एक बार फिर नये सिरे से राष्ट्रवाद के मुद्दे को खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। इस बार शुरुआत दिल्ली से नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश से हो रही है। उत्तर प्रदेश की सरकार एक ऐसा क़ानून बनाने की सोच रही है जिसमें किसी भी निजी विश्वविद्यालय में अगर कोई ‘राष्ट्र-विरोधी गतिविधि’ होती पाई गई तो ऐसे विश्वविद्यालय की मान्यता रद्द हो सकती है।
दरअसल, उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस मामले में अध्यादेश का मसौदा तैयार किया है जिसका मक़सद यह है कि किसी भी विश्वविद्यालय में ‘राष्ट्र विरोेधी गतिविधियों’ को ख़त्म किया जा सके और छात्रों के अंदर ‘राष्ट्रवाद’ की भावना पैदा की जा सके। उत्तर प्रदेश की सरकार में उप-मुख्यमंत्री केशव मौर्या का कहना है कि इस मामले में कैबिनेट ने फ़ैसला ले लिया है और न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज में ऐसी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
संघ की विचारधारा थोपने का प्रयास: विपक्ष
इस मसौदे की भनक लगते ही विपक्षी पार्टियों के कान खड़े हो गए और उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। इन पार्टियों का कहना है कि राष्ट्रवाद के बहाने शिक्षण संस्थानों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस की विचारधारा थोपने का काम शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस का कहना है कि इस क़ानून की आड़ में सारे शिक्षण संस्थानों में भय और ख़ौफ़ का माहौल पैदा किया जा रहा है ताकि कोई भी आरएसएस की विचारधारा का विरोध न कर सके। कांग्रेस का कहना है कि अगर सरकार अपने मक़सद में कामयाब हो गई तो विश्वविद्यालय के सिर पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी और इस बहाने किसी भी निजी विश्वविद्यालय की मान्यता रद्द की जा सकती है, यह तानाशाही से कम नहीं है।
हालाँकि, उत्तर प्रदेश प्राइवेट यूनिवर्सिटी एसोसिएशन ने सरकार के इस क़दम का समर्थन किया है। एसोसिएशन के सचिव पंकज अग्रवाल का कहना है कि इस क़ानून में कुछ भी नया नहीं है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा है कि इस बारे में पूरी जानकारी क़ानून बनने के बाद ही पता चल पाएगी।
उत्तर प्रदेश में कुल 27 निजी विश्वविद्यालय हैं और इसे लागू करने के लिए उनके पास क़रीब एक साल का वक़्त होगा।
लेकिन सवाल खड़ा होता है कि क्या राष्ट्रवाद के इस क़ानून का बेजा इस्तेमाल नहीं होगा और कौन यह तय करेगा कि कौन-सी हरकत राष्ट्र विरोधी है और कौन-सी नहीं है? और क्या इस क़ानून के बहाने विश्वविद्यालयों को एक-दूसरे को परेशान करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा?
राष्ट्रवाद पर जेएनयू में विवाद
इस संदर्भ में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का उदाहरण सबके सामने है जहाँ पर यह आरोप लगाया गया कि कुछ छात्रों ने भारत विरोधी नारे लगाए और यहाँ तक कहा कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’। इस घटना के बाद पूरे देश में ज़बर्दस्त हंगामा हुआ और हर गली-मोहल्ले और टीवी चैनलों पर जमकर बहस हुई। जेएनयू का छात्र रहे कन्हैया कुमार और उनके साथियों को इस आरोप में गिरफ़्तार किया गया। अदालत में पेशी के दौरान कन्हैया की पिटाई की गई और ऐसा लगा कि पटियाला हाउस कोर्ट परिसर जंग के मैदान में तब्दील हो गया था।
लेकिन तीन साल बाद भी पुलिस कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई थी। जबकि यह इतना बड़ा मुद्दा बना था कि पुलिस को पुख्ता सबूतों के साथ 90 दिन के अंदर चार्जशीट दाखिल कर देना चाहिए था। आज भी दिल्ली पुलिस यह दावे के साथ नहीं कह सकती कि कन्हैया के ख़िलाफ़ उसके पास पुख्ता सबूत हैं।
राष्ट्रद्रोह पर क़ानून है तो नया क़ानून क्यों?
इसी तरह जादवपुर विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में भी राष्ट्रवाद के नाम पर जमकर हंगामा हुआ था और मारपीट हुई थी। ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि राष्ट्रद्रोह के मामले में जब पहले से ही क़ानून हैं तो नया क़ानून बनाने की ज़रूरत क्या है? उत्तर प्रदेश सरकार को यह साफ़ करना चाहिए कि मौजूदा कानून क्या पर्याप्त नहीं है कि नये क़ानून की ज़रूरत पड़ रही है? अगर बीजेपी को लगता है कि विश्वविद्यालय के अंदर देश विरोधी हरकतें इतनी बढ़ गई हैं कि उसे क़ानून बनाना पड़ रहा है तो फिर यह क़ानून सिर्फ़ निजी विश्वविद्यालयों पर ही क्यों लागू हो रहा है? राज्य सरकार के अधीन आने वाले विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में इसे क्यों नहीं लागू किया जा रहा है?
क्या योगी सरकार यह कहना चाहती है कि विश्वविद्यालय देश विरोधी ताक़तों के अड्डे बन गए हैं? अगर ऐसा है तो फिर ऐसे विश्वविद्यालयों को चलाने की ज़रूरत क्या है?
क्या बीजेपी का कोई नया प्रोजेक्ट?
ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश सरकार का यह क़दम उतना मासूम नहीं दिखता जितना बीजेपी दिखाने की कोशिश कर रही है। अब यह तो वक़्त ही बताएगा कि विपक्ष के इस आरोप में कितना दम है कि इस क़ानून का सहारा लेकर शिक्षा का पूरी तरह से भगवाकरण करने की कोशिश की जा रही है या फिर आरएसएस की विचारधारा लागू करने का कोई बहाना है। या फिर उत्तर प्रदेश के इन निजी विश्वविद्यालय के ज़रिए बीजेपी और आरएसएस कोई पायलट प्रोजेक्ट चलाना चाह रहे हैं ताकि आने वाले समय में इस क़ानून को देश भर के शिक्षण संस्थानों में लागू किया जा सके।
ज्ञान क़ानून से नहीं, किताबों से आता है
शिक्षा संस्थान ज्ञान के मंदिर होते हैं। वहाँ बुद्धि और विवेक पढ़ाया और सिखाया जाता है। और ज्ञान क़ानून से नहीं, किताबों से आता है। और देशप्रेम राष्ट्रवाद की घुटी पिलाने से नहीं आता है। आज ज़रूरत इस बात की है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में आधुनिक शिक्षा के मंदिर खुलें जहाँ पढ़कर छात्र अपने सुनहरे भविष्य का निर्माण करें और देश की सेवा में जुटें, लेकिन अगर डर और ख़ौफ़ का माहौल रहेगा तो शिक्षा के मंदिर में न तो ठीक से पढ़ाई होगी और न ही ज्ञान के नये रास्ते खुलेंगे।
अपनी राय बतायें