मुसलिम विरोध की आंच पर पक कर तैयार हुआ है। यह समाज मोदी के बाद अब योगी को हाथों हाथ ले रहा है।
मुसलमानों का विरोध
हैदराबाद के चुनाव में इसी दिमाग ने हिंदुत्व को एकजुट कर पहली बार बीजेपी को बड़ी ताकत दे दी। उस चुनाव के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ ही तो थे। योगी चुन-चुन कर एजेंडा सामने रख रहे हैं। इस एजेंडे में मुसलिम समाज को एक खलनायक के रूप में खड़ा किया जाता है और फिर इस खलनायक से एक काल्पनिक लड़ाई लड़कर हिंदू समाज के एक बड़े हिस्से को संतुष्ट कर दिया जाता है। इसी क्रम में मुसलिम बाहुबलियों के अवैध निर्माण पर बुलडोजर चलवा कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पूर्वांचल ही नहीं हिंदी पट्टी में अपनी अलग पहचान बना ली है।
आप उनकी राजनीति से भले न सहमत हों पर उनकी राजनीति बहुत मजबूत हो रही है। वर्ना बाहुबली तो हिंदू भी थे। कुछ हिंदू बाहुबली भी निशाने पर रहे हैं मसलन गोरखपुर में बाहुबली हरिशंकर तिवारी। पर वह एक अलग लड़ाई है। उससे भ्रमित भी नहीं होना चाहिए।
दरअसल, सारा एजेंडा मुसलिम समाज को केंद्रित कर बनाया जाता है और बहुत ध्यान से इसे गढ़ा जाता है। दरअसल, मंदिर आंदोलन के बाद किस तरह हिंदू समाज को अपने साथ जोड़े रखा जाए यह एक बड़ी चुनौती भी तो है। इसलिए कभी लव जेहाद तो कभी कुछ और एजेंडा सामने आ जाता है। हैदराबाद का नाम बदलने का नारा इसका एक मजबूत उदाहरण है।
योगी की लोकप्रियता बढ़ी
यही वजह है कि देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने कुछ फैसलों से भारतीय जनता पार्टी में अपनी जगह मजबूत कर ली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव अगर उत्तर भारत के हिंदू जन मानस पर किसी का है तो वे योगी आदित्यनाथ ही हैं और कोई नहीं। यह उपलब्धि बीते कुछ वर्ष में ही योगी ने अर्जित की है। खासकर मुख्यमंत्री बनने के बाद।
संघ परिवार और बीजेपी का मूल एजेंडा हिंदुत्व रहा है और उसमें बड़ी सफलता पहले आडवाणी को मिली तो बाद में नरेंद्र मोदी को। इस मामले में योगी बीजेपी में इन दोनों शीर्ष नेताओं के बाद अपनी जगह बना चुके हैं।
योगी की हिंदू युवा वाहिनी
योगी कभी भी संघ परिवार का हिस्सा नहीं रहे हैं और एक दौर में उन्होंने गोरखपुर में खुद ही हिंदुत्व की जो प्रयोगशाला शुरू की वह संघ के कई प्रयोगों पर भारी पड़ी। कट्टर हिंदुत्व की धारा पर चलते हुए योगी ने हिंदू युवा वाहिनी का गठन किया जिसने पूर्वी उत्तर प्रदेश में आक्रामक हिंदुत्व को मजबूत कर दिया।
सिर्फ गोरखपुर ही नहीं बल्कि कुशीनगर, देवरिया, महाराजगंज, संत कबीर नगर से लेकर बस्ती गोंडा तक। पूर्वांचल में बीजेपी से ज्यादा योगी की हिंदू युवा वाहिनी का रोल रहा है। तब वह दौर था जब योगी पूर्वांचल में राजपूतों के सबसे बड़े नेता माने जाते थे।
हिंदू नेता बनने की कोशिश
पर अब वे पूर्वांचल के ही नहीं समूचे उत्तर भारत और मध्य भारत के शीर्ष हिंदू नेता माने जाते हैं। यह कैसे हुआ यह समझना चाहिए। योगी ने यह सफलता अपने कई फैसलों से अर्जित की है। तरीका वही है जो कभी गुजरात में मुख्यमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी का था। रोचक यह है कि अपने नए-नए प्रयोगों को लेकर न तो मोदी ने संघ की कोई ख़ास मदद ली और न ही योगी ने। ये तो संघ से भी दो कदम आगे रहे। और भी कई समानता हैं दोनों में।
