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भारत के संविधान पर कुठाराघात है नागरिकता संशोधन विधेयक

भारत की नागरिकता को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। यह परिभाषा सबसे पहले सावरकर ने दी थी। संविधान ने उसे ठुकरा दिया था। इसी कारण भारत में जो जनतंत्र क़ायम हुआ, उसकी बुनियाद में धर्मनिरपेक्षता है। लेकिन अब नागरिकता संशोधन विधेयक लाया जा रहा है जो पूरी तरह से भारत के संविधान की आत्मा के ख़िलाफ़ है और विभाजनकारी है।
अपूर्वानंद

नागरिकता संशोधन विधेयक केंद्रीय सरकार के मंत्रिमंडल ने पारित कर दिया है। कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गाँधी ने इसका विरोध किया है। लेकिन बाक़ी बड़े दल, अगर वे बड़े और राजनीतिक अभी भी हैं, चुप या अस्पष्ट हैं। यह बात बिना लाग लपेट के कही जानी चाहिए कि यह विधेयक पूरी तरह से भारत के संविधान की आत्मा के ख़िलाफ़ है और विभाजनकारी है।

विधेयक के मक़सद में ही उसकी बेईमानी साफ़ झलकती है। वह पड़ोसी देशों में धार्मिक उत्पीड़न झेल रहे लोगों को राहत देने के मानवीय उद्देश्य से परिचालित है, ऐसा बताया जाता है। लेकिन पड़ोसी देशों में वह सिर्फ़ पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान को गिनता है। क्या बाक़ी पड़ोसी देशों, श्रीलंका, म्यांमार, चीन में किसी आबादी को धार्मिक आधार पर उत्पीड़न नहीं झेलना पड़ रहा? सिर्फ़ ये तीन ही क्यों?

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अगर इसका तर्क यह है कि भारत उन लोगों के प्रति ज़िम्मेदारी महसूस करता है जो विभाजनपूर्व भारत के नागरिक थे तो फिर अफ़ग़ानिस्तान क्यों?

क्या तीनों को इसलिए चुना गया कि वे किसी न किसी तरह मुसलमान बहुल और इसलामी राष्ट्र हैं? क्या इसका मक़सद भारत के इस सहज बोध को और सहलाना नहीं है कि मुसलमान बहुल आबादियों में शेष कभी सुरक्षित नहीं रह सकते?

अगर यह विधेयक वाक़ई धार्मिक या किसी भी दूसरे आधार पर उत्पीड़न झेल रहे लोगों की चिंता से प्रेरित होता तो श्रीलंकाई तमिल हिंदुओं को कैसे भूल जाता?

जिन धार्मिक समूहों के लोगों को इसके ज़रिए नागरिकता देने की बात कही जा रही है उनमें सिर्फ़ मुसलमान शामिल नहीं हैं। उसके पीछे भी तर्क यही है कि इन तीन मुसलमान बहुल राष्ट्रों में मुसलमान कैसे उत्पीड़ित होंगे? लेकिन पाकिस्तान में सबसे अधिक ज़ुल्म झेलनेवाले अहमदिया समुदाय को कैसे भूला जा सकता है? या हज़ारा शियाओं को? उनके लिए भारतीय राज्य के दिल में दर्द क्यों नहीं है?

दूसरे, म्यांमार में पीड़ित रोहिंग्या या चीन में उत्पीड़ित वीगर मुसलमान क्यों भारत की करुणा से वंचित हैं? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे मुसलमान हैं?

भारतीय संविधान स्पष्ट है कि मानवीय अधिकारों के मामले में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह सबको उपलब्ध होगा, सिर्फ़ नागरिकों को ही नहीं।

जिसने भी अनुच्छेद 14 पढ़ा है, वह इसे जानता है। इसका मतलब यह है कि यह संविधान इंसान और इंसान में भेद नहीं करता। यह नहीं पूछता कि आप भारतीय नागरिक हैं या नहीं इसके पहले कि वह आपको पीने को पानी दे। यह भी क़ानून जाननेवाले बताएँगे कि राज्य आबादियों का मनमाना विभाजन नहीं कर सकता।

