जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में पुलिस ने जो किया उसे क्या कहा जाए? क्या पुलिस क़ानून व्यवस्था बहाल करने का अपना फर्ज निभा रही थी? जब पुलिसकर्मी पुस्तकालय में जबरन घुस रहे थे, खिड़कियाँ तोड़कर आँसू गैस और मिर्च के गोले दाग रहे थे, अंदर घुसकर छात्र-छात्राओं पर हमला कर रहे थे तो क्या वे क़ानून व्यवस्था बहाल कर रहे थे?
जामिया की कुलपति ने बयान दिया है कि उनकी अनुमति के बगैर पुलिस परिसर में घुसी और वहां मौजूद छात्रों पर हमला किया। कुलपति से पहले कुलानुशासक ने भी वक्तव्य दिया कि पुलिस बिना इजाजत लिए परिसर में घुस गई। इसका क्या जवाब है पुलिस के पास? पुलिस का बयान है कि पहले पत्थरबाज़ी हुई और बसों में आग लगाई गई। इसके बाद उसके पास बल प्रयोग के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। जिन्होंने यह किया था, उन्हें पकड़ने के लिए उसे जामिया में घुसना पड़ा।
अगर पुलिस अधिकारियों के बयान को ही मान लें तो साफ़ है कि हिंसा छात्रों ने नहीं की थी। दिन के साढ़े तीन बजे तक प्रदर्शन शांतिपूर्ण था, उसके बाद कुछ असामाजिक तत्वों ने हिंसा शुरू की और एक बस में आग लगा दी गई। इस बयान से जाहिर है कि पुलिस छात्रों को हिंसा के लिए जिम्मेदार नहीं मानती है। फिर उसने बदले की कार्रवाई जैसी भावना के साथ परिसर पर हमला क्यों किया? क्यों हॉस्टल और पुस्तकालय पर हमला किया?
क्यों पुलिस छात्रों को परिसर से निकालकर अपराधियों की तरह हाथ ऊपर करवाते और परेड कराते हुए बाहर ले गई? क्या उनके पास हथियार थे? उनकी बेइज्जती करने का हक़ पुलिस को किसने दिया?
जो प्रदर्शन दो रात तक शांतिपूर्ण था, उसमें हिंसा कैसे हुई? बस में आग किसने लगाई? यह सब कुछ जांच से ही मालूम हो सकता है। लेकिन जिसके लिए किसी जांच की ज़रूरत नहीं, वह निष्कर्ष है पुलिस की हिंसा। पुलिस जो कुछ कर रही थी, वह कोई व्यवस्था की बहाली नहीं थी बल्कि छात्रों को विरोध की जुर्रत करने के लिए सबक सिखाने की हिंसा थी। पुलिस सज़ा दे रही थी। यह उसका काम नहीं है।
न्यूज़ वेबसाइट ‘द वायर’ ने अस्पताल में भर्ती जिस छात्र से बात की, उन्होंने बताया कि वह और कुछ और छात्र पुस्तकालय में पढ़ रहे थे और उन्होंने अन्दर से दरवाजा भी बंद कर लिया था कि जुलूस में शामिल कोई शख़्स बाहर से अंदर न घुस पाए। तभी पुलिस ने दरवाजा तोड़ दिया और उन सबको पीटना शुरू किया। पीटते हुए उन्हें बाहर खदेड़ा गया।
छात्र ने बताया कि पुलिस गालियां दे रही थी। ये खासकर मुसलमानों के लिए अपमानसूचक गालियाँ थीं। उस छात्र को पुलिस ने सीढ़ियों से धकेल दिया। उसका पाँव टूट गया और वह चल नहीं पा रहा था। लेकिन पुलिस ने यह जहमत मोल नहीं ली कि उसे उठाकर अस्पताल ले जाए बल्कि उससे भागने को कहा और पीटती रही। उसे उठा कर अस्पताल ले जाने का काम बाकी छात्रों ने किया जिन्हें उसकी चीख सुनाई पड़ी।
अभी वह छात्र अस्पताल में है, टूटा पाँव लेकर। उससे एक बहुत ही भोला लेकिन शायद ज़रूरी सवाल किया पत्रकार ने कि पुलिस ने ऐसा क्यों किया? उसका उत्तर पुलिस को सुनना चाहिए और अपने बारे में सोचना चाहिए। उसने कहा कि इसके अलावा क्या वजह हो सकती है कि पुलिस ने यह सोच लिया है कि मुसलमान को पीटो।
गाली देने को पुलिस अधिकारी अपनी संस्कृति का हिस्सा मान सकते हैं। यह कि शायद इसके बिना उनमें हिंसा के लिए बल नहीं आ पाता है। क्या बिना गाली दिए किसी को मारा जा सकता है? क्यों भारतीय पुलिस इसे सामान्य सी बात मानती है?
