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दिल्ली एनसीआर से उत्तर प्रदेश में अपने गाँवों की ओर लौटते लोग। एनएच 24 की तसवीर।फ़ोटो साभार: वीडियो ग्रैब/अजीत अंजुम

ये कौन हैं जो पैदल जा रहे हैं! इनकी ज़ुबानबंदी टूटती क्यों नहीं?

सरकार ने योजनाओं, स्कीमों के खाने बनाकर उनमें पैसे डाल दिए हैं। लोगों की असल ज़िंदगी इन खानों और खाँचों से बाहर है। वे ओवरब्रिज के नीचे, सड़क के डिवाइडर, कई सिर्फ़ अपने रिक्शों में सोते हैं। वे किसकी गिनती में हैं, किस स्कीम में फ़िट होते हैं? वे गिनती के बाहर हैं। रोज़ रोज़ जो इंसान से एक दर्ज़ा कम जीते जाने को मजबूर हैं, वही लौट रहे हैं।
अपूर्वानंद

फ़ोन की घंटी बजी। रात का साढ़े नौ बजा था। दूसरे सिरे पर नवीन थे। मैं चिंतित हुआ। नवीन उस्मान, अविनाश और विश्वजीत के साथ कुछ घंटे पहले ही शिव विहार की ओर निकले थे, जिसे फ़रवरी की हिंसा ने तहस नहस कर दिया था। खाना और कुछ पैसा भी लेकर। हिंसा के बाद राहत शिविर तोड़ डाले गए हैं लेकिन लोगों के पास पैसे नहीं हैं और न खाने को राशन है। परसों जब वे उस इलाक़े में थे तो अविनाश का सामना कुछ लाठीधारियों से हो गया था। इस रात के फ़ोन से मैं घबराया कि फिर कुछ वैसा ही तो नहीं हुआ।

‘लोग चले जा रहे हैं।’ नवीन ने कहा। कहाँ? ‘बस वे चले ही जा रहे हैं। हम बॉर्डर पर हैं। हर्ष विहार के पास। यूपी शुरू हो जाता है, साहिबाबाद। वे निकल रहे हैं, सैकड़ों।’ मैं चुप सुनता रहा। ‘क्या किया जा सकता है इस रात के वक़्त? किसे फ़ोन करें?’ नवीन ने कहा, ‘लोग लगातार पैदल ही निकल रहे हैं। अगर इनमें से किसी को भी संक्रमण हुआ है तो ये सब जिन गाँवों में पहुँचेंगे वे सब असुरक्षित हो जाएँगे।’ ‘यह तो ठीक, लेकिन इन्हें कौन रोकेगा? कहाँ ठिकाना है इनका?’ यह नवीन को भी पता है। वे लाचारी से इन सबको जो इस भारत माता की संतान हैं, उस शहर से निराश होकर निकलते देख रहे हैं जिसकी गाड़ी के ये ईंधन हैं। आम दिनों में इनके बिना यह शहर थम जाएगा। लेकिन आज उसने इन्हें अपनी निगाह की हद से दूर कर लिया है।

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क्या करें? मैंने नवीन से पूछा। ‘मैंने सोचा, आपको बता दूँ!’ मैंने बेचैनी में सांसद मित्र संजय सिंह को ख़बर दी। अब उन्हें फ़ोन करते झिझक होने लगी है। आख़िर दिन में कितनी बार किसी भले शख्स को तंग किया जा सकता है! और मैं तो एक हूँ, जाने और कितने लोग खटखटा रहे होंगे उनको!

ये सब जो चल रहे हैं, वापस गाँव की ओर वे सबके सब जैसे एक फिटकार भेज रहे हैं इस शहर पर। इस अर्थव्यवस्था पर। इस उलटे सफ़र को देखिए और मन में टाँक लीजिए। यह आख़िरी हक़ीक़त है हमारी।

इन सबने विद्रोह क्यों नहीं कर दिया? क्यों इन्होंने खामोशी से मान लिया कि यही इनका नसीब है! क्यों नहीं इस सरकार से सवाल करने की सोची भी इन्होंने? क्यों ख़ुद को इस राष्ट्र का अतिरिक्त मानकर बस चुपचाप चल पड़े?

सत्याग्रह ने इनमें से कुछ की रिपोर्ट की है। भावुकता जगाने की कोशिश नहीं है इसमें, यह यथातथ्य कथन है, 

बिहार के सुपौल ज़िले के रहने वाले सुधीर कुमार की क़िस्मत इतनी इच्छी नहीं रही। एक महीने पहले वह अपने 14 साथियों के साथ जयपुर के एक कोल्ड स्टोरेज में काम करने पहुँचे थे। लॉकडाउन का ऐलान हुआ तो मालिक ने उन्हें दो हज़ार रुपये देकर जवाब दे दिया। शहर में कर्फ्यू जैसे हालात थे। घबराकर वे और उनके साथी पैदल ही जयपुर से सुपौल के लिए निकल पड़े। 21 मार्च को चले ये सभी लोग 24 मार्च तक क़रीब 230 किलोमीटर की दूरी तय कर आगरा पहुँच गए थे। जयपुर से सुपौल 1274 किलोमीटर दूर है। 