यह विधेयक संविधान की इस भावना का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए यह सब कुछ करता है। यह दरअसल एक बुनियादी झूठ पर टिका है। वह झूठ यह है कि यह धार्मिक उत्पीड़न झेल रहे अल्पसंख्यकों की हितचिंता से प्रेरित है। भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के साथ जो हो रहा है जिसमें सरकारी दल और उसके संगठन सीधे-सीधे शामिल हैं, उसे अल्पसंख्यकों के ऊपर ज़ुल्म ही कहेंगे। उनकी मदद की आवाज़ जब बाहर से उठती है तो भारत की सरकार उसे भारत को बदनाम करने की साज़िश क़रार देती है। लेकिन खुलेआम 3 देशों का नाम लेकर आधिकारिक तौर पर कह रही है कि वहाँ अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं।

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एन आर सी की विपदा

इस विधेयक को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एन आर सी) के साथ ही देखना पड़ेगा। असम एक एन आर सी की विपदा से अभी उबरा भी नहीं है। कोई 20 लाख लोग इस रजिस्टर से बाहर कर दिए गए हैं। उनमें क़रीब 11 लाख हिंदू हैं। वे बांग्ला और दूसरी भाषाएँ बोलने वाले लोग हैं। तक़रीबन 9 लाख मुसलमान हैं। एन आर सी के पहले भारतीय जनता पार्टी के नेता धमकी दे रहे थे कि एन आर सी के सहारे कोई 2 करोड़ बांग्लादेशी मुसलमान बाहर कर दिए जाएँगे। अब उनकी बोलती बंद है। हिंदू जो ग़ैर नागरिक साबित हुए, मुसलमानों से ज़्यादा निकले। असम के भाजपा नेता, यहाँ तक कि मुख्यमंत्री इसे मानने से इनकार कर रहे हैं।

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मोदी और शाह की धमकी

इसके बाद भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की धमकी जारी है कि अगले कुछ सालों में वे एक-एक घुसपैठिए को बाहर कर देंगे। इसके लिए अब वे देश भर में एन आर सी बनाना चाहते हैं। असम में ग़रीबों ने जो झेला है, अगर उसे ध्यान में रखें तो देश भर के ग़रीब और निरक्षर या कम पढ़े लिखे लोगों के लिए महाविपदा आने वाली है। जो अमित शाह कह रहे हैं, उसे असम की एन आर सी ने झूठा साबित कर दिया है। बांग्लादेश से भारत में लोगों की घुसपैठ की बात अफ़वाह और दुष्प्रचार है। यह दूसरे अध्ययनों से भी साबित हो चुका है कि भारत में आर्थिक कारणों से बांग्लादेशियों के आने की संभावना नहीं के बराबर है। बांग्लादेश इस मामले में भारत से बेहतर है। फिर भी हम भाजपा सरकार के झूठ को क्यों क़बूल कर रहे हैं?

इसके उत्तर से ही समझ में आएगा कि क्यों सी ए बी यानी नागरिक संशोधन विधेयक का प्रस्ताव यह सरकार ला पा रही है। इन दोनों में मुसलमान विरोध छिपा हुआ है। भारत के हिंदुओं को एक शैतानी ख़ुशी देने की कोशिश कि इस मुल्क पर पहला हक़ उनका है, मुसलमानों का हक़, अगर वह हो तो दोयम दर्जे का है। सी ए बी में भारतीय नागरिकता के लिए एकमात्र मुसलमान को अपात्र ठहराने का और क्या मतलब है?

यह भारत के संविधान पर कुठाराघात है। भारत की कल्पना जिस तरह वह करता है, उस कल्पना की हत्या है। भारत पर मुसलमानों का उतना ही अधिकार है जितना हिंदुओं का। यह बात संविधान लागू होने के 70 साल बाद क्यों कहनी पड़ रही है?

भारत की नागरिकता को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। यह परिभाषा सबसे पहले सावरकर ने दी थी। संविधान ने उसे ठुकरा दिया था। इसी कारण भारत में जो जनतंत्र क़ायम हुआ, उसकी बुनियाद में धर्मनिरपेक्षता है। इसका मतलब ही है संख्या बल से निरपेक्ष प्रत्येक धार्मिक समुदाय की भारत में भागीदारी।

जिसे भी जनतंत्र से प्रेम है, जो इंसानियत में यक़ीन रखता है और बराबरी के उसूल को पवित्र मानता है उसका कर्तव्य है कि वह सी ए बी का विरोध करे। वह एन आर सी की मुख़ालिफ़त करे। भारत के राजनीतिक दलों के साहस की परीक्षा का भी यह क्षण है।

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