पुलिस के पास अपने बचाव के लिए एक कारण है कि बस में आग लगने के कारण उसे सख्ती करनी पड़ी। अगर इसे मान भी लें तो पुलिस ने जो किया, वह सख्ती नहीं, हिंसा थी। जिस वक्त यह ख़बर आ रही थी, उसी समय यह भी मालूम हुआ कि पुलिस ने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय परिसर में घुसकर भी छात्रों पर हमला किया है। बताया गया कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस को बुलाया था।
जब पुलिस की इस हिंसा को रोकने की कोशिश की जा रही थी तो लोगों ने कहा कि दिल्ली में पुलिस ने जो किया जिसके साथ-साथ अलीगढ़ में भी पुलिस कार्रवाई हुई, उसका निर्देश बहुत ऊपर से था तो पुलिस की मौके के मुताबिक़ खुद फ़ैसले की ताकत का क्या होगा?
आम तौर पर भारत की पुलिस खुद को निजाम की हुकमी जमात मानती है। जनता को वह अपना विरोधी मानती है। जो कमजोर है, किसी भी तरह जिसकी हैसियत कम है उसे कुचलना वह फर्ज मानती है। भारत में दलित और मुसलमान सबसे कम सामाजिक हैसियत के माने जाते हैं। इसलिए उनपर पुलिस की ताकत का कहर जल्दी और सहज ही गिरता है। उस वक्त पुलिस की हिंसा में एक तत्परता भी दिखलाई पड़ती है।
पुलिस जनता के विरोध प्रदर्शन को गैरज़रूरी और नाजायज़ भी मानती है। भारत के छात्रों ने देखा कि हांगकांग में छात्रों का और नागरिकों का विरोध कितना लम्बा चला। वहां भी पुलिस ने कार्रवाई की लेकिन उसमें और भारत की पुलिस के रवैये में ख़ास फर्क देखा जा सकता है।
अभी जो भी विरोध भारत में हो रहा है नागरिकता के क़ानून में तबदीली को लेकर, कहा जा सकता है कि उत्तर-पूर्व, वह भी असम को छोड़ दें तो प्रायः वह मुसलमानों का प्रतिरोध है। उनके साथ वे शामिल हैं, जिन्हें धर्मनिरपेक्ष कहकर लांछित किया जाता रहा है। आम हिंदू मुसलमानों की व्यथा और क्षोभ को समझ नहीं पा रहा। उसे कैसे समझाया जाए? यह काम कौन करे? अगर पूरा हिंदी मीडिया सरकार और भारतीय जनता पार्टी का प्रचारक हो जाए तो जनता को सूचनाएँ कैसे मिलें? अंग्रेजी मीडिया में फिर भी इस क़ानून की आलोचना हो रही है लेकिन हिंदी मीडिया ने इसके पक्ष में प्रचार को ही अपना धर्म मान लिया है। वह खुद को हिन्दुत्ववादी मीडिया मानकर ही चल रहा है।
ऐसी हालत में हिंदू जन को कौन बताए कि मुसलमान भारत में अपनी बराबरी के हक़ के लिए लड़ रहे हैं और उनका यह अधिकार तो है ही, कर्तव्य भी है। जो अपनी बराबरी के हक के लिए नहीं लड़ता वह इंसान कैसे है?
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