20-वर्षीय अवधेश कुमार की भी यही कहानी है। वे उत्तर प्रदेश के उन्नाव की एक फ़ैक्ट्री में काम करते हैं। लॉकडाउन के चलते फ़ैक्ट्री बंद हुई तो उन्होंने मंगलवार रात को ही 80 किलोमीटर की दूरी पर बसे बाराबँकी में अपने गाँव की तरफ़ चलना शुरू कर दिया था। ऐसे ही चलते रहे तो वे गुरुवार सुबह घर पहुँच पाएँगे। उनका साथ देने के लिए 20 और बुजुर्ग और जवान भी हैं जो उन्नाव की उसी फ़ैक्ट्री में काम करते हैं।

(अगला) क़िस्सा दिल्ली में दिहाड़ी पर काम करने वाले बंटी का है। वे भी अपने छोटे भाई, पत्नी और चार बच्चों समेत दिल्ली छोड़कर अपने गाँव अलीगढ़ पैदल जा रहे हैं। उनका एक बच्चा तो 10 महीने का ही है। दिल्ली से बुधवार सुबह चले बंटी का कहना है, ‘यहाँ रुककर क्या पत्थर खाएँगे। गाँव जाएँगे तो वहाँ तो रोटी-नमक मिल जाएगा।’ उनके मुताबिक़ अगर वे ऐसे ही चलते रहे तो कल शाम तक उनका परिवार अलीगढ़ पहुँच जाएगा।

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क्या इन्होंने प्रधानमंत्री को नहीं सुना जिन्होंने सबसे हाथ जोड़ अपने लिए 3 हफ़्ते तक लक्ष्मण रेखा खींच लेने की इल्तिजा की थी? क्या इन तक वह ख़बर नहीं पहुँची कि सरकार ने अपना ख़ज़ाना इन जैसों के लिए खोल कर 1.7 लाख करोड़ रुपए निकाल दिए हैं कि ये कोरोना की इस बाधा को पार कर जाएँ? उस ख़बर से क्यों नहीं इन्हें तसल्ली नहीं हो पाई? वह व्हाट्स ऐप जो नफ़रत क्षणांश में हर दिमाग़ तक संक्रमित करता है, अभी क्यों नहीं इन्हें रोक पाया?

और वह तसवीर

इन्हें उकडूं करके मेंढ़क की तरह दौड़ने को मजबूर करते लाठीवीर पुलिस की तसवीर। वह कौन है पुलिसवाला और उसने ख़ुद को कैसे मालिक समझ लिया इनका? वह जो शायद सामाजिक हैसियत में इनसे एक-दो दर्जा ही ऊपर हो, उसने क्यों इन्हें इंसान की तरह चलने लायक नहीं माना?

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पिछले दिनों लोकप्रिय हुआ नारा इन पुलिसवालों को देखकर याद हो आया, ‘दिल्ली पुलिस लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं।’ वह लट्ठ चल रहा है, सिर्फ़ एक तबक़े पर नहीं। अब वह लट्ठ धर्मनिरपेक्ष हो गया है।

सहृदय अपील कर रहे हैं: रास्ते में लोग इनके खाने-पीने का इंतज़ाम करें! डरे हुए दिल किसी की मदद भी कैसे करें? एक गाँव से ख़बर मिली कि गाँव के लोग बाहर से आनेवालों को शक की निगाह से देख रहे हैं। एक गाँव में एक बाहर से लौटे व्यक्ति को पकड़कर लोगों ने पुलिस के हवाले कर दिया। क्या यहाँ भी यह कहने की ज़रूरत है कि इस शक की हिंसा भी ख़ास-ख़ास तबक़ों को ही शिकार बनाएगी? क्या इस ओर इशारा करना अभी विभाजनकारी माना जाएगा?

इसलिए जो गाँव लौट रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम कि वहाँ का सरकारी अमला जिसे इनके आने की ख़बर मिल चुकी है, इनका स्वागत कैसे करेगा?

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

सरकार ने योजनाओं, स्कीमों के खाने बनाकर उनमें पैसे डाल दिए हैं। लोगों की असल ज़िंदगी इन खानों और खाँचों से बाहर है। वे ओवरब्रिज के नीचे, सड़क के डिवाइडर, कई सिर्फ़ अपने रिक्शों में सोते हैं। वे किसकी गिनती में हैं, किस स्कीम में फ़िट होते हैं? वे गिनती के बाहर हैं।

रोज़ रोज़ जो इंसान से एक दर्ज़ा कम जीते जाने को मजबूर हैं, वही लौट रहे हैं। इस मानव पंक्ति को देखिए अर्थशास्त्रियो, यह पदयात्रा नहीं है, यह तीर्थयात्रा भी नहीं है। जो अर्थव्यवस्था इनकी पीठ पर सवार थी आज उसने इन्हें पीस डाला है।

यह जो ज़ुबानबंद बर्दाश्त की हद है उसे टूटना ही चाहिए।

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