मोदी अपने परिवार को राजनीति से दूर रखते हैं तो योगी संन्यासी हैं। घर परिवार से मोदी कुछ वास्ता रखते भी होंगे पर योगी ने तो न विवाह किया न परिवार से कोई ज्यादा नाता रखा। मोदी तो शानदार वेशभूषा और घड़ी ,चश्मा ,पेन आदि इस्तेमाल करते हैं पर योगी तो सिर्फ संन्यासी वाले कपड़े ही पहनते हैं। ज्यादा सादगी से रहते हैं। खानपान भी योगी का संन्यासी वाला ही है। भारतीय जनता पार्टी में उनसे ज्यादा सक्रिय नेता और कोई नहीं दिखता। इसमें उनकी उम्र भी मददगार है।
जिस तरह योगी सुबह चार बजे से देर रात तक सक्रिय रहते हैं वह आम नेता के लिए संभव नहीं है। हिंदी पट्टी में क्या कोई नेता है जो सुबह इतनी जल्दी उठकर अपनी दिनचर्या शुरू करता हो। मुलायम सिंह यादव ऐसे नेता रहे हैं। पर आज के दौर में ऐसा कोई दूसरा नेता आपको नहीं मिलेगा।
अब राजपूत नहीं सिर्फ हिंदू
एक दौर था जब कहा जाता था कि वे चार साल ग्यारह महीने राजपूत रहते हैं और एक महीना जब चुनाव आता है तो वे हिंदू हो जाते हैं। हो सकता है तब यह सही हो। पर अब तो वे बारह महीने हिंदू नेता ही रहते हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद का बदलाव भी यह हो सकता है। पर उनकी राजनीति से बीजेपी को फायदा पहुंच रहा है।
हिंदुत्व ब्रिगेड में खुशी
दरअसल, योगी के दौर में खुद पार्टी के नेताओं का धंधा-पानी भी बंद हो गया है जिससे पार्टी का एक वर्ग नाराज भी है। एक विधायक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘अब पार्टी के लोगों का कोई काम नहीं होता। अफसर जो चाहे करते हैं इससे दिक्कत बढ़ी है। हर सरकार में पार्टी के नेता थाना पुलिस कलेक्टर आदि के दफ्तर तक अपना प्रभाव रखते थे। अब वह स्थिति नहीं है, इससे कार्यकर्ता नाखुश हो जाता है। पर इसका दूसरा पहलू भी है। चुनाव में जब वोट हिंदुत्व के नाम पर ही मिलना है तो छोटे-मोटे काम का क्या फर्क पड़ना। लेकिन कुछ काम हुए हैं।’
हिंदुत्व के साथ सुशासन
रामदत्त त्रिपाठी ने आगे कहा, ‘हिंदुत्व से तो काम चलेगा नहीं। गोरखपुर के रामगढ़ ताल में अगर सी प्लेन उतरने की योजना है तो कुछ तो काम करना होगा। यूपी में अगर फिल्म सिटी का नारा उछला है तो कुछ किया तो होगा ही। कोरोना को लेकर भी राज्य सरकार के काम की तारीफ़ तो हुई है और टाइम जैसी पत्रिका में सरकार की उपलब्धियों पर कुछ प्रकाशित हो तो उसका लाभ सरकार क्यों नहीं लेगी। दरअसल, अब यह समझ में आ गया है कि हिंदुत्व के साथ सुशासन भी ज़रूरी है। इसलिए कई क्षेत्रों में पहल की जा रही है।'
राजनीति के जानकार जो भी कहें पर योगी की कुछ खासियत उन्हें दूसरे नेताओं से अलग करती हैं। वे अविवाहित हैं। वे मोदी की तरह बहुत महंगे कपड़े या अन्य विदेशी ब्रांडेड सामान का इस्तेमाल नहीं करते। शायद यह मठ के आचार-विचार और संस्कृति का असर हो।
दूसरा, उन्हें हिंदुत्व का कोई चोला नहीं पहनना पड़ता। वे जिस भी मंच पर हों कट्टर हिंदू संन्यासी के रूप में ही देखे जाते हैं। जबकि बीजेपी के प्रायः सभी नेताओं को हिंदुत्व का भार ढोना पड़ता है। यह एक बड़ा फर्क है। पर क्या यह एक वजह उनके लिए नई चुनौती तो नहीं बनने जा रही है। इस पर अगली कड़ी में